Tuesday, October 21, 2014

विजय की दुंदुभि....! (पुरानी पोस्ट)


ये उन दिनों कि बात है जब हम कनाडा नए-नए आये थे, पति श्री संतोष शैल को तुंरत ही भारत जाना पड़ा, IGNOU में अपना प्रोजेक्ट ख़तम करने और मैं बच्चों के साथ कनाडा में अकेली रह गई । बच्चे काफी छोटे थे ५,४,२ वर्ष, उन दिनों मैं Carleton University में एक course भी ले रही थी और पढ़ा भी रही थी । संतोष जी को भारत गए हुए ६ महीने हो गए थे, अकेले सब कुछ सम्हालना बहुत कठीन हो रहा था लेकिन हम औरतें बड़ी जीवट होतीं हैं, सम्हाल ही लेती हैं सब कुछ, सो मैंने भी सम्हाल ही लिया । क्योंकि University से घर और घर से University यही मेरी दिनचर्या थी इसलिए जीवन भी बड़ा सपाट सा था । 

उनदिनों मैं ड्राइव नहीं करती थी इसलिए कहीं घूमने जाना भी मुश्किल था । घर का सामान University आते-जाते ही ले आया करती थी । नयी जगह थी इसलिए पहचान के लोग न के बराबर थे और अगर घर में कोई पुरुष ना हो तो हम महिलाएं वैसे भी लोगों से कन्नी कटा ही लेतीं हैं । खैर ६ महीने तक लगातार नए देश की परेशानियों का मुकाबला करते-करते कुछ अच्छा सा और कुछ नया सा करने की सोच बैठी मैं । मैंने सोचा क्यों न मेरे क्लासमेट्स, जिनसे अब मेरी अच्छी पहचान हो गयी है, उन्हें घर बुला कर खाना खिला दूँ । इससे घर में थोड़ी चहल-पहल भी जायेगी और मेरा, मेरे बच्चों का थोड़ा मन भी लग जायेगा । मैंने अपने क्लास की पांच लड़कियों को आमंत्रित कर लिया, और हमारे प्रोफ़ेसर Wornthorngate, जिनसे ये लड़कियाँ काफी घुली-मिली थी, उन्हें भी बुला लिया ।

सबने अपनी तरफ से इच्छा व्यक्त कि मैं फलाँ चीज़ बना कर ले आऊँगी, मुझे फलाँ चीज बनाना अच्छी तरह आता है, मैं समझ नहीं पा रही थी कि जब आमंत्रण मैं दे रही हूँ तो खाना लाने कि बात ये क्यों कर रही हैं, मुझे मामला समझने में थोड़ा वक्त लगा लेकिन बात समझ में आई, वो 'potlak ' करने की बात कर रही थीं । ये एक नयी खबर थी मेरे लिए, हम हिन्दुस्तानी तो मेज़बान के घर सिर्फ मेहमान बन कर ही जाते हैं । खाना लेकर जाने की परम्परा हमारी है ही नहीं ।

खैर जब मुझे बात समझ में आई तो मैंने बड़े साफ़ शब्दों में मना कर दिया कि दावत मैं दे रहीं हूँ इसलिए खाने की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ मेरी है । सारी लड़कियाँ मुझसे सहानुभूति जताती रहीं, पूछती रहीं 'Are you sure ? और मेरी गर्दन 'Absolutely sure ' में हिलती रही । वह सोमवार का दिन था और पार्टी शनिवार को थी, सबने मुझे एक और सलाह देना शुरू कर दिया कि तुम रोज-रोज कुछ-कुछ बना कर freez करती जाओ तो आसानी रहेगी । अब यह भी मेरे लिए नयी खबर थी, पार्टी जब शनिवार को है तो मैं सोमवार को खाना क्यूँ बनाऊं ? आमना (५ सहेलिओं में से एक ) ने कहा हम तो ऐसे ही करते हैं, पार्टी के ५-७ दिन पहले से ही खाना बनाना शुरू करते हैं freezer में रखते जाते हैं, और पार्टी वाले दिन गरम करके परोस देते हैं । मैं तो आसमान से गिर गयी !! मुझे सबसे पहले मेरे बाबा की याद आ गई। सुबह की बनी हुई सब्जी अगर शाम को दिखा भी दो तो चार बातें सुना देते हैं और अगर जो कहीं ई पता चल जावे कि खाना सात दिन पुराना है, तब तो ऊ घर छोड़ हरिद्वारे में जा बैठते।  हम सबसे कह दिए कि भाई-बहिन लोग हम कौनो ५६ भोग नहीं बनाने वाले हैं, कुल मिला के जो ५-६ आईटम होगा हम उसी दिन बनावेंगे। लेकिन हमरी इस बात पर इस पार्टी की सफलता संदेहास्पद हो गयी थी और सबलोग हमको अविश्वास भरी नज़रों से देखने लगीं थीं ।


