Tuesday, December 25, 2012

तपस्विनी....! (कहानी)

(अगले एक महीने तक, ब्लॉग पर आती-जाती रहूंगी। इस वक्त कनाडा से दूर (ब्रसेल्स में) हूँ और भारत के करीब, बस कुछ ही घंटों में भारत पहुँच जाऊँगी )

ऐसा क्यों होता है, किसी भी सफ़र में जब, ख़ामोशी की दीवार टूटती है तो, बीच का अटपटापन बाकी नहीं रहता। बातें, मौसम, देश की राजनीति से होती हुई, व्यक्तिगत बातों तक आ जातीं हैं। बातों के प्रवाह में, गजब की गति आ जाती है। सहयात्री की फ़िक्र तक हो जाती है, उसका साथ यूँ लगता है, जैसे अब कभी छूटने वाला ही नहीं है, लेकिन मंजिल पर पहुँचते ही, रास्ते यूँ जुदा हो जाते हैं, जैसे कभी मिले ही नहीं। फिर कभी उस सहयात्री का, न ख़याल सताता है, न ही चेहरा याद रह जाता है। लेकिन इस बार मेरे लिए ये सफ़र, थोडा अलग सा, थोडा हट कर था, कुछ अनूठा ही था ।

आज भी राँची से भुवनेश्वर का सफ़र तय करना था, ट्रेन से। अपने नियत समय, रात 8.30 बजे तपस्विनी, राँची के प्लैटफार्म पर धड़धड़ाती हुई आई और इंसानी रेले, इस रेल में समाते चले गए। मैं भी इसी रेले का हिस्सा बना, पहुँच ही गया अपने लिए, आवन्टित स्थान पर। बर्थ देखकर ही मन बुझ गया। मुझे कभी भी बीच वाली बर्थ पसंद नहीं आती है, लेकिन आज मेरी किस्मत में, बीच वाली बर्थ ही लिखी थी। खुद को कोसा, दूसरी ट्रेन लेनी चाहिए थी। लेकिन तुरंत ही मन को समझा लिया, इस ट्रेन में सफ़र करने की, सबसे बड़ी सहूलियत ये है, कि ये रात 8.30 बजे राँची से चलती है और सुबह 7.30 भुवनेश्वर पहुँच जाती है। रात भर का सफ़र बहुत आसान है, बस चद्दर तानो और सुत जाओ, फिर अल-सुबह, यानि मुंह अँधेरे, जब उठो तो खुद को भुवनेश्वर में पाओ। प्रीटी ईजी हुमम  :)

बर्थ पर चादर बिछा लिया, तकिया भूरे लिफ़ाफ़े से निकाल कर, नियत जगह पर रख लिया, लैपटॉप सिर की तरफ ही रखा, क्या भरोसा बाबा, कब किसकी नियत ख़राब हो जाए। कम्बल ठीक से ओढ़ लेने के बाद, मैंने अपने अडोस-पड़ोस का मुआयना किया। मेरी सामने वाली बर्थ पर कोई था, जो नींद के हवाले हो  चुका था। नीचे वाली बर्थ पर एक महिला, किताब में नज़रें गडाए लेटी हुई थी। उसे देख कर, घुटती हुई बीच वाली बर्थ पर मुझे, अपने फेफड़ों में ताज़ी हवा का अहसास हुआ। हालांकि वो ऐसी नहीं थी, कि उसे देखते ही कोई मर-मिटे, लेकिन ऐसी भी नहीं थी, कि उसे अनदेखा किया जाए। 

शायद मेरे घूरने का अहसास उसे हुआ था, उसने नज़रें उठा कर मुझे देख ही लिया।  नज़रें मिलते ही मैंने, अभिवादन किया और मुस्कुरा दिया। बदले में उसने भी, एक प्यारी सी मुस्कान उछाल दी मेरी ओर । मेरे लिए ये बड़ा अप्रत्याशित था, लेकिन मन कूद गया था, मन मांगी मुराद जो मिली थी। चलो कम से कम, ये बोरिंग सा सफ़र, अब उतनी बोरिंग नहीं होगी । मैं बीच-बीच में उसे, ऊपर लेट कर देखता रहा, और अपनी नयन क्षुधा बुझाता रहा। फिर न जाने कब, मेरी आँख लग गयी। पटरियों पर ट्रेन के दौड़ते पहिये, लगातार लोरी सुना रहे थे और पूरे डब्बे में नींद पसरती चली गई। 

मेरी नींद अचानक खुल गयी, लगा जैसे बहुत देर से, ट्रेन की खटर-खटर की आवाज़ नहीं आ रही है। यात्रियों से पूछने पर मालूम हुआ, ट्रेन तीन घंटे से किसी जंगल में रुकी हुई है। राजधानी आज लेट है और जब-तक वो नहीं निकल जाती, हमें जाने की इजाज़त नहीं है। 

