Tuesday, October 29, 2013

ग़र कोई आरज़ू हो तो अब मोहलत नहीं रही....

मामून कहीं रह जाऊँ, अब वो हाजत नहीं रही
ये दामन कहीं बिछ जाए, मुझे आदत नहीं रही

जिस्मों में ग़ैरों के भी यहाँ लोग जी लेते हैं 
हमको तो ख़ुद से भी अब, निस्बत नहीं रही

सलवटें आँखों पे, और माथे पे हैं पेचीदगियाँ 
बुझती शक्लों को आईने की ज़रुरत नहीं रही 

यूँ तो कई जन्मों के हैं, तेरे-मेरे मरासिम  
इक लम्हा मुझे मिलने की तुम्हें फुर्सत नहीं रही  

गुजरेंगे अब चार दिन 'अदा' पूरे अज़ाब में
कोई आरज़ू हो तो अब कोई मोहलत नहीं रही

मामून=सुरक्षित
हाजत=इच्छा/तमन्ना/ज़रुरत 
निस्बत=सम्बन्ध  
मरासिम=रिश्ता  
अज़ाब=ख़ुदा का क़हर

Monday, October 28, 2013

आख़िर कब तक ?

आस्था बहुत ही पवित्र भाव है, लेकिन यही आस्था अगर अंधी हो जाए तो वह अपना सही अर्थ खो देती है । अंधी अस्था में लिप्त लोगों से जीत पाना मुश्किल ही नहीं असंभव प्रतीत होता है । यह एक ऐसा रोग है जिसका निदान हक़ीम लुकमान के पास नहीं भी है । दूर क्यों जाना यहीं देख लीजिये सर्वश्री आसाराम के समर्थकों को ही । आसाराम पर रेप, यौन-शोषण जैसे कई संगीन इलज़ाम लग चुके हैं, लेकिन उनपर आस्था रखने वाले अभी तक आँख-कान बंद किये उनपर विश्वास किये जा रहे हैं, और इसी आस में बैठे हैं कि कोई न कोई चमत्कार होगा जो उनके आसाराम भगवान् को बचा लेगा, और वो एकदम साफ़-सुथरे होकर बाहर आ जायेंगे, और सबकुछ पाक-साफ़ हो जाएगा । जो भक्तगण यह दिवास्वप्न, आसाराम जैसे ढोंगी के लिए देख रहे हैं, उनकी आस्था अंधी नहीं है तो और क्या है?

फिलहाल आसाराम जेल की हवा खा रहे हैं, और उनका कुपुत्र नारायण साईं पुलिस के साथ चोर-सिपाही का खेल खेल रहा है । लेकिन धन्य हैं उनदोनों के अंध समर्थक जो अब भी उनको भगवान् ही माने बैठे हैं । अब भी यही कहा जा रहा है कि दोनों को साजिश के तहत फंसाया जा रहा है। ये सच है कि सारे मामले अभी अदालत में विचाराधीन हैं और दोनों अभी तक न्यायालय द्वारा दोषी करार नहीं दिए गए हैं, लेकिन सच तो यह भी है कि बाप-बेटे के खिलाफ रेप, यौन शोषण जैसे आरोपों और कई गवाहों के सामने आने के बाद ही आसाराम को हिरासत में लिया गया और जेल में डाला गया । नारायण सांई का इस तरह सिर पर पैर रखकर भागना और पुलिस से लुक्का-छुप्पी खेलना भी उसके दोषी होने की ही चुगली खा रहा है और इतना तो साबित कर ही रहा है दोनों इतने भी निर्दोष नहीं हैं, जितना वो आज तक लोगों को दिखाते आये हैं और जितना लोगों ने उनको समझ रखा है ।

बीच में आसाराम ने ये ड्रामा किया था कि उनकी याददाश्त चली गयी है, लेकिन लाई डिटेक्टर मशीन के डर से आसाराम की याददाश्त भी वापस आ गई, इतना ही नहीं जिन काली करतूतों को आसाराम ने संत का चोला ओढ़ कर अंजाम दिया था वो भी अब धीरे-धीरे उन्हें याद आने लगे हैं । अभी तक जिस लड़की को पहचानने तक से वो बार-बार इनकार कर रहे थे, उस लड़की की भी याद उन्हें आ गई । उनकी बयानबाज़ी में ऐसे बदलाव भी सोचने को मजबूर करते हैं 'दाल में कुछ काला है ।    

