Tuesday, March 6, 2012

छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाये के...



http://firdaus-firdaus.blogspot.in/2008/11/blog-post_05.html 
मैंने ये पोस्ट पढ़ा फिरदौस जी के ब्लॉग पर...उन्होंने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है...सच पूछिए तो मेरी यह पोस्ट उनकी पोस्ट से प्रेरित होकर ही लिखी गयी है...

आपने जिन लोगों का नाम लिया है..निःसंदेह वो वन्दनीय हैं...लेकिन एक बात इन सभी महान हस्तियों में कॉमन है...इन लोगों ने अपने देश और फ़र्ज़ के आगे धर्म को तूल नहीं दिया....उन्होंने वही किया जिसे करने के लिए उनके 'ईमान' ने इजाज़त दी....ये तब की बात है जब 'जुबान', 'यकीन', 'स्वामिभक्ति' जैसे शब्द मायने रखते थे...इनकी तारीफ के साथ-साथ, उनकी भी तारीफ है, जिन्होंने अपना विश्वास इनपर रखा....

बात करते हैं...अवध में होली मनाने की...तो ये त्यौहार पहले से ही मनाये जाते रहे थे....हाँ...महल में इनको मनाना, एक सियासी फैसला होगा...आख़िर आवाम को खुश रखना भी तो एक, सफल शासक का फ़र्ज़ होता है...सभी धर्मों को समान अधिकार मिलना भी चाहिए...आज हमलोग कनाडियन पार्लियामेंट में दिवाली का त्यौहार मनाते हैं...इसे स्थान देना यहाँ की सरकार के हक में हैं..क्योंकि आज हम हिन्दुस्तानियों की तादाद को, कनाडियन सरकार नज़रंदाज़ नहीं कर सकती...लिहाज़ा हमारी दीवाली मनती है पार्लियामेंट में सारे मिनिस्टर्स और प्राईम मिनिस्टर के साथ...और ये यहाँ की सरकार का सियासी फैसला है...

जहाँ तक कत्थक की बात है...कत्थक नाम 'कथा' शब्द से बना है, कत्थक उत्तर प्रदेश का एक परिष्कृत शास्त्रीय नृत्य है, जो कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ किया जाता है, इस नृत्य में नर्तक किसी कहानी या संवाद को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है, कत्थक नृत्य का अभ्युदय ३-४ वीं शताब्दी में उत्तर भारत में हुआ था, आदिकाल में यह एक धार्मिक नृत्य हुआ करता था, जिसमें नर्तक महाकाव्य गाते थे, और अभिनय करते थे, महाभारत में भी कत्थक नृत्य का प्रसंग है....१३ वी शताब्दी तक आते-आते कत्थक एक सौन्दर्यपरक नृत्य हो गया, किसी भी कला की भाँति इस नृत्य में भी नवीनता आने लगी...अब इसमें सूक्ष्मता पूर्वक अभिनय एवं मुद्राओं पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, साथ ही 'बोल' का प्रयोग अधिक होने लगा,  १५-१६ वीं शताब्दी में भक्ति-काल का दौर चला, तब कत्थक, कृष्ण लीला, राधा-कृष्ण प्रेम प्रसंग के लिए ज्यादा प्रसिद्ध होने लगा...१६ वीं शताब्दी में मुगलों ने इसे राजसी मनोरंजन में शुमार कर लिया, और तब कत्थक में थोड़ी और फेर बदल हुई...उन्ही दिनों इसमें चकरी की तरह घूमना डाला गया, जो मिडिल इस्ट के नृत्यों का प्रभाव माना जा सकता है...अब कत्थक नृत्य, ठुमरी गायन और तबले तथा पखावज के साथ ताल मिलाते हुए किया जाने लगा...और विशुद्ध धार्मिक कला से कत्थक बन गया, मुगलों का राजसी मनोरंजक नृत्य...ऐसे ही एक नवाब थे वाजिद अली शाह , शौक़ीन मिजाज़...बेशक इस्लाम नृत्य-संगीत की आज्ञा नहीं देता..लेकिन अन्य मुग़ल बादशाहों की तरह, नवाब वाजिद अली शाह को भी इस्लाम नहीं रोक पाया था....और उसने भी अपने हरम और दरबार में..कत्थक नृत्य-संगीत को स्थान दिया...कत्थक उस ज़माने में दरबार में नाचने वालियों का ही नृत्य बन गया...ये नाचने वालियां दरबारों में ही नाचतीं थीं, आम घरों में नहीं...क्योंकि कत्थक का इतिहास बहुत पुराना है, अतः ये कहना गलत होगा कि  वाजिद अली शाह ने हिन्दुस्तान को कत्थक नृत्य दिया...

