ऐ सुनो !!
अबला, सबला जो भी हो तुम ...
विद्रोहिणी तो तुम बन गई हो.....लेकिन, ये किन रास्तों पर चल रही हो ?
डर्टी पिक्चर और फटी जींस ?? क्या यही हैं तुम्हारे सबसे बेहतरीन हथियार, विद्रोह करने के लिए ??
तुम्हारा यह रूप देख, कुछ अमानुषों के हारमोंस उफ़ान खा गए...और वो अपना,फ्रस्ट्रेशन पाँच साल की बच्ची पर निकाल गए...अभी-अभी उस मासूम की लाश मिली है...
क्या दोष था उस मासूम का ? क्या उसे मालूम था नारी शक्तिकरण या विमेंस लिबरेशन के बारे में ??
दोषी हमेशा की तरह बच जायेंगे...क्योंकि जज भी हारमोंस वाला होगा और वकील भी....कोर्ट के भीतर की हारमोंस वाली भीड़ को इस बात का चस्का होगा..कि हारमोंस वाला वकील, सवाल कैसे पूछता है...और हारमोंस वाले पत्रकार को दिलचस्पी होगी, तो बस एक गरमा-गरम खबर की....
लेकिन क्या सिर्फ वही हारमोंस वाले दोषी हैं..जिन्होंने एक कली को मसल कर बेजान कर डाला ? नहीं...! तुमने भी इसमें उनका साथ दिया है...अपनी ऊंचाईयों-गोलाइयों से भड़का कर...और तुम्हें ये अच्छी तरह मालूम होना चाहिए...
कानून के अंजर-पंजर ढीले हैं, आँखों पर पट्टी बंधी
है...इसलिए नहीं कि उसकी नज़र में सब बराबर हैं...बल्कि वो सचमुच अँधा हो गया है...बेचारे की एक इन्द्रिय काम करती है....वो सिर्फ पैसों की गर्मी पहचान सकता है...
जानती हो..!!
विद्रोह जंगल में कभी नहीं होता..वो होता है अपने भीतर...
अधिकार माँगना विद्रोह नहीं, उसे पा लेना विद्रोह है...
तुम्हारा पतन, छठी शताब्दी से नहीं हुआ, तब से हुआ है, जबसे तुमने माँगना शुरू किया है...
इतनी शताब्दियों तक, तुम सिर्फ मांगती रही...
और अब, जब तुम थोड़ी सबल होने लगी...तुमने विद्रोह का रुख़ ही मोड़ दिया...गिरने की स्पर्धा शुरू कर दी है...जो जितना गिरेगी, वो उतनी ही बड़ी विद्रोहिणी कहलाएगी, ...और देखो...सब की सब गिरने लगीं हैं...क्योंकि गिरने के लिए मेहनत जो नहीं करनी पड़ती...चढ़ने और गिरने में, यही तो बड़ा फर्क है...
तुम अब और कितना गिरोगी...कोई सीमा है गिरने की ??
माँगना और गिरना क्या यही विकल्प है तुम्हारे पास ?
छीन क्यों नहीं लेती, अपना अधिकार...सलीके में रह कर ?
क्योंकि जिन रास्तों पर तुम चल रही हो, वो तुम्हें सिर्फ और सिर्फ, सैर करायेंगे, मंजिल तक कभी नहीं पहुँचायेंगे....
हाँ नहीं तो..!!