लेकिन वाह रे अंधी आस्था के अंधे लोग और उनका ये अँधा बाज़ार, जहाँ बड़े-बड़े पापियों को भी संत करार दिया जाता है । संत ही क्यों कभी-कभी तो उन्हें भगवान् से भी ऊँचा स्थान दे दिया जाता है । लेकिन लाख टके की बात तो ये है कि कब तक आसाराम, साईं नारायण, निर्मल बाबा जैसे ढोंगी, सीधे-सादे लोगों को बेवकूफ बनाते रहेंगे और कब तक अंध समर्थक उनके हाथों बेवकूफ बनते रहेंगे। … आख़िर कब तक ?

Thursday, October 24, 2013

वो खज़ाना कहाँ है ?

भारत सपनों का देश है, सपनों के राजकुमार, सपनों के महल, सपनों का घर, सब कुछ तो है यहाँ। और अब हमारे पास सपनों की सरकार भी हो गयी । वैसे भी सरकार में जितने भी आका बैठे हैं, वो आये भी तो हैं जनता को सपने दिखा कर :) और ये सपनों का क़ारोबार कोई नई बात तो है नहीं, ज़मानों से ये चला आ रहा है । वैसे भी हाकिमों ने हमें वोट के बदले सपना ही दिया है, जिसकी हमको आदत हो चुकी है, इसलिए हमलोगों को सपनों से कोई परहेज़ नहीं है । अक्सर सुनते ही रहे हैं फलाने को सपने में भगवान् ने, किसी पीर नबी ने या माता मरियम ने फलानी जगह मंदिर, मज़ार या ग्रोटो बनाने का आदेश दिया है, और उस आदेश का पालन फट हो जाता है, देखते ही देखते ज़मीन कब्ज़ा ली जाती है, और कहीं एक महावीर जी का झंडा गड़ जाता है, या संगमरमर की क़ब्र बन जाती है या फिर एक आलिशान ग्रोटो खड़ा हो जाता है , बेशक वो रास्ते के बीचो-बीच क्यों न हो, भगवान, पीर खुश होते हैं या नहीं मालूम नहीं, लेकिन भक्तगण अवश्य खुश हो जाते हैं । थोडा बहुत शोर मचता है, फिर लोग उन सपनों की बातों में लीन हो जाते हैं, यकीन, आस्था, विश्वास इत्यादि-इत्यादि करते हैं, कुछ पाते हैं या नहीं पाते हैं, पर कुछ गँवाते ज़रूर हैं, फिर अपने घर चले जाते हैं और जीवन एक बार फिर बदस्तूर चलता रहता है, एक नए सपने के इंतज़ार में । 

लेकिन अब तक उन सपनों की पहुँच आम आदमी तक ही थी । परन्तु ये सपने अब प्रोमोशन पाकर भारत की सरकार को भी अपने लपेटे में ले चुके हैं । वैसे भी क्या फर्क पड़ता है, अब तक भी सरकार 'अन्दाजिफिकेशनस' पर ही चल रही थी । अन्दाज़िफिकेशन और सपने में बहुत ज्यादा फर्क नहीं होता । हाँ अन्दाजिफिकेशन में कुछ खतरा अवश्य होता है, अंदाजा लगाने के लिए थोडा बहुत दिमाग लगाना पड़ता है, और फिर दिमाग लगाने वाले की जिम्मेदारी भी हो जाती है । सबसे सेफ है सपना देखना, लग जाए तो तीर नहीं तो तुक्का। न सपना देखना कोई क्राईम है न सपना देखने वाला क्रिमिनल। यूँ की आम के आम और गुठलियों के दाम। तो गोया के चुनाँचे अब हमारी सरकार सीधे सपनों पर उतर आई है। 