इस्लाम में गाना-बजाना हराम है..किन्तु हिन्दू धर्म में, संगीत एक अहम् स्थान रखता है...संगीत का अभियुत्थान ही सामवेद से हुआ है...कहते हैं नारदमुनी ने संगीत का प्रचार किया था, और ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती, संगीत की देवी हैं...पाणिनि ने संगीत को एक संरचना दी...जिससे रागों का अविर्भाव हुआ...देवी-देवताओं की स्तुति, संगीत से ही की जाती थी..और इसके लिए श्लोकों, गीतों, भजनों की कमी नहीं थी,  श्री कृष्ण-राधा, गोपियों की लीलाओं के अनेको अनेक नृत्य-गीत, तब भी जनसाधारण गाया-नाचा करते थे...ये तीज-त्यौहार हिन्दू बहुल समाज का हिस्सा थे...आज भी, जो हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीन सीखते हैं...वो हिन्दू भजन ही सीखते हैं...क्योंकि शास्त्रीय संगीत का आधार राग हैं...और जैसा मैंने बताया...सामवेद में सातों सुरों का ज़िक्र है...और राग-रागिनियाँ से ही भजनों का सृजन होता है...इसलिए भारतीय शास्त्रीय संगीत के विद्यार्थी वो चाहे, हिन्दू हों, मुसलमान हो, सिख हों या ईसाई...उन्हें भजनों को ही गा कर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा मिल सकती है...यही बहुत बड़ा कारण है..कि  बड़े-बड़े संगीतज्ञं चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों...भजनों पर अपनी पकड़ अच्छी पाते हैं..आधुनिक युग में इसका सबसे अच्छा उदहारण होगा फिल्म 'बैजू बावरा' का भजन 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज'...जिसके गायक हैं, श्री मोहम्मद रफ़ी और संगीतकार हैं, श्री नौशाद...

अब बात करते हैं अमीर खुसरो की...अमीर खुसरो का जन्म जिला एटा में हुआ था, खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि अमीर खुसरो, एक सूफियाना कवि थे और ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मुरीद थे, इनका जन्म सन १२५३ में हुआ था, इनके जन्म से पूर्व इनके पिता तुर्क में लाचीन काबिले के सरदार थे, मुगलों के ज़ुल्म से घबरा कर, इनके पिता सैफुद्दीन मुहम्मद, हिन्दुस्तान भाग आये थे और उत्तरप्रदेश के एटा जिले के, पटियाली गाँव में जा बसे..अमीर खुसरो की माँ दौलत नाज़, हिन्दू (राजपूत) थीं, वो  दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे, अमीर एमादुल्मुल्क राजनीतिक दवाब के कारण, नए-नए मुसलमान बने थे, इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे, खुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था, जिसने अपना अच्छा ख़ासा असर अमीर खुसरो पर दिखाया...खुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक था, इस पर बाद में खुसरो ने 'तम्बोला' नामक एक रचना भी लिखी, इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल ने किशोर खुसरो को पारस बना दिया...

अमीर खुसरो के जन्म का नाम अबुल हसन था, इनके गुरू हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया थे जिनकी इन पर अटूट कृपा थी, ये भी उन पर बडी श्रध्दा रखते थे, खुसरो संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की तथा कई भारतीय भाषाओं के ज्ञाता थे, ये १२ वर्ष की आयु से शेर और रुबाइयाँ लिखने लगे थे, जिनकी भाषा 'हिंदवी है, कहते हैं, इन्होंने ९९ पुस्तकें लिखीं, हिंदी में इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ बहुत लोकप्रिय हुईं, अमीर खुसरो न सिर्फ एक कवि थे, उन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भी महारत हासिल थी, जाहिर सी बात है जब उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा था, तो भजनों से उनको दो-चार होना ही पड़ा होगा, और शायद गहन आस्था भी थी, उनकी राधा-कृष्ण में...फलत हमें एक अमूल्य धोरोहर मिल गयी....
अमीर खुसरो खडी बोली के प्रथम कवि, बुहभाषाविद, सूफी साधक, हिंदू मुस्लिम एकता के अग्रदूत, भारतीय संगीत के परम ज्ञाता तथा जो सबसे अहम् बात है, वो एक राष्ट्रभक्त थे...उनके बुझौवल बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुए...आज भी उन बुझौवल का कोई सानी नहीं है...