खैर, राम राम करके वो दिन आ ही पहुँचा, मैंने सुबह उठ कर सारा घर ठीक-ठाक किया, बच्चों ने भी दौड़-दौड़ कर मेरी पूरी मदद की, घर चमचमा उठा और हम सबके चेहरे महकने लगे । कितने दिनों बाद घर में कुछ अलग सा हो रहा था, सारे पकवान बस बनते चले गए । कहीं कोई परेशानी नहीं हुई, बच्चों ने टेबल ठीक किया, खुशबूदार मोमबत्ती जला कर हम मेहमानों के आने का इंतज़ार करने लगे । 

ठीक टाइम से सभी मेहमान आ गये, कुछ फूल लेकर आये, और कुछ wine ।  हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी wine लेकर आये । दावत शुरू हो गयी, पीने के लिए पानी, जूस, कोला वैगेरह सामने रख दिया गया था । सभी अपने अपने तरीके से खाने में जुट गए, कोई सिर्फ चिकन खाता तो कोई सिर्फ सब्जी, किसी ने दाल को soup ही बना दिया, किसी ने सलाद से प्लेट भर ली, मेरे और बच्चों के लिए यह एक नया अनुभव था, हम आपस में एक दूसरे को कनखियों से देख मुस्कुराते रहे । सबने खाने की बहुत-बहुत तारीफ की । 

मैंने प्रोफ़ेसर साहब से कहा कि 'संतोष जी' तो यहाँ हैं नहीं इसलिए जो wine आपलोग लेकर आये हैं, आप लोग ही पी लीजिये। सबको यह आईडिया बहुत पसंद आया, wine की बोतलें खुल गयीं, साथ ही बातों का सिलसिला भी शुरू हो गया । सबको मेरे और मेरे घरवालों के बारे में जानने की उत्सुकता थी जो-जो वो पूछते गए मैं बताती चली गई । इसी दौरान प्रोफ़ेसर साहब ने पूछ ही लिया 'तुम्हारे पति कबसे बाहर हैं ? मैंने कहा जी ६ महीने से, उनकी आखें फटी कि फटी रह गयी ६ महीनेनेनेने से ? इतना खींच कर और इतना जोर देकर उन्होंने कहा कि मैं सोचने लगी कहीं मैंने गलती से ६ साल तो नहीं कह दिया। अंग्रेजी में बात कर रही थी क्या पता मेरी ज़बान शायद फिसल गयी हो, मैंने दोबारा कहा 'yes 6 months ' और इस बार मैंने याद भी रखा की 6 महीने ही कहा है । तुम्हारे पति ने तुम्हें ६ महीने से छोड़ रखा है ? उनके चेहरे पर आश्चर्य के इतने भाव आ गये कि मैं घबड़ा गयी, जल्दी से मैंने कहा उन्होंने मुझे छोड़ा नहीं है वो प्रोजेक्ट पूरा करने भारत गए है, मेरी बात को फुस से हवा में उड़ाते हुए उन्होंने कहा 'फिर भी जिस पति ने तुम्हें ६ महीने से छोड़ रखा है ऐसे पति की तुम्हें ज़रुरत क्या है ?' मुझे यूँ लगा किसी ने मेरे गाल पर कस कर चाँटा मार दिया हो, मैं कुछ कहना चाह रही थी मगर कैसे कहूँ एक तो वो मेरे मेहमान, दूसरे मेरे प्रोफ़ेसर, तीसरे अंग्रेज, चौथे सारे स्टूडेंट्स के सामने, मैं कुछ कहूँगी तो इनको कहाँ बात समझ आएगी ?? मैं उस दिन कुछ भी बोल नहीं पाई । 

वो कहते जा रहे थे, तुम्हें कोई दूसरा आदमी देखना चाहिए, ऐसा करता हूँ और आमना की तरफ मुख़ातिब होकर कहा ; तुम आज रात इसे बाहर ले जाओ, किसी नाईट क्लब में, लोगों से मिलाओ, अगर थोड़े दिनों तक लोगों से मिलती रहोगी तो कोई न कोई तो मिल ही जाएगा और हाँ अपने उस पति को छोडो जिसे तुम्हारी बिलकुल परवाह नहीं हैं, क्यों उसके लिए बैठी हो ? मैं स्तब्ध होकर सबका मुँह ताकती रह गयी । आमना मुस्कुराती हुई मेरे पास आई, कहा 'ठीक है मैं रात ९:३० बजे आऊँगी तैयार रहना, तब-तक तुम्हारे बच्चे भी सो जायेंगे, तुम्हें २ बजे रात तक मैं वापस छोड़ जाऊँगी, कोई दिक्कत भी नहीं होगी । मैं आवक, मुंह बाए देखती रह गयी, मैंने कहने की कोशिश की कि रात के ९:३० बजे घर से बाहर ?? वो टाइम तो घर में रहने का होता है बच्चों के साथ, सबने एक सुर में कहा 'It will be fun' आमना ने मेरे बड़े बेटे को बुलाया और कहा 'Your mom will be going out tonight, so take care of your brother and sister, OK ! मेरे बेटे ने स्वीकृति में सर हिला दिया, शाम के ६:३० बजे सबने प्रस्थान करने से पहले मुझे भरपूर हिदायत दी कि 'अच्छे' कपडे पहनूँ, और खुद को presentable बनाने की कोशिश करूँ।