गौर से सोचिये तो ये सारा काम हमारी सरकार हमारी भलाई के लिए ही कर रही है। महँगाई सुरसा के मुँह की तरह बढती जा रही है, समाज में अपराध और भ्रष्टाचार का सेंसेक्स हर दिन नए-नए  कीर्तिमान बनाता जा रहा है, गरीबों की तादात गरीबी रेखा के नीचे अब समा नहीं पा रही है, बेरोज़गारी, बेकारी अपनी पराकाष्ठा है, बिजली नहीं है, पानी नहीं है, रोटी-कपडा जैसी मौलिक चीज़ों से लोग महरूम हैं, शिक्षा एक व्यावसाय बन कर रह गया है, बच्चों के बस्ते उनके, अपने वज़न से कई गुना ज्यादा हैं, और स्कूलों की फ़ीस उनके माँ-बाप के वजन से ज्यादा, स्कूलों-कोलेजों में एडमिशन दूभर हो गया है, जहाँ १००% कटऑफ़ मार्क हो वहाँ, बच्चों को पढने के मौके ही कहाँ मिलने वाले हैं । वैसे भी इतने पढ़े-लिखे, बड़े-बड़े इकोनोमिस्ट (जिनमें से एक महान इकोनोमिस्ट तो देश के सर्वोच्च आसन पर विराजमान हैं ), दिग्गज पालिसी मेकर्स, आज़ादी के बाद से अब तक क्या उखाड़ पाए हैं भला ? कहते हैं नेता आते हैं जाते हैं लेकिन देश को देश के ब्यूरोक्रेट्स चलाते हैं, क्या ख़ाक चलाते हैं !  इन सारे पढ़े-लिखों ब्यूरोक्रेट्स, इकोनोमिस्ट्स, पालिसी मेकर्स और न जाने क्या-क्या की महान असफलताओं को मद्दे-नज़र रखते हुए देश की सरकार ने फैसला किया है कि देश को अब इकोनोमिस्टस, पालिसी मेकर्स, डॉक्टर्स, इंजीनियर्स इत्यादि की नहीं, ड्रीम कैचर्स की ज़रुरत है । इसलिए प्रिय माता-पिताओं अब अपने नौनिहालों को स्कूल-कालेज में पढ़ाने की अजगरी जिम्मेदारी से मुक्ति पा जाओ। अब न उनको सुबह जल्दी उठने की ज़रुरत है, न ही देर रात तक पढने की, उनको तो बस अब सोना है और 'सोने के लिए सोना है' । भारत में इतने दुर्ग, गढ़, किले, मंदिर हैं कि आने वाले अनगिनत सालों तक हमें अनगिनत सपनों की ज़रुरत होगी, इस हेतू हे देश के वीर सपूतों, देश के कर्णधारों, उठो नहीं, सो जाओ, सुख सपनों में खो जाओ, और वो सोना जहाँ भी छुपा है उसे घसीट कर बाहर ले आओ, इसी में देश का, समाज का, हम सबका कल्याण है । 

इस देश की मिटटी में अब वो दम बाकी नहीं रहा, कि किसान उसका सीना चीर कर अन्न का दाना पैदा कर सके । यहाँ की सरकार की अब वो औक़ात नहीं रही कि अपराध मुक्त समाज दे सके । अब सरकार के वश की बात नहीं कि महँगाई से झुकी एक भी कमर वो सीधी कर सके, अब सरकार इस काबिल नहीं कि बेरोजगारों को रोज़गार दे सके । इस नपुंसक सरकार से यही उम्मीद की जा सकती है, लोग अपने-अपने सपनों में मिले खज़ानों की अर्जी पेश करें और उन सपनीले खज़ानों को पाताल से लाने के लिए वो बेरहमी से सरकारी खज़ाना लुटाती फिरे । और अगर ख़ुदा न खास्ते कहीं कुछ निकल आये तो वो बन्दर-बाँट के हवाले हो जाए । 

इस खज़ाने की अफरा-तफ़री में एक बात जनता भूल चुकी है, जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई थी तब १० जून १९७६ से नवम्बर १९७६ तक राजस्थान के जयगढ़ किले में श्रीमती इंदिरा गांधी ने खजाने की तलाश करवाई थी । किले की तीन बड़ी-बड़ी पानी की टंकियों, जिसमें से सबसे बड़ी टंकी में साठ लाख गैलन पानी रखा जाता था, से सोना-चांदी, हीरे-मोती जवाहरात निकाले गए थे । आर्मी बुलाई गयी थी और आम रास्ता तीन दिनों तक आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया था, आर्मी ट्रक्स ने सारा असबाब इंदिरा गाँधी के आवास में पहुँचाया था, लेकिन बाद में वो खजाना ऐसे गायब हुआ जैसे गधे के सर से सींघ, आज तक उसका कुछ पता नहीं चला । वो खज़ाना कहाँ है ? आपको नहीं लगता इधर-उधर खुदाई करने से बेहतर है, इन लोगों के ही घरों की खुदाई की जाए, जहाँ कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा । 

Sunday, October 20, 2013

पर बैठा रहा सिरहाने पर....

