Friday, August 31, 2012

'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा' या 'ज़िन्दगी मिल गयी दोबारा'

जयपुर, होटल मोसाइक 

उर्सुला, मैं, माधुरी (उदयपुर)

कुछ समय पहले एक फिल्म देखी थी, 'ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा', बड़ी अच्छी लगी थी फिल्म। हालाँकि इस थेओरी से बहुतों को इत्तेफाक नहीं होगा । कारण हिन्दू सनातन धर्म में पुनर्जनम अवश्यम्भावी है, कहते हैं हमारे कर्म एक खाते में जमा होते जाते हैं और अगले जनम में अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार ही आपको योनी प्राप्त होती है। क्योंकि आत्मा तो अजर-अमर है, बस शरीर ही मरता है। अगर आपने अच्छे कर्म किये हैं, तो अच्छा शरीर, अच्छा जन्म  और अच्छी योनी मिलती है। दिल तो करता है मान लूँ ये बातें लेकिन फिर दिमाग ऊंह-पोंह में लग जाता है। 

आपने केंचुआ तो देखा ही होगा, आत्मा उनमें भी होती ही होगी, एक केंचुवे में एक ही आत्मा होती होगी, लेकिन अगर आप उसे दो हिस्सों में काट दें तो, दोनों केंचुवे जिंदा रहते हैं और जी भी जाते हैं। शरीर के दो टुकड़े हो जाने पर उसकी आत्मा का क्या होता है, यही सोचती हूँ। क्या वो भी दो हो जाती है ???
बस इसी चक्कर में हम भी सोच ही बैठे, क्या पता फिर मौका मिले ना मिले। बस जी, हम तीन सहेलियाँ ऐसे किसी रिस्क के मूड में नहीं थीं, सो निकल पड़ीं अपने मन की करने। कुनकुरी, जयपुर, उदयपुर, अजमेर शरीफ, माउन्ट आबू और कलकत्ता हो आये हैं हम । शनिवार को भुवनेश्वर की रवानगी की राय है।

वैसे अब तक अपना रिकॉर्ड सोलिड रहा है, जंह-जंह पाँव पड़े संतन के तँह-तँह बंटाधार। जयपुर में सुनामी आते-आते रह गई , हमारे पाँव धरने भर से। हमने शहर छोड़ा और मौसम सुहाना हो गया।

सिटी पैलेस 

बात जब 'सुहाने' पर आ ही गयी है तो, अपने कलकत्ते से रांची तक के सफ़र को भला हम कैसे भुला दें। हमका भी ऐसा लागा झुलनिया का धक्का कि हम कलकत्ता पहुँच गए। बस लौटती बारी हमरी जैसन ऊँट पर चढ़ल बौनी को भी, पागल कुत्ते ने काट लिया था, जो हम अपना सब टिकस-उकस कैंसिल करवा कर सोचे, बहुत उड़ लिए पिलेन में और कर लिए सफ़र टिरेन में, तनी बस का भी आनन्द उठाना चाही, और फट दनी ले लिए टिकस बस का । ख़ैर ज़नाब हम बसवा का टिकसवा लेइये लिए। अरे रुकिए टिकसवा लेवे से पहिले ही उन महान बसों के सब रिश्तेदार साम-दाम, दंड, भेद में जुट गए कि उनकी बस से बढियाँ बस न कभी बनी है और न कभी बनेगी, बस न हुई विवाह योग्य कन्या हो गयी, जिसकी तारीफ में इतने कसीदे काढ़े गए कि आखिर हम एक बस पर लट्टू होइए गए। बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाती भला। 