उनके जाते ही मैंने दरवाजा भड़ाक से बंद कर दिया, मेरी आँखों से आँसू थम ही नहीं पाए मैंने अपने तीनो बच्चों को खुद से चिपका लिया। बच्चे टुकुर-टुकुर मेरा मुंह ताक रहे थे और पूछ रहे थे 'क्या हुआ मम्मी', मैं बस 'कुछ नहीं, कुछ नहीं ' कहती जा रही थी और मेरे आँसू बहते जा रहे थे । मेरे बड़े बेटे ने कहा 'मम्मी आप चिंता मत करो मैं निकी और चिन्नी को देख लूँगा, आप जाओ अपने फ्रेंड्स के साथ'। अपने ५ साल के बेटे से ऐसी बात सुनकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया मैं मन ही मन कोस रही थी.. फ्रेंड्स ? ये फ्रेंड्स हैं ? ये अगर फ्रेंड्स हैं तो दुश्मनों की क्या ज़रुरत है ? फ्रेंड्स वो होते हैं जो टूटते घरों को टूटने से बचाते हैं, और ये दोस्त जहाँ ना आग है ना धुवाँ, वहाँ हाथ सेकने पहुँच गए, ६ महीने की परेशानी के लिए मेरे सात जन्म का रिश्ता इनके ९:३० से २ बजे तक में ख़त्म हो जायेगा.... कभी नहीं..., मैंने मेरे बेटे से कहा ' नहीं बेटा हम कहीं नहीं जा रहे है, आज तो हम बिलकुल भी कहीं नहीं जायेंगे, घर पर रहेंगे , तुम लोगों के साथ , जैसे रोज रहते हैं ' यह सुनकर मेरे बेटे के चेहरे पर जो ख़ुशी की लहर मुझे दिखी वो ख़ुशी यहाँ की ७००० क्लबों में ७००० वाट की ७००० बल्बस भी नहीं देंगी, मैंने उसी वक्त अपने पति को फ़ोन किया और कह दिया ' देखो !! तुम यहाँ की बिलकुल चिंता मत करो यहाँ सब कुछ ठीक है तुम आराम से अपना काम करो'। 

उस रात ९:३० बजे मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बजती रही, लेकिन मैंने अपने बच्चों को और जोर से अपने से चिपका लिया और बिस्तर में और अन्दर दुबक गयी, सुख के सागर ने मुझे और मेरे बच्चों को अपने में समेट लिया, दरवाजे की घंटी, घंटी नहीं थी मेरे विजय की दुंदुभि थी, जो बजती ही जा रही थी....

Tuesday, October 14, 2014

यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ..? (Repeat)





मंजू दी, बस देख रहीं थीं अपने सामने अस्पताल के बेड पर पड़े, रमेश जीजा जी के निर्जीव शरीर को। छह फीट का इंसान, चार फीट का कैसे हो जाता है ?  वो चेहरा जो कभी, मन मंदिर का देवता था ..आज ....!!! मंजू दी की आँखों में अजीब सा धुवाँ समाने लगा था । पुरानी संदूक से निकले, फटे चीथड़ों सी यादें आँखों के सामने लहराने लगीं, पर एक मुट्ठी लम्हा भी वो समेट नहीं पायीं, जो उनका अपना होता । उनकी आँखों में सूखे सपनों की चुभन, हमेशा की तरह आज भी उन्हें महसूस हो रही थी । 

मंजू दी को आज नियमतः रोना चाहिए था, क्योंकि आज वो विधवा हो गयीं हैं,  और विधान भी यही है । लेकिन वो चाह कर भी रो नहीं पा रही थी । अन्दर ही अन्दर वो आधी कीचड़ में डूब गईं थीं, अगर जो कहीं वो रो पड़ीं, तो शायद भरभरा कर ढह जायेंगी । कमरे में डॉक्टर, नर्स,  मशीनों को और जाने क्या-क्या, अगड़म-बगड़म समेटने में लगे हुए थे । सबके चेहरों पर वही रटी-रटाई ख़ामोशी की चादर चढ़ी हुई थी । कुछ इस्पाती नज़रें, मंजू दी पर, इस आस से टिकी हुई थीं कि अब उन्हें बुक्का फाड़ के रोना चाहिए । लेकिन उनकी आशा के विपरीत मंजू दी ने अपना पर्स उठाया, डॉक्टर से कहा कि "बोडी मेरा छोटा भाई ले जाएगा ।" डॉक्टर ने अपनी तरफ से उन्हें याद भी दिलाया "मिसेज पाण्डेय आई एम रीअली सॉरी फ़ॉर योर लोस...वी डिड आवर बे ..." बीच में ही मंजू दी ने बात काट दी "इट्स ओ . के ....रीअली ..." और वो इत्मीनान से बाहर निकल आयीं ।

