ये
उन दिनों कि बात है जब हम कनाडा नए-नए आये थे, पति श्री संतोष शैल को
तुंरत ही भारत जाना पड़ा, IGNOU में अपना प्रोजेक्ट ख़तम करने और मैं बच्चों
के साथ कनाडा में अकेली रह गई । बच्चे काफी छोटे थे ५,४,२ वर्ष, उन दिनों मैं Carleton
University में एक course भी ले रही थी और पढ़ा भी रही थी । संतोष जी को भारत
गए हुए ६ महीने हो गए थे, अकेले सब कुछ सम्हालना बहुत कठीन हो रहा था
लेकिन हम औरतें बड़ी जीवट होतीं हैं, सम्हाल ही लेती हैं सब कुछ, सो मैंने भी सम्हाल
ही लिया । क्योंकि University से घर और घर से University यही मेरी दिनचर्या थी इसलिए जीवन भी बड़ा सपाट सा था ।
उनदिनों मैं
ड्राइव नहीं करती थी इसलिए कहीं घूमने जाना भी मुश्किल था । घर का सामान
University आते-जाते ही ले आया करती थी । नयी जगह थी इसलिए पहचान के लोग न
के बराबर थे और अगर घर में कोई पुरुष ना हो तो हम महिलाएं वैसे भी लोगों
से कन्नी कटा ही लेतीं हैं । खैर ६ महीने तक लगातार नए देश की परेशानियों का
मुकाबला करते-करते कुछ अच्छा सा और कुछ नया सा करने की सोच बैठी मैं । मैंने सोचा
क्यों न मेरे क्लासमेट्स, जिनसे अब मेरी अच्छी पहचान हो गयी है, उन्हें घर
बुला कर खाना खिला दूँ । इससे घर में थोड़ी चहल-पहल भी जायेगी और मेरा,
मेरे बच्चों का थोड़ा मन भी लग जायेगा । मैंने अपने क्लास की पांच लड़कियों को
आमंत्रित कर लिया, और हमारे प्रोफ़ेसर Wornthorngate, जिनसे ये लड़कियाँ काफी
घुली-मिली थी, उन्हें भी बुला लिया ।
सबने
अपनी तरफ से इच्छा व्यक्त कि मैं फलाँ चीज़ बना कर ले आऊँगी, मुझे फलाँ
चीज बनाना अच्छी तरह आता है, मैं समझ नहीं पा रही थी कि जब आमंत्रण मैं दे
रही हूँ तो खाना लाने कि बात ये क्यों कर रही हैं, मुझे मामला समझने में
थोड़ा वक्त लगा लेकिन बात समझ में आई, वो 'potlak ' करने की बात कर रही थीं ।
ये एक नयी खबर थी मेरे लिए, हम हिन्दुस्तानी तो मेज़बान के घर सिर्फ मेहमान बन कर
ही जाते हैं । खाना लेकर जाने की
परम्परा हमारी है ही नहीं ।
खैर
जब मुझे बात समझ में आई तो मैंने बड़े साफ़ शब्दों में मना कर दिया कि दावत
मैं दे रहीं हूँ इसलिए खाने की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ मेरी है । सारी
लड़कियाँ मुझसे सहानुभूति जताती रहीं, पूछती रहीं 'Are you sure ? और मेरी
गर्दन 'Absolutely sure ' में हिलती रही । वह सोमवार का दिन था और पार्टी शनिवार
को थी, सबने मुझे एक और सलाह देना शुरू कर दिया कि तुम रोज-रोज कुछ-कुछ बना कर
freez करती जाओ तो आसानी रहेगी । अब यह भी मेरे लिए नयी खबर थी, पार्टी जब शनिवार
को है तो मैं सोमवार को खाना क्यूँ बनाऊं ? आमना (५ सहेलिओं में से एक ) ने
कहा हम तो ऐसे ही करते हैं, पार्टी के ५-७ दिन पहले से ही खाना बनाना शुरू
करते हैं freezer में रखते जाते हैं, और पार्टी वाले दिन गरम करके परोस देते
हैं । मैं तो आसमान से गिर गयी !! मुझे सबसे पहले मेरे बाबा की याद आ गई। सुबह की बनी हुई सब्जी अगर शाम को दिखा भी दो तो चार बातें सुना देते हैं और
अगर जो कहीं ई पता चल जावे कि खाना सात दिन पुराना है, तब तो ऊ घर छोड़ हरिद्वारे में जा