जयपुर पैलेस का प्रवेश द्वार 

अब हमको का मालूम था कि परिवहन निगम वाले ख़ाली बस चलावे ख़ातिर परमिट दे देते हैं। रोड-ऊड है कि नहीं इससे उनका कोई लेना देना नहीं होता है। ई सब ज़िम्मेवारी चाहे तो बस वालन की है या फिर पसिंजर की। बस ई बहुत छोटी सी बात, बताना भूल गए बस वाले हमको कि , मईडम बस तो है, परमिट भी है, और हम ले भी जावेंगे आपको, बाकी एक ही कमी है, रोड नहीं है, परिवहन निगम वाले रोडवा बनाना भूल गए हैं। चाहें तो यात्रा से पहिले रोड बनवा लेवें आप, नहीं तो बस राम जी के हाथ में अपने जीवन की बस दे देवें, ऊ पार लगाईये देवेंगे,  और एक और ऑप्शन हैं ही है हमरे पास, एक अदद सनकी  खेवन्हार भी हैं जिनको हम डराईवर साहेब भी कहते हैं। 

हमरा सुहाना सफ़र शुरू हो गया,  सबसे पाहिले तो हम ई देख कर हैरान हुए कि, ई पसिंजर बस है कि गुड्स बस है, एतना सामान ठूंसा हुआ था कि सचमुच पाँव धरने की जगह नहीं थी वाली कहावत चरितार्थ हो गयी।  खैर जैसे तैसे हम अपना स्थान ग्रहण कर ही लिए। बस के लछन शुरू से सही नहीं दिख रहे थे। बस अपने टाईम से पहले ही चल पड़ी, ई देख कर हम खुद को लात मारने लगे, कितनी बुरी बात है हमेशा शक करती हो, कितने अच्छे लोग हैं ये और तुम इनपर शक कर रही थी, छी छी बहुत बुरी बात है। 

ख़ैर जिस रफ़्तार से बस चली थी, उसी रफ़्तार से थोड़ी दूर आकर रुक गयी। हम समझे शायद बेचारे कुछ भूल-भाल गए होंगे, या फिर कोई इनका अपना प्रोसेस होगा, काहे को ख़म-ख्वाह बाल की खाल निकालना। ऊ तो बाद में पता चला कि पहले आकर उस जगह रुकने से उनकी बची हुई सीट्स के लिए पसिंजर मिल जाते हैं। 

बस अब भर चुकी थी और चल भी पड़ी, लेकिन कुछ दूर आकर फिर रुक गयी। अब यहाँ इस बात का इंतज़ार होने लगा कि बाकी जितनी भी बसें हैं, वो भी अब आ जाएँ फिर सारी  सहेली बसें एक साथ चलेंगीं काहे से कि नक्सलियों का नियम है, ऊ लोग बस अकेले का ही शिकार करते हैं, सब साथ हों तो हिम्मत नहीं करते हैं। सारी बसों को एक साथ आने में वक्त लग ही गया। 

अब हमारी बस भी चल निकली, लेकिन वाह री किस्मत, उसकी रफ़्तार, माशाल्लाह, कहीं भूले से अगर जो नक्सली टकर  जाते तो, अगर वो नींद ले-ले कर भी बसों को पकड़ते तो कसम से एक भी पसिंजर मिस नहीं करते वो। पूरा रास्ता एक-दो फीट गढ़ों से भरा हुआ था। बारिश का पानी उन गढ़ों में भरा हुआ था। सवा तीन सौ किलोमीटर लम्बा रास्ता कहीं से भी रास्ता नहीं था। 

दोनों राज्य सरकारों को डूब मरना चाहिए उन्हीं गढ़ों के पानी में, क्योंकि दोनों राजधानियों को जोड़ने वाली इस सड़क, जिस पर प्रतिदिन लाखों इंसानी जीवन सफ़र करते हैं, उनकी जान के साथ बेरहमी से खिलवाड़ किया जा रहा है, इसका हक़ किसी को भी नहीं है, करोड़ो रुपयों के असबाब रोज़ इसी रास्ते से आते जाते रहते हैं, जो नागालैंड तक जाते हैं, और जिनकी सुरक्षा का कहीं कोई इंतज़ाम नहीं है। 