मंजू दी की 30 साल की गृहस्थी में से 25 साल की गृहस्थी की कुल जमा पूँजी थी अविश्वास और धोखा । रमेश पाण्डे अपने आप में एक बड़ा ही मशहूर नाम था, उस ज़माने में, ख़ास करके रांची जैसी छोटी जगह के लिए । हैंडसम इतना कि ग्रीक गॉड पानी भरते नज़र आते थे, उसपर से उनका डॉक्टर होना, मतलब ये कि एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा । अगर जे डॉक्टर नहीं बनते तो हीरो बन ही जाते, धर्मेन्द्र भी उनसे उन्नीस ही पड़ते।

मंजू दी मेरी मौसेरी बहन थीं । मेरी मौसी ने एक चाईनीज डेंटिस्ट से शादी की थी । रांची में पहले सारे डेंटिस्ट चाईनीज ही हुआ करते थे । खैर, मेरे चाईनीज मौसा का क्लिनिक रांची के बहुत ही मेन इलाके में था/है और उनका नाम भी बहुत था, इसलिए मेरी मौसी का घर, रांची के गिने-चुने अमीरों में माना जाता था । कालान्तर में मौसी के दो बच्चे हुए, मंजू दी और प्रदीप भैया । पैसा, पावर, पोजीशन ने, हमेशा ही हमारे परिवार के बीच एक फासला रखा । ऐसा नहीं था कि हमारे परिवार के बीच प्रेम नहीं था, था बिलकुल था, लेकिन कहीं, कोई एक अनकहा सा फासला तो था ही ।

मंजू दी उन दिनों मास्टर्स कर रहीं थीं । पता नहीं क्यूँ अचानक उनके बाल बहुत गिरने लगे । सारे घरेलू नुस्खे आजमा लिए गए, लेकिन कुछ कारगर नहीं हुआ । हार कर उन्होंने डॉक्टर के पास जाना ही उचित समझा । खैर, किसी ने नाम बता दिया "डॉक्टर रमेश पाण्डे", बहुत अच्छे हैं ऐसी बातों के लिए । बस मंजू दी पहुँच गई उनको दिखाने । डॉक्टर रमेश की दवा का असर हुआ या नहीं ये तो मालूम नहीं, लेकिन डॉक्टर रमेश का असर ज़रूर हुआ था । फिर जैसा कि होता है, ख्वाहिशों, सपनों ने, हकीक़त के मुखौटे पहन लिए । शिद्दत ने मुद्दत की मियाद कम कर दी और एक दिन, मंजू दी मिसेज पाण्डे बन गयीं । मैं छोटी थी, लेकिन गयी थी उनकी शादी में, बाल मंजू दी के कम ही दिखे थे मुझे, लेकिन चेहरे पर खुशियों का अम्बार लगा हुआ था । मौसी भी फूली नहीं समा रही थी, सबकुछ पिक्चर परफेक्ट लग रहा था।

थोड़े ही दिनों में, डॉ. रमेश, जो अब मेरे जीजा जी भी थे, ने अपना क्लिनिक मौसी के क्लिनिक में शिफ्ट कर लिया । जगह के बदलते और एक नामी क्लिनिक में जगह मिलते ही, रमेश जीजाजी की प्रैक्टिस चमचमा गई । मंजू दी की ज़िन्दगी बड़े सुकून से बीतने लगी, और इसी बीच उनकी 2 बेटियाँ भी हो गयीं ।

अब, प्रदीप भैया (मंजू दी के छोटे भाई) की भी शादी हो गयी । घर में जब, नई बहू आई तो हिस्से की बात भी हुई । वो क्लिनिक जिस में, रमेश जीजाजी ने अपनी प्रैक्टिस चला रखी थी, अब प्रदीप भैया को भी चाहिए थी क्योंकि प्रदीप भैया भी डेंटिस्ट थे । यहीं से खटराग शुरू हो गया । रमेश जीजाजी जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे और प्रदीप भैया उनको देने को तैयार नहीं थे । मंजू दी इनदोनों के बीच पिस रही थी । आखिर दीदी ने जीजाजी से कह ही दिया, मेरे छोटे भाई का हक मैं नहीं मार सकती, आपको ये जगह छोडनी ही होगी । फ़ोकट की जगह छोड़ना, नयी जगह ढूंढना, फिर से क्लाएंट बनाना, उतना आसान नहीं था । फिर जीवन का स्तर भी तो बहुत ऊँचा था, वहाँ से नीचे उतरना भी कब किसे मंज़ूर होता है ! लेकिन उसे मेंटेन करना भी मुश्किल था ।