तू प्यार मुझे तन्हाई कर
बस शाने पर अब रख दे सर

तू साथ है तो सब है गौहर
वर्ना है सब कंकर-पत्थर

अब कौन ग़मों का 
करे हिसाब 
बस खुशियों पर ही रक्खो नज़र 

तेरा प्यार सुलगता 
दिल में 
और आँखों में खुशनुमा मंजर

इक सच्ची बात कही थी कल
सो आज चढ़ूँगी सूली पर

बोला ही नहीं तू कितने दिन
पर बैठा रहा सिरहाने पर 



गौहर = मोती

Thursday, October 17, 2013

ज़बीं पटकने की अब, आदत है मुझे....

क्यों तुझसे इतनी, मुहब्बत है मुझे 
इक इसी बात की, झंझट है मुझे 

कहाँ छूटेगी लत, शौक़-ए-इबादत की मेरी  
ज़बीं पटकने की अब, आदत है मुझे

ये कौन बस गया दिल के हरएक आईने में 
लिल्लाह तमाशा न हो, ये दहशत है मुझे 

इस तक़दीर का अंजाम जो हो, देखा जाएगा  
अज़ार-ओ-ज़ीस्त से ही, कब राहत है मुझे   

खामोशियों की भीड़ ही, अब लगती है भली   
गर्द-ए-हंगामों से बड़ी, वहशत है मुझे 

तेरी नज़रों में जुम्बिश भी है, और ईमाँ भी  
फ़क्त प्यार भरे दिल की, ज़रुरत है मुझे 

दिन चार हैं 'अदा', रुख़सती चार काँधों पर    
मिली चार दिन की ही, शब-ए-फुरक़त है मुझे 

शौक़-ए-इबादत=पूजा करने का शौक़
ज़बीं=माथा 
अज़ार-ओ-ज़ीस्त= बीमार शरीर 
गर्द-ए-हंगामों = हंगामों की धूल 
जुम्बिश=गति, ऊर्जा 
ईमाँ = ईमानदारी, सत्यवादिता
शब-ए-फुरक़त=जुदाई की रात

Wednesday, October 16, 2013

नैतिकता का लिटमस टेस्ट ?

एक लड़का एक पत्नी की तलाश में,
अपनी पैनी नज़र हर लड़की पर गड़ाता है 
वह एक पवित्र, शुद्ध, और अनछुई लड़की की खोज में लग जाता है,
हर लड़की की नैतिकता का आकलन, उसके शरीर से बार-बार किया जाता है  
जबकि वह स्वयं अपने शरीर का, सदुपयोग-दुरूपयोग हज़ारों बार कर चुका होता है , 
इतना ही नहीं, वह अपनी फूहड़ कारस्तानी और अनैतिकता की गल्प-कथा, 
छाती ठोंक कर दोस्तों को गर्व से सुनाते नहीं अघाता है 
जहाँ आग न धूवाँ हो वहाँ भी अफ़साने गढ़ जाता है 
और उसके संगी-साथी उसकी किस्मत से रश्क खाते रह जाते हैं 
कितना लक्की है ये सोच कर मन ही मन कुलबुलाते हैं
क्या रिश्ता हो सकता है भला 
शरीर की तथाकथित 'शुद्धता' और नैतिकता के बीच में ?
अगर ऐसा ही है तो, विवाह उपरान्त 
हर स्त्री का नैतिक पतन रसातल में होना चाहिए 
परन्तु ऐसा मान्य नहीं है
जब पति द्वारा पत्नी की पवित्रता नष्ट होती है 
तो क्या वो एक पुरुष के अहंकार की संतुष्टि होती है 
या सचमुच एक 'व्यक्ति' की नैतिकता का लिटमस टेस्ट होता है ?
क्यों 'शरीर की शुद्धता', हमेशा मन की पवित्रता पर भारी पड़ जाती है ?
और क्यों इस 'शुद्धता' की छुरी के नीचे सिर्फ नारी ही आती है ?