इन राज्यों के मंत्रियों को भी, उनके परिवार समेत,  इस रास्ते से बाँध कर ले जाना चाहिए, ताकि उनको भी तो पता चले भारतीयों का जीवन कितना सस्ता है, और मज़े की बात ये होगी कि कलकत्ता से राँची तक की दूरी तय करने में उनके दिल का स्ट्रेस टेस्ट हो जाएगा, बहुत दिनों से ऊ लोग हेलिकोप्टर का हवा खा रहे हैं। हम सच कहते हैं एक बार इन महामहिम मंत्रियों को परिवार के साथ इस रास्ते से उन्हीं बसों में भेजा जाए, फिर देखिये कैसे उनका भेजा फ्राय होता है और जब एक बार अपने घर वालों की आँखों में दहशत देख लेंगे सारे के सारे मंत्री दूसरों के जीवन की कदर करने लगेंगे। इस सड़क से जो भी एक बार गुजर जाएगा उसे इंसानी जीवन का सही मूल्य समझ में आ जाएगा। 

बहुत ज़रूरी है, इस सड़क की सही हालत, लोगों को बताना, इसे सरकार की नज़र में लाना, सरकार को मजबूर करना कि अब वो जनता की ज़िन्दगी से खेलना बंद करे, टैक्स-पेयर्स को उनके पैसों की सही कीमत मिले, हर हाल में यह रास्ता दुरुस्त किया जाए, इस पर टोल-बूथ बैठाये जाएँ, ताकि ये अपने रख रखाव के लिए यह स्वयं अर्जन कर सके। यह सड़क व्यावसायिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण सड़क है, इतना ही नहीं यह दो राज्यों के न सिर्फ बहुत ही महत्वपूर्ण स्थानों को जोडती है बल्कि इन जगहों में रहने वाले लोगों के दिलों को भी जोडती है। 

वैसे इस सड़क ने कल हमारा दिमाग बहुत ख़राब किया था, एक बार जब घर पहुँच गए तो यूँ लगा था जैसे 'ज़िन्दगी मिल गयी दोबारा 'शायद इसलिए कि हम तीनों बचपन की सहेलियाँ (उर्सुला, माधुरी और मैं) साथ थीं। 
वोई तो :):)
   



Tuesday, August 14, 2012

आधी रात का सवेरा ...


दिल्ली ने !
अतीत के 
अनगिनत उत्सव देखे हैं,
चक्रवर्ती सम्राटों के राजतिलक देखे हैं,
शत्रुओं की पराजय देखी,
विजय का विलास देखा,
अपूर्व उल्लास देखा,
परन्तु...
ऐसी एक घड़ी आई 
जब...
सूर्योदय और सूर्यास्त का 
अंतर मिटते देखा,
बड़े-बड़े महोत्सवों 
और महान पर्वों को 
फीका पड़ते देखा,
उस रात... 
मतवारे, दिल्ली की सड़कों पर झूम रहे थे,
कितने ही सपने, 
लाखों रंग लिए
बूढी आँखों में घूम रहे थे,
दिल्ली की धमनियों में 
स्वतंत्रता
यूँ अवतरित हुई थी,
जैसे...
धरती पर 
स्वर्ग से गंगोत्री उतर आई हो,
आधी रात को तीन लाख ने
सुर मिलाया था,
'जन-गण-मन', 'वन्दे मातरम्' 
का जयघोष लगाया था,
पहली बार...
'शस्य-श्यामला'
'बहुबल-धारिणी'
'रिपुदल-वारिणी'
शब्दों ने...
स्वयं ही पुकार कर
अपना सही अर्थ
इस दुनिया को बताया था,
ललित लय में 
हिलते हुए वो अनगिनत सिर,
क्या सोच रहे थे 
ये इतिहास में नहीं लिखा गया, 
मगर वो तारीख़ 
दर्ज हो गयी आने वाली 
अनगिनत शताब्दियों के लिए,
जब...
आधी रात के सवेरे ने
१५ अगस्त १९४७ को,
आँख खुलते ही
सलामी दी थी
नवीन, अभूतपूर्व 
तिरंगे को,
जयघोष के नाद से 
जनसमूह की नाड़ियाँ,
युद्धगान से धमक उठीं,
माँ भारती ने अपनी बाहें फैला दी
अपने बच्चों के लिए, 
क्योंकि अब !
कोई बंधन नहीं था...!
जय हिंद...!!



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