खैर, रमेश जीजाजी ने, दूसरी जगह अपना क्लिनिक खोल तो लिया लेकिन वहाँ वो बात नहीं बनी जो उस नामचीन क्लीनिक में थी । अब वज़ह क्या थी, ये नहीं मालूम । किस्मत ने साथ नहीं दिया या रमेश जीजाजी मेहनत से क़तरा गए, पता नहीं । लेकिन कुल मिला कर बात ये हुई कि उनकी प्रैक्टिस लगभग ठप्प हो गयी । किसी के पास कुछ न हो, तो उसे उतना बुरा नहीं लगता है, संतोष कर लेता है इंसान कि चलो जी, हमारे पास तो है ही नहीं । लेकिन अगर किसी को सब कुछ मिल जाए और फिर छिन जाए तो उसे झेल पाना उतना आसान नहीं होता । कुछ ऐसी ही हालत, रमेश जीजाजी की भी हो गयी थी और इसी बात के लिए एक तरह से उन्होंने दीदी को सज़ा देना शुरू कर दिया । वो अपने क्लिनिक जाते ही नहीं घर का ख़र्चा चलाना मुहाल हो गया । दीदी को हार कर नौकरी करनी पड़ी । ख़ैर, जैसे-तैसे मंजू दी ने सब सम्हाल लिया । देखते-देखते पांच साल बीत गए । रमेश जीजाजी ने घर के लिए कुछ भी सोचना बंद कर दिया था, उनको हमेशा यही लगता रहा कि उनको, उनका हक नहीं मिला ।

ख़रामा-खरामा ज़िन्दगी, मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही थी और मंजू दी अपने स्याह-सफ़ेद बेजान रिश्ते में रंग भरने की भरपूर कोशिश करती रही ।  ये कोशिश शायद रंग भी ले आती, अगर उस दिन अप्रत्याशित रिश्तों का बम, अपने रिश्तों पर न फूटता ।

वो एक आम सी सुबह थी, मंजू दी हर दिन की तरह, सारे घर के काम निपटाने में लगी हुई थी, उसे ऑफिस भी तो भागना था । सुबह के आठ बजे थे, कॉल बेल  बजने की आवाज़ से ही, मंजू दी झुंझला गयी, "कौन है ...??" का जवाब जब नहीं ही मिला तो, उन्होंने दरवाज़ा खोल ही दिया । सामने एक औरत और उसके साथ 3 जवान लडकियां खड़ीं थीं.. उन्हें लगा शायद कुछ बेचने, या चंदा माँगने आयीं हैं, झट से मना करके वो वापिस मुड़ी । "जी हमें डॉ. रमेश पाण्डे जी से  मिलना है", एक लड़की ने कहा । "अच्छा ! क्या काम है उनसे ? आपलोग क्लिनिक में क्यूँ नहीं जातीं, वो घर पर मरीजों को नहीं देखते हैं।" "जी हम मरीज नहीं हैं, ये मेरी माँ  हैं" थोड़ी अधेड़ उम्र की महिला की तरफ उस लड़की ने इशारा किया "और हम तीनों बहनें हैं। डॉ . रमेश हमारे पिता हैं ।" "क्याआआ ???" मंजू दी इतने जोर से चीखी, कि वो चारों भी एक बार को सहम गयीं । अब मंजू दी, आपे से बाहर हो गयीं "क्या समझती हो तुमलोग खुद को, किसी के घर पर आकर, कुछ भी अनाप-शनाप बक जाओगी ।" मंजू दी की आवाज़, बहुत तेज़ होती जा रही थी । शोर सुन कर रमेश जीजाजी भी आ गए, चारों स्त्रियों को देख कर, वो सकते में आ गए, उनकी चोर नज़रों ने,  इस बात की पुष्टि कर दी कि वो चारों सच कह रहीं थीं। जीजाजी ने उनलोगों का सामान, जो उस दिन घर के अन्दर पहुँचाया, फिर कभी वो सामान बाहर नहीं आया ।

पथराना किसे कहते हैं, वो हमने तब ही देखा था । उस दिन उस घर के दरवाज़े से, कुछ अनजाने, अनचाहे, अनबूझे रिश्ते अन्दर आये और, भरोसा, विश्वास, यकीन, जैसे भाव बाहर चले गए और साथ में चली गयी मंजू दी के होंठों की मुस्कान । रिश्तों की गर्माहट अब पूरी तरह ठंडी हो गयी थी । उसकी जगह शुरू हो गया, नित नए तजुर्बों का घाल-मेल, और नए ढर्रे से, पुराने रिश्तों को घसीटती हुई ज़िन्दगी । इत्ता बड़ा धोखा दिया था रमेश जीजाजी ने । अपनी पहली शादी की बात उन्होंने कभी नहीं बताई थी मंजू दी को, उसपर से 3 जवान लडकियां ?