एक नार वह दाँत दँतीली। दुबली-पतली छैल छबीली।
जब वा तिरियहिं लागै भूख। सूखे हरे चबावै रूख।
जो बताया वाही बलिहारी। खुसरो कहे बरी को आरी।
- आरी

बीसों का सिर काट लिया। ना मारा ना खून किया॥
- नाखून
 
सावन भादो बहुत चलत है, माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यों कहे, तू बूझ पहेली मोरी॥
- मोरी

घूस घुमेला लहँगा पहिने, एक पाँव से रहे खडी।
आठ हाथ हैं उस नारी के, सूरत उसकी लगे परी।
सब कोई उसकी चाह करे, मुसलमान, हिंदू छतरी।
खुसरो ने यही कही पहेली, दिल में अपने सोच जरी।
- छतरी

आदि कटे से सबको पारे। मध्य कटे से सबको मारे।
अन्त कटे से सबको मीठा। खुसरो वाको ऑंखो दीठा॥
- काजल

बाला था जब सबको भाया। बढा हुआ कछु काम न आया।
खुसरो कह दिया नाँव। अर्थ करो नहिं छोडो गाँव॥।
- दीया

एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे॥
- आकाश

एक नार ने अचरज किया। साँप मार पिंजरे में दिया।
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खा। सूखै ताल साँप मरि जाए॥
- दीये की बत्ती

एक नारि के हैं दो बालक, दोनों एकहिं रंग।
एक फिरे एक ठाढ रहे, फिर भी दोनों संग॥
- चक्की

खेत में उपजे सब कोई खाय।
घर में होवे घर खा जाय॥
- फूट

मुकरियाँ 
रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥
यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

नंगे पाँव फिरन नहीं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय॥
मीठे लागें वाके बोल। ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल॥

जब माँगू तब जल भरि लावे। मेरे मन की तपन बुझावे। ।
मन का भारी तन का छोटा। ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा॥

बेर-बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूँ तो काटे खावे॥
व्याकुल हुई मैं हक्की-बक्की। ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी॥

अति सुरंग है रंग रंगीलो। है गुणवंत बहुत चटकीलो।
राम भजन बिन कभी न सोता। क्यों सखि साजन? ना सखि तोता॥

अर्ध निशा वह आयो भौन। सुंदरता बरने कवि कौन।
निरखत ही मन भयो आनंद। क्यों सखि साजन?ना सखि चंद॥

शोभा सदा बढावन हारा। ऑंखिन से छिन होत न न्यारा।
आठ पहर मेरो मनरंजन। क्यों सखि साजन?ना सखि अंजन॥

जीवन सब जग जासों कहै। वा बिनु नेक न धीरज रहै।
हरै छिनक में हिय की पीर। क्यों सखि साजन?ना सखि नीर॥

बिन आए सबहीं सुख भूले। आए ते अंँग-ऍंग सब फूले।
सीरी भई लगावत छाती क्यों सखि साजन?ना सखि पाती॥

पंडित प्यासा क्यों? गधा उदास क्यों ?
* लोटा न था
रोटी जली क्यों? घोडा अडा क्यों? पान सडा क्यों ?
* फेरा न था

अनार क्यों न चक्खा? वजीर क्यों न रक्खा ?
* दाना न था

दोहा
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥

पद

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम बटी का मदवा पिलाइके
मतवाली कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

ग़ज़ल

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ||

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ||

चो शम्मा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह |
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ||

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||

तो ये थे कवि अमीर खुसरो रचित चंद बेशकीमती मोती..

जहाँ तक, शिवाजी को मुसलामानों का साथ मिलने कि बात है...ये मत भूलिए...बहुत सारे हिन्दू ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए थे..और ऐसा भी नहीं था, कि औरंगजेब बहुत लोकप्रिय शासक था...उसके जितने हिन्दू दुश्मन थे, उतने ही मुसलमान दुश्मन थे..वो भी तो होंगे..औरंगजेब के खिलाफ...