Friday, October 11, 2013

उफ़क से ये ज़मीं क्यूँ, रूबरू नज़र आए.....


तेरा जमाल मुझे क्यूँ, हर सू नज़र आए
इन बंद आँखों में भी, बस तू नज़र आए

सजदा करूँ मैं तेरी, कलम को बार-बार
हर हर्फ़ से लिपटी मेरी, आरज़ू नज़र आए

गुज़र रही हूँ देखो, इक ऐसी कैफ़ियत से
ख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए

फासलों में क़ैद हो गएये दो बदन हमारे 
पर उफ़क से ये ज़मीं क्यूँ, रूबरू नज़र आए

वो संदल सा गमके 'अदा' और कुंदन सा दमके 
उसकी बेक़रार सी आँखें, क्यूँ पुर-सुकूँ नज़र आये 

उफ़क= क्षितिज
जमाल=खूबसूरती
कैफ़ियत= मानसिक दशा
गुफ़्तगू=बातचीत
रूबरू=आमने-सामने

Tuesday, October 8, 2013

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः.

आज कल रांची के बाज़ारों में भीड़ ठसा-ठस है, तिल धरने की भी जगह नहीं मिलती है, लेकिन त्रासदी ये हैं कि दुकानदार खाली बैठे, झख मार रहे हैं । जगह-जगह पंडाल बन रहे हैं, कहीं दीयों से तो कहीं मोतियों से । शारदीय नवरात्र में नव दुर्गा की विशालकाय प्रतिमाएँ अपने सह-देवताओं के साथ, बड़े-बड़े पंडालों में स्थापित हो गईं हैं । पंडालों में प्रवेश पाने के लिए तोरण-द्वार भी जगह-जगह बन गए हैं ।बेशक गेटों को गेटप देने के चक्कर में सडकों को बेरहमी से खोद कर रख दिया गया है। जो शायद अगले कई वर्षों तक बने ही नहीं, लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है, सडकें सही तरीके से कब बनतीं हैं भला ! और फिर आम नागरिक को अच्छी सड़कों पर चलने की आदत भी तो नहीं हैं । 

सड़क पर निकलते ही भीड़ का रेला, दूर से दुर्गा पूजा की गहमा-गहमी जैसा ही लगता है, लेकिन आर्थिक मंदी की मार-फटकार अधिकतर चेहरों पर नज़र आती है। मध्यमवर्गीय, और निम्नवर्गीय तबका, थका-हारा, परेशान-हाल ही नज़र आता है। और फिर त्यौहारों की भरमार भी तो इतनी है कि त्यौहार मना-मना कर लोग हलकान दिखते हैं। दुकानों में भी वो रौनक नहीं है, जो कभी हुआ करती थी। तो कुल मिला कर बात ये हुई कि दुकानें बदहाल हैं और दुकानदार से लेकर खरीददार तक, सब बेज़ार नज़र आते हैं। 