अब शुरू हो गयी, कभी न ख़त्म होने वाली, जिम्मेदारियों की दौड़ । मंजू दी पर, अपनी दो बेटियों की जिम्मेदारी के अलावे, रमेश जीजाजी की 3 और बेटियों की जिम्मेदारी भी आ गयी । जद्दो-जहद की हर आँधी को चीरती हुई मंजू दी आगे बढ़तीं गईं, उन्होंने रमेश जीजाजी की लड़कियों की शादी की, अपनी बच्चियों का पढाया-लिखाया, उनको अपने पैरों पर खड़ा किया । इसी बीच रमेश जीजा जी बीमार हो गए, उनकी तीमारदारी में भी, कभी कोई कमी नहीं की, मंजू दी ने ।

आज जीजाजी अपने जीवन की आखरी घड़ियाँ गिन रहे थे अस्पताल में, और मंजू दी बैठीं थीं उनके सामने, उनकी आँखों में आँखें डाल कर और पूछ रहीं थीं उनसे, मैंने तो तुमसे माँगा था, हंसी-ख़ुशी का एक छोटा सा घोंसला और तुमने मुझे थमा दिए, बदरंग रंगों में लिथड़े कई अनचाहे रिश्ते । आखिर क्यों किया तुमने ऐसा ?   क्या जवाब देते जीजाजी, खैरात की ज़िन्दगी की मियाद पूरी हो चुकी थी और पाबन्दियाँ ख़त्म । और मैं सोचती रह गई, यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ???

Wednesday, October 8, 2014

दुर्गा पूजा और माँसाहार .....!

 

कई जगहों पर दुर्गा पूजा के दौरान माँसाहार खाने वालों के लिए छी-छी दुर-दुर होते हुए देखा । लेकिन इस त्योहार में माँसाहार सदियों पुरानी परंपरा है,  हमारे झारखंड-बिहार में आज भी बँगाल का प्रभाव देखने को मिलता है, क्योंकि दुर्गा पूजा का आविर्भाव ही बंगालियों की देन है । आज भी कई घरों में सप्तमी को मछली खा कर अष्टमी का व्रत किया जाता है । इन प्रदेशों में नवमी के दिन तो माँसाहार नितांत आवश्यक है, ग़रीब से ग़रीब इन्सान के घर में माँस पकता ही है । नहीं पकने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । नवमी की सुबह मीट की दुकानों में भीड़ सुबह चार बजे से लग जाती है और मीट का भाव बढ़ ही जाता है । 

 

दुर्गा पूजा में मान्यता यह है कि माँ दुर्गा अपने मायके आईं हुईं हैं इसलिए उनके आने की ख़ुशी में खान-पान में कोई कमी नहीं रखी जायेगी । आज भी घर में कोई मेहमान आये तो उसके स्वागत लिए नॉन-वेज बनाना हमारे प्रदेशों की परम्परा है । हमारे घर कोई हमारे जैसा मेहमान आये और हम उसे कढ़ी-चावल या राजमा-चावल परोस दें तो वो दोबारा नहीं आएगा और बदनामी करेगा सो अलग :) अगर ये हमारी सदियों पुरानी परम्पराएँ हैं तो इसपर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले दूसरे कौन होते हैं ???? 

 

जो परम्परायें हमें विरासत में मिली हैं उनका निर्वहन हर कोई अपनी-अपनी तरह से और अच्छी तरह से करने की कोशिश करता है । ये सोच लेना कि मेरी परम्परा उसकी परम्परा से बेहतर है और उसे साबित करने के लिए 'व्यंग', 'कटाक्ष', 'नेम कॉलिंग', भला-बुरा कहना मेरे विचार से कहीं ज्यादा 'हिंसात्मक प्रवृति' है । हैरान करने वाली बात यह है कि कुछ लोगों को सिर्फ़ अपनी भावनाओं की ही फ़िक्र रहती है, वो ना तो दूसरों की भावनाओं के बारे में सोचते हैं ना दूसरों की परम्पराओं को सम्मान देने का विचार करते हैं ।

जब मैं छोटी थी तब से मैंने मेरी दादी, चाची, माँ सबको देखा है जीउतिया का व्रत रखने के एक दिन पहले मछली-भात खाते हुए मेरी कुछ बँगाली दादियों को तो छोटी सी ज़िंदा मछली निगलते भी देखा है जीउतिया (अहोई) व्रत करने से पहले, तो क्या उनको 'क्रिमिनल' माना जाएगा ??? या कि वो सारी बेहतर इन्सान ही नहीं थीं ??? मछली को वँश विस्तार का प्रतीक माना गया है और जिउतिया बच्चों लिए ही किया जाता है इसलिए आज भी शादी-विवाह में बँगाल-बिहार-झारखण्ड के कई ईलाकों में इसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 

आज भी जीउतिया से एक दिन पहले घर में मछली बनती ही है,  दुर्गा पूजा के सप्तमी को मछली बनती है और नवमी के दिन मीट बनता ही है… अब अहिंसा के पुजारियों दे दो हम सबको फाँसी, क्योंकि हम अगर ज़िंदा रहे तो ऐसा होता ही रहेगा !! 