गुलाम गौस खान और खुदादा खान भी, बेशक स्मरणीय हैं, क्योंकि इन्होने अपने धर्म से पहले अपना फ़र्ज़ निभाया...और उन्हें इस क़ाबिल समझने के लिए लक्ष्मीबाई की पारखी नज़रों की भी तारीफ़ किये बिना हम नहीं रह सकते...
हम ये क्यों भूलते हैं कि..इन्सान की बुनियादी ज़रूरतें किसी भी धर्म से पहले आतीं हैं..मनुष्य, अपना  और अपने परिवार का भरण पोषण करना, अपना पहला फ़र्ज़ समझता है...और शायद ईश्वर भी यही चाहते हैं...हमारे मुसलमान भाई-बहन भी अपवाद नहीं हैं...कितने ही ऐसे काम हैं, जो वो अपना काम, अपनी नौकरी या फिर अपना पेशा मान कर करते हैं..और इनको करने में उनका धर्म इनके आड़े नहीं आता...इसके कई उदाहरण हैं....दिवाली में सजाने के सामान, दीये, मूर्तियाँ इत्यादि मुसलामानों के हाथों बनाए हुए होते हैं....होली के रंग, मंदिरों में चढ़ाये जाने वाले हार-सिंगार, मुसलमान भाई-बहन के हाथों की कला-कृति होती है...रंग बिरंगी चूड़ियाँ जिनसे लाखों हिन्दू-मुस्लिम दुल्हने बड़े शौक से अपने सुहाग की निशानी मान कर पहनतीं हैं, फैजाबाद के मुसलमान बनाते हैं...यहाँ तक कि सारे राम नामी शाल-दुशाले भी जिन्हें बड़े से बड़े मंदिर और छोटे से छोटे शिवालय के पुरोहित अपने अंग पर धारण करते हैं, मुसलमान रंगरेजों ने ही रंगे होते हैं,......अब सवाल ये उठता है..अगर वो अपने इस्लाम के हिसाब से जीने लगे तो, क्या चल पाएगी उनकी रोज़ी-रोटी और गृहस्थी ???...लेकिन वो सभी बेहतर मुसलमान हैं..जो अपने और अपने बच्चों के प्रति, अपने फ़र्ज़ को बहुत अच्छी तरह समझते हैं....और वही करते हैं जो उन्हें उचित लगता है...उनके लिए, उनका काम, उनकी रोज़ी ही ख़ुदा होता है...जिसमें उनकी आस्था पहले होती है..फिर चाहे वो लक्ष्मी-गणेश की मूर्ती हो या राम-नामी शाल...उनको कोई फर्क नहीं पड़ता और वो अपना काम पूरी ईमानदारी से करते हुए, अपने धर्म का भी पालन करते हैं...

हम अगर आज के तालेबानी इस्लाम की नज़र से देखें तो, जिन ऐतिहासिक व्यक्तियों का ज़िक्र किया गया है, वो मुसलमान ही नहीं माने जायेंगे...अगर आज अमीर खुसरो, अकबर, वाजिद अली शाह इत्यादि जिंदा होते तो, कब के इनके नाम से फतवे ज़ारी हो चुके होते..और इनके सर कलम किये जा चुके होते...
लेकिन हम आज उन्हीं दहशतगर्दों, के ढकोसलों के बीच जी रहे हैं...जिन्होंने न सिर्फ ग़ैर मुस्लिम धर्मावलम्बियों को निशाने पर रखा है...उनकी बन्दूक की नोक मुसलामानों की तरफ भी है...शायद यही कारण है कि  आज के ज़्यादातर मुसलमान किसी भी देश के नागरिक होने से पहले, मुसलमान होने पर मजबूर हैं ...और यही उनकी सबसे बड़ी त्रासदी है...

हमें भी बुरा लगता है जब क्रिकेट जैसे खेल में भी, हम बड़ी तादाद में मुसलमान मोहल्लों में जश्न होते देखते हैं, तब, जब भारत की हार होती है और पाकिस्तान की जीत..जब हम मुसलामानों, जिसका अर्थ ही होता है 'मुसल्लम हो ईमान जिसका', को ऐसी बेईमानी करते हुए देखेंगे तो असर तो होगा ही...
मुसलामानों को शक के घेरे में लाने के लिए ख़ुद मुसलमान जिम्मेदार हैं...और कोई नहीं...

और भी मुद्दे थे..उनके बारे में फिर कभी तफसील से बात करुँगी...फिलहाल इतना ही...!!
हाँ नहीं तो..!! 

इस पोस्ट में कुछ जानकारियाँ यहाँ से ली गयीं हैं..
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छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाये के...