पाँच हज़ार महीना वेतन पाने वाला विनोद, आज अपनी व्यथा कथा सुना रहा था।  कह रहा था, दीदी इस तीज में मेरे ४००० रुपये खर्च हो गए, नई साड़ी, मेहँदी, सारे साज-सिंगार और छप्पन-भोग बनना ही था।  जिउतिया में ३००० खर्च हो गए, १५० रुपैये सतपुतिया और ग्यारह तरह की सब्जियाँ, उपवास करने वाली अगर न पकाए-खाए तो कैसी जिउतिया भला ? अब दशहरा भी आ गया, फिर दीवाली, भाई-दूज और फिर छठ।   कैसे मनायेंगे हम इतने त्यौहार। उसकी इन बातों ने मुझे भी कुछ सोचने और लिखने पर मजबूर कर दिया। देख रही हूँ आजकल, कर्म-काण्डों में जमकर बढ़ोतरी हुई है, और उतना ही चारित्रिक पतन भी हुआ है। हमारे झारखण्ड में जो जितना बड़ा गुंडा होता है, वो उतना ही बड़ा यज्ञ करवाता है। दुर्गा पूजा के नाम पर घर-घर जाकर या गाड़ियां रोक-रोक कर चन्दा लेना आम नज़ारा है झारखण्ड में। मना करने पर मिनटों में चन्दा मांगने वालों को गुण्डई पर उतरते भी देखा है। माँ दुर्गा के पंडाल में प्रतिमा की नाक के नीचे बैठ कर जम कर दारु और मुर्गा भक्षण हर रात करते हैं ये तथाकथित भक्तगण, जो घोषित गुंडे हैं.. सच पूछा जाए तो अधिकतर त्यौहार कुछ असामाजिक तत्वों के लिए अनैतिक कमाई करने के सुअवसर प्रदान करते हैं, ख़ास करके झारखण्ड और बिहार में।दुर्गा पूजा के दस दिन पंडितों के लिए भी बहुत मायने रखते हैं। हर यजमान से मनमानी रक़म वसूलना, धर्म का भय दिखा कर ज्यादा से ज्यादा कर्म-काण्ड करवाना, और अंधाधुन्द पैसे वसूलना, ये आज के पंडितों की फितरत हो गई है । सचमुच हैरानी होती है देख कर, ये कैसी पूजा-अर्चना है? और क्या सचमुच यह पूजा, देवी को स्वीकार्य होती होगी  ??

दूसरी ओर बाज़ारवाद की हवा तेज़ हुई है, हर त्यौहार के लिए रोज़-रोज़, नए-नए परिधानों और विधि-विधानों का आविष्कार होता जा रहा है। नए-नए झाड-फ़ानूसों से बाज़ार लद्ते जा रहे हैं, जिसे न चाहते हुए भी, एक आम हिन्दू जो स्वाभाव से ही धर्मभीरु होता है, अपनाता जाता है। वो मीडिया और बाज़ार की मिलीभगत से रचे गए इस चक्रव्यूह में फंसता जाता है, और रोते-पीटते अपनी अंटी ढीली करता जाता है। पहले त्योहारों के आने से कितनी ख़ुशी होती थी, लेकिन अब ये त्यौहार एक ओर लोगों के लिए महज दिखावा दिखाने के अवसर बन कर रह गए हैं, दूसरी ओर बाजारों के लिए बिजिनेस ओपोर्चुनिटी और तीसरी ओर असामाजिक तत्वों के लिए रंगदारी उठाने का सुनहरा अवसर। आम आदमी की ज़िन्दगी से खुशियाँ नेस्तनाबूत होती जा रही है और जो उसके पास बाकी बच रहीं हैं, वो हैं चिंता, परेशानी और कई बार, कुछ लोगों के लिए 'क़र्ज़' का बोझ । 

त्यौहार, आते रहने चाहिए, मनते भी रहने चाहिए, लेकिन इन्हें ढोंग, गुंडई से परे और आम इंसान की ज़ेब की ज़द से बाहर नहीं होना चाहिए।  

Thursday, October 3, 2013

कोई-कोई ही यहाँ, माहिर संगतराश है....



आदमियत खो गई, आदमी हताश है  
हुज़ूम-ए-आदमी में अब, आदमी की तलाश है 

दोज़-ज़िन्दगी हो गई, साग़र की गोद में  
पर ख़ुश्क-खुश्क़ गला रहा, और हर तरफ प्यास है  

वो चीज़ हमारी भी है, और चीज़ हमारी नहीं  
उस ख़ुदा ने रच दिया, इक ग़ज़ब कयास है  

हबीब रह रहे यहाँ, अजनबी लिहाफ़ में 
कुछ जिस्म अजनबी से हैंबे-तक़ल्लुफ़ लिबास है   

सम्हल-सम्हल के चल रहे, इश्क़ के मक़ाम तक

कई जगह फ़रेब का, दिख रहा निवास है  


वो सर-बसर हो गया, मेरी क़ायनात पर 
मेरी ही जान जाने क्यों, थोड़ी सी उदास है 

है फ़रेब इक फ़न 'अदा',और सारे फ़नकार नहीं 
कोई-कोई ही यहाँ, माहिर संगतराश है