जापान की ७५% आबादी बौद्ध धर्म का अनुकरण करती है, लेकिन वो सभी माँसाहारी हैं, तो इसका क्या अर्थ हुआ कि वो लोग अच्छे बौद्ध नहीं हैं ?

अंतरजाल पर जब कुछ लिखा जाता है तो वह सिर्फ़ उत्तर भारत या मध्य भारत या दक्षिण भारत के लिए नहीं लिखा जाता है,  या यों कहें सिर्फ भारत के लिए नहीं लिखा जाता, यह पूरे विश्व के लिए लिखा जाता है.…ये सभी परम्पराएँ इन त्योहारों के उद्गम के दिन से ही शुरू हुईं हैं और आज भी विद्यमान हैं । सच्चाई को ज़बरदस्ती नकार देने से साक्ष्य नहीं बदल सकते । 

मैं माँसाहार की हिमायती नहीं हूँ, लेकिन मांसाहारियों के लिए घृणा पालने के पक्ष में भी नहीं हूँ क्योंकि ऐसा हुआ तो मुझे बहुतों से घृणा करनी पड़ेगी, मसलन मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, चाचा-चाची, दोस्त-मित्र, मेरे बहुत सारे हिन्दुस्तानी, कैनेडियन, अमेरिकन रिश्तेदारों से.… 

फिर मुझे घृणा करनी होगी ईसा मसीह जैसे पैगम्बर से जिन्होंने माँसाहारी होते हुए भी पूरी दुनिया को प्रेम और शान्ति का सन्देश दिया, मदर टेरेसा से, फिर मुझे घृणा करनी होगी उन सभी हिन्दू ग्रंथों के पात्रों से जो आखेट में जाया करते थे … बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं,  भोजन अपनी पसंद का ही करना चाहिए।

 

बाक़ी भी पढ़ ही लीजिये कैसे हुई थी शुरुआत दुर्गा पूजा की एक बँगाली परिवार द्वारा .…

हाँ नहीं तो !!!

http://www.jagran.com/bihar/rohtas-9777741.html

डेहरी आन-सोन (रोहतास) : शहर में प्रथम दुर्गोत्सव का श्रेय बंगाली परिवार का रहा है। इस परम्परा का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। यहां 1908 में बतौर स्टेशन मास्टर आए मनमुसुनाथ मित्रा ने दुर्गा पूजा की बुनियाद रखी। उन्होंने पाली रेलवे गुमटी अवस्थित देवी मंदिर को शारदीय नवरात्र के दौरान मां दुर्गे की पूजा-अर्चना के लिए चयनित किया। कोलकाता से मूर्तिकार को आमंत्रित किया। उसी मूर्तिकार पुआल के ढांचे पर मिंट्टी की गढ़न से पहली बार मां दुर्गे की प्रतिमा बनाई।

मनमुसुनाथ मित्रा के 95 वर्षीय पुत्र रविन्द्रनाथ मित्रा (एलआईसी के सेवानिवृत्त वरीय प्रबंधक) बताते हैं कि यहां 1956 में रामकृष्ण आश्रम का निर्माण हुआ। तब से दुर्गा पूजा यहां होने लगी। बंगाली समाज तब से यहां लगातार भव्य पूजनोत्सव का आयोजन परंपरागत ढंग से करता आ रहा है। आज भी रामकृष्ण आश्रम की ओर से प्रतिवर्ष पूजा स्मारिका प्रकाशित होती है। इस स्मारिका के विज्ञापन के लिए रामकृष्ण आश्रम से जुड़े युवा काफी मेहनत करते हैं। पितृपक्ष बीतते ही उत्सव की तैयारियां शुरू हो जाती है। आयोजन को ले कई बैठकें होती हैं। विशेषकर बंगाली परिवार नवरात्र शुरू होने के दस दिन पहले ही उत्सवी रंग में डूबा नजर आता है। इनका उल्लास व भक्ति भाव देख ऐसा लगता है, मानो आप डेहरी में नहीं कोलकाता में हैं।
शारदीय दुर्गोत्सव के अध्यक्ष प्रदीप दास उर्फ गोरा दा बताते हैं कि परंपरा के अनुसार आज भी यहां मूर्तियां कोलकाता से आए मूर्तिकार ही बनाते हैं। इस वर्ष मूर्तिकार बुद्धदेव पाल ने प्रतिमाओं का निर्माण किया है। पुरोहित चंचल राय तथा ढाक बजाने वाले कलाकार भी कोलकाता से आए हैं। प्रतिदिन मां को भोग लगाया जाता है। वे कहते हैं कि संस्थागत पूजा बहुत बाद में शुरू हुई। काफी समय तक सबसे पहले आश्रम की प्रतिमा विसर्जित होती थी उसके बाद ही शहर की दूसरी प्रतिमाओं का नम्बर आता था। आज कल रामकृष्ण आश्रम की पूजा का भार मुख्य रूप से पल्लव कुमार मित्रा, बादल चक्रवर्ती, तपन कुमार डे आदि पर है।
रेल रूट, चूना भट्ठी व रोहू ने लुभाया