बैठते। हम सबसे कह दिए कि भाई-बहिन लोग हम कौनो ५६ भोग नहीं बनाने वाले हैं, कुल मिला के जो ५-६ आईटम होगा हम उसी दिन बनावेंगे। लेकिन हमरी इस बात पर इस पार्टी की सफलता संदेहास्पद हो गयी थी और
सबलोग हमको अविश्वास भरी नज़रों से देखने लगीं थीं ।
खैर,
राम राम करके वो दिन आ ही पहुँचा, मैंने सुबह उठ कर सारा घर ठीक-ठाक
किया, बच्चों ने भी दौड़-दौड़ कर मेरी पूरी मदद की, घर चमचमा उठा और हम
सबके चेहरे महकने लगे । कितने दिनों बाद घर में कुछ अलग सा हो रहा था, सारे पकवान
बस बनते चले गए । कहीं कोई परेशानी नहीं हुई, बच्चों ने टेबल ठीक किया,
खुशबूदार मोमबत्ती जला कर हम मेहमानों के आने का इंतज़ार करने लगे ।
ठीक टाइम से सभी मेहमान आ गये, कुछ फूल लेकर आये, और कुछ wine । हमारे
प्रोफ़ेसर साहब भी wine लेकर आये । दावत शुरू हो गयी, पीने के लिए पानी, जूस,
कोला वैगेरह सामने रख दिया गया था । सभी अपने अपने तरीके से खाने में जुट गए, कोई सिर्फ चिकन खाता तो कोई
सिर्फ सब्जी, किसी ने दाल को soup ही बना दिया, किसी ने सलाद से प्लेट भर
ली, मेरे और बच्चों के लिए यह एक नया अनुभव था, हम आपस में एक दूसरे को
कनखियों से देख मुस्कुराते रहे । सबने खाने की बहुत-बहुत
तारीफ की ।
मैंने
प्रोफ़ेसर साहब से कहा कि 'संतोष जी' तो यहाँ हैं नहीं इसलिए जो wine
आपलोग लेकर आये हैं, आप लोग ही पी लीजिये। सबको यह आईडिया बहुत पसंद आया,
wine की बोतलें खुल गयीं, साथ ही बातों का सिलसिला भी शुरू हो गया । सबको
मेरे और मेरे घरवालों के बारे में जानने की उत्सुकता थी जो-जो वो पूछते गए मैं बताती चली गई ।
इसी दौरान प्रोफ़ेसर साहब ने पूछ ही लिया 'तुम्हारे पति कबसे बाहर हैं ? मैंने कहा जी
६ महीने से, उनकी आखें फटी कि फटी रह गयी ६ महीनेनेनेने से ? इतना खींच कर और
इतना जोर देकर उन्होंने कहा कि मैं सोचने लगी कहीं मैंने गलती से ६ साल तो
नहीं कह दिया। अंग्रेजी में बात कर रही थी क्या पता मेरी ज़बान शायद फिसल गयी हो,
मैंने दोबारा कहा 'yes 6 months ' और इस बार मैंने याद भी रखा की 6 महीने
ही कहा है । तुम्हारे पति ने तुम्हें ६ महीने से छोड़ रखा है ? उनके चेहरे पर
आश्चर्य के इतने भाव आ गये कि मैं घबड़ा गयी, जल्दी से मैंने कहा उन्होंने
मुझे छोड़ा नहीं है वो प्रोजेक्ट पूरा करने भारत गए है, मेरी बात को फुस से
हवा में उड़ाते हुए उन्होंने कहा 'फिर भी जिस पति ने तुम्हें ६ महीने से छोड़ रखा है
ऐसे पति की तुम्हें ज़रुरत क्या है ?' मुझे यूँ लगा किसी ने मेरे गाल पर कस
कर चाँटा मार दिया हो, मैं कुछ कहना चाह रही थी मगर कैसे कहूँ एक तो वो
मेरे मेहमान, दूसरे मेरे प्रोफ़ेसर, तीसरे अंग्रेज, चौथे सारे स्टूडेंट्स के
सामने, मैं कुछ कहूँगी तो इनको कहाँ बात समझ आएगी ?? मैं उस दिन कुछ भी बोल नहीं पाई ।
वो कहते जा रहे थे, तुम्हें कोई दूसरा आदमी देखना चाहिए, ऐसा करता हूँ और आमना की तरफ मुख़ातिब
होकर कहा ; तुम आज रात इसे बाहर ले जाओ, किसी नाईट क्लब में, लोगों से मिलाओ, अगर थोड़े दिनों तक लोगों से मिलती रहोगी तो कोई न कोई तो मिल
ही जाएगा और हाँ अपने उस पति
को छोडो जिसे तुम्हारी बिलकुल परवाह नहीं हैं, क्यों उसके लिए बैठी हो ?
