आज कल उमंगें,
हृदय में, पर्वतों से
हृदय में, पर्वतों से
उतरती जाह्नवी सी,
धवल हो गईं...
बैठ किनारे मैं,
जीवंत, विभोर,
नीलकंवल हो गई...
नीलकंवल हो गई...
धूमिल सी एक उमडन,
जो सताती थी मुझे...
धीरे-धीरे,
मत्स्गंधा सी, उद्बुद्ध,
दृष्टिगोचर हो गई ...
राशि-राशि, सौन्दर्य मेनका,
बेसुध प्रस्तर हो गई...
बंध गई, विश्वमित्र के,
बंध गई, विश्वमित्र के,
कठोर प्राण पाश में...
संवाद की कल्पना
रोम-रोम उतर गई...
'प्रसाद' की कामायनी
अब अंतर्मुखी हो गई ... !!