दर्जनों बंगाली परिवार के बीसवीं सदी की शुरूआत में डेहरी में बसने की वजह भी कम रोचक नहीं है। उन्हें पश्चिम बंगाल से आवागमन की सहूलियत, उद्योग-धंधे की संभावना तथा खाने में प्रिय मछली की प्रचुर उपलब्धता नजर आई। इस कारण एक-एक कर बंगाली परिवार बसते गए। स्थानीय समाज में खुद तो रचे बसे ही अपनी परम्पराओं व संस्कृति को भी स्वीकार्य बना दिया।
याद दिला दें कि वर्ष 1900 में कोलकाता से दिल्ली को ट्रेन रूट से जोड़ने के लिए महानद सोन पर विश्व के सबसे लम्बे रेल पुल का निर्माण कराया गया। कैमूर पहाड़ी में चूना पत्थर प्रचुर मात्रा में था। इस कारण यहां चूना भट्ठियां स्थापित कर व्यवसाय की बेहतर संभावना थी। दरअसल उस दौर में भंवन निर्माण में चूने का ही इस्तेमाल होता था। इसके अलावा बंगाली परिवार मछली के प्रेमी होते हैं। यहां सोन नद की रेहू मछली स्वाद में बेजोड़ है ही।



http://navbharattimes.indiatimes.com/festivals/-/articleshow/3560541.cms

नवरात्र ऐसा समय है, जब संपूर्ण भारत भक्ति में आकंठ तक डूबा रहता है। मां को प्रसन्न करने का इससे पावन समय साल में दोबारा नहीं मिलता। अपने देश का हर प्रदेश इस दौरान उत्साह और उल्लास से भरपूर रहता है। नवरात्र में मां की पूजा यूं तो हर प्रदेश में अपने ही ढंग से होती है, लेकिन बंगाल की खड़ी के तटवर्ती प्रदेश बंगाल की बात ही कुछ निराली है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि रसगुल्ले के लिए मशहूर बंगाल में शक्ति स्वरूपा को प्रसाद के रूप में इस मिठाई का भोग नहीं लगाया जाता।

बंगाल में मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत षष्ठी से होती है। इसे वहां के लोग 'अकाल बोधन' भी कहते हैं। इसी दिन मूर्ति के आगे से पर्दे को हटाया जाता है और मां की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि मां को अब पंडाल स्थित मूर्ति में आने का निमंत्रण दे दिया गया है। इसके बाद दशमी तक विधि-विधान से मां की आराधना की जाती है। पूजा-अर्चना का सारा काम काम पुरोहित करते हैं। इनकी संख्या एक या दो हो सकती है। इनकी सहायता के लिए बड़ी संख्या में भक्तजन मौजूद रहते हैं। मूर्ति की स्थापना सामान्यतया पंडालों में की जाती है। दिल्ली में यह कार्य कई सोसाइटी भी करती हैं।
प्रसाद

प्रसाद के रूप में षष्ठी को मुख्यत: सूखी मिठाई चढ़ाई जाती है। इनमें बताशा, संदेश, फल आदि रहते हैं। फलों में सेब, केला और अन्य मौसमी फलों की ही अधिकता रहती है। पूजा के फूलों में विदेशी फूलों का कोई स्थान नहीं होता। यही वजह है कि जब आप इनके पंडाल पर जाएंगे, तो गुलाब नहीं दिखेगा। अगरबत्ती, धूपबत्ती, घी आदि से अलग तरह का माहौल पैदा हो जाता है। इस दिन अधिकतर लोग उपवास नहीं रखते। वैसे, चंडी पाठ इसी दिन से शुरू हो जाता है। षष्ठी से ही आरती भी की जाने लगती है। इसके बाद प्रसाद वितरण होता है।

भोजन

बंगाल के लोगों के बीच दुर्गा पूजा को लेकर एक ही मान्यता है कि इस दिन मां अपने मायके आती हैं, तो हमें खुशी मनानी चाहिए। न कि कष्ट उठाकर और खुद को दुखी करके मां की पूजा करें। यही वजह है कि इनके बीच नवरात्र में भी मांसाहारी भोजन पर रोक नहीं होती। दिल्ली में जॉब कर रहीं और मूल रूप से बंगाल की रहने वालीं सोमा और मोनाली बताती हैं, 'हमलोग दुर्गा पूजा में मांस-मछली खाने को अधिक तरजीह देते हैं। जब मां अपने घर आई हैं, तो सभी को उत्साह पूर्वक रहना चाहिए। हां, पूजा में हम कोई विघ्न नहीं होने देते।'