मैं स्तब्ध होकर सबका मुँह ताकती रह गयी । आमना मुस्कुराती हुई मेरे पास आई,
कहा 'ठीक है मैं रात ९:३० बजे आऊँगी तैयार रहना, तब-तक तुम्हारे बच्चे भी
सो जायेंगे, तुम्हें २ बजे रात तक मैं वापस छोड़ जाऊँगी, कोई दिक्कत भी नहीं
होगी । मैं आवक, मुंह बाए देखती रह गयी, मैंने कहने की कोशिश की कि रात के
९:३० बजे घर से बाहर ?? वो टाइम तो घर में रहने का होता है बच्चों के साथ,
सबने एक सुर में कहा 'It will be fun' आमना ने मेरे बड़े बेटे को बुलाया और
कहा 'Your mom will be going out tonight, so take care of your brother
and sister, OK ! मेरे बेटे ने स्वीकृति में सर हिला दिया, शाम के ६:३० बजे
सबने प्रस्थान करने से पहले मुझे भरपूर हिदायत दी कि 'अच्छे' कपडे पहनूँ, और
खुद को presentable बनाने की कोशिश करूँ।
उनके
जाते ही मैंने दरवाजा भड़ाक से बंद कर दिया, मेरी आँखों से आँसू थम ही नहीं
पाए मैंने अपने तीनो बच्चों को खुद से चिपका लिया। बच्चे टुकुर-टुकुर मेरा
मुंह ताक रहे थे और पूछ रहे थे 'क्या हुआ मम्मी', मैं बस 'कुछ नहीं, कुछ
नहीं ' कहती जा रही थी और मेरे आँसू बहते जा रहे थे । मेरे बड़े बेटे ने कहा 'मम्मी आप
चिंता मत करो मैं निकी और चिन्नी को देख लूँगा, आप जाओ अपने फ्रेंड्स के
साथ'। अपने ५ साल के बेटे से ऐसी बात सुनकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया मैं
मन ही मन कोस रही थी.. फ्रेंड्स ? ये फ्रेंड्स हैं ? ये अगर फ्रेंड्स हैं
तो दुश्मनों की क्या ज़रुरत है ? फ्रेंड्स वो होते हैं जो टूटते घरों को
टूटने से बचाते हैं, और ये दोस्त जहाँ ना आग है ना धुवाँ, वहाँ हाथ सेकने
पहुँच गए, ६ महीने की परेशानी के लिए मेरे सात जन्म का रिश्ता इनके ९:३० से
२ बजे तक में ख़त्म हो जायेगा.... कभी नहीं..., मैंने मेरे बेटे से कहा '
नहीं बेटा हम कहीं नहीं जा रहे है, आज तो हम बिलकुल
भी कहीं नहीं जायेंगे, घर पर रहेंगे , तुम लोगों के साथ , जैसे रोज रहते
हैं ' यह सुनकर मेरे बेटे के चेहरे पर जो ख़ुशी की लहर मुझे दिखी वो ख़ुशी
यहाँ की ७००० क्लबों में ७००० वाट की ७००० बल्बस भी नहीं देंगी, मैंने उसी
वक्त अपने पति को फ़ोन किया और कह दिया ' देखो !! तुम यहाँ की बिलकुल चिंता
मत करो यहाँ सब कुछ ठीक है तुम आराम से अपना काम करो'।
उस
रात ९:३० बजे मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बजती रही, लेकिन मैंने अपने बच्चों को और जोर से अपने से चिपका
लिया और बिस्तर में और अन्दर दुबक गयी, सुख के सागर ने मुझे और मेरे बच्चों को अपने में समेट
लिया, दरवाजे की घंटी, घंटी नहीं थी मेरे विजय की दुंदुभि थी, जो बजती ही
जा रही थी....