खिड़की के बाहर घुप्प अँधेरा पसरा हुआ था, और महीन बारिश के छीटें, जुगनुओं से चमक रहे थे। डब्बे के अन्दर रूई से बादल उतर आये थे, जिससे अन्दर सर्दी और बढ़ गयी थी। ये रेलवे अधिकारी, पता नहीं क्यों, वातानुकूलित कक्ष को, इतना ठंडा कर देते हैं कि ठण्ड के मारे गुस्सा आ जाता है। एक परिचारक पास से ही गुजर रहा था, उससे कहा मैंने, यार बहुत ठंडा कर दिया है तुम लोगों ने, थोडा कम करो भाई। साब ! रेगुलेटर ख़राब है, कम नहीं हो सकता है। कहिये तो, एक और कम्बल दे सकता हूँ। कौन सी नयी बात है, हमेशा ही रेगुलेटर काम नहीं करता, चल यार वही दे दे। कम्बल मिल जाने से थोड़ी रहत मिली और मैं फिर नींद के आगोश में चला गया।

सुबह पौ फट रही थी और मेरी नींद भी खुल गई। खिडकियों पर कोहरे के भाप, अभी भी छाये हुए थे लेकिन निचली बर्थ पर तो,  उजाला ही उजाला था। बिना हाथ-मुंह धोये हुए, अलसाई आँखें कितनी खूबसूरत लगतीं हैं। मैं खुद से ही बाज़ी लगा रहा था, मानना पड़ेगा, बड़ी खूबसूरत आँखें हैं, कोई भी इन में झाँक कर बेहोश हो जाए और ओपन हार्ट सर्जरी करवा ले। हम दोनों की नज़रें फिर मिली, मैंने गुड मोर्निंग कहा और नीचे उतरने का उपक्रम करने लगा। मुझे नीचे आता देख, उसने अपने बर्थ से चादर हटा दिया और मेरे लिए जगह बना दी। उधर सूरज की किरणे नज़र आने लगीं थी और मेरे दिमाग में भी आशा की किरणें सर उठाने लगीं थीं।

मैं उसकी बर्थ पर बैठ चुका था, अपना परिचय दिया मैंने और बदले में उसने तपाक से, बड़ी ही गर्मजोशी से हाथ बढाया और पटुता से कहा 'नमिता फ्रॉम रांची'। उसका इस बेबाकी से हाथ बढ़ा देना, मैं सकते में आ गया था, ख़ुद को सम्हालते हुए, हौले से मैंने उसका हाथ थाम लिया। मंत्रमुग्ध सा मैं उसे देखता रहा और उसका स्पर्श सोख लिया मैंने। उसकी नर्म-गर्म हथेली और मेरे हाथों में उतर आया ठंडा पसीना, मेरे बदन में चींटियाँ रेंग गयीं थीं। उसकी बोलती हुई आँखें, उन आँखों का पैनापन, और उन आँखों की प्रयासहीन अभिव्यक्ति, उस घुटे हुए वातावरण में ताज़गी का बयार थी। 

उसका मुझे देख कर मुस्कुराना, मुझे अपने बर्थ पर बैठने के लिए जगह देना, अपना नाम बताना और मुझसे हाथ मिलाना, इस बात की चुगली खा रहे थे, कि वो मुझसे बहुत इम्प्रेस्ड थी। इस ख्याल से ही मन, शरीर तपने लगे थे। मैंने छुपी नज़रों से, अनुमान लगाना शुरू कर दिया था, शायद इसकी उम्र तीस होगी। गोल चेहरा, छोटी सी नाक, आखें तो बस नीला समुन्दर। आज मुझे पहली बार, अपने बाल नहीं रंगने का अफ़सोस हुआ था। फिर दिल को तसल्ली दे दी थी, शायद  कुछ महिलाएं बालों में सफेदी पसंद करती हैं। 

मैंने पूछ ही लिया 'कहाँ जा रही हो ? उसके चमकीले सफ़ेद दाँत, और सुडौल होंठों पर मेरी नज़र टिक गयी, 'मेरे हसबैंड छह  महीने से भुवनेश्वर में हैं, एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में, उनके पास ही जा रही हूँ।' 'हसबैंड' ! ये शब्द मुझे हथौड़े की तरह लगा था। जी हाँ, देखिये न उनको अकेले रहना पड़ रहा है, पूरे छह महीने हो गए हैं। मैं हर महीने जाती हूँ उनके पास। उनका भी दिल कहाँ लगता है, हमारे बिना। लव मैरेज है न हमारी। दरअसल हम कॉलेज में साथ-साथ थे। सोचा तो नहीं था मैंने, कि कभी ऐसा भी होगा, लेकिन हो ही गया। जिस दिन मैं वापिस आती हूँ, बेचारे मेरे वो, उसी दिन से मेरा इंतज़ार करना शुरू कर देते हैं। ......... वो बोलती जा रही थी और मेरा जबड़ा लटकता जा रहा था। कहीं अन्दर, दिल के अन्दर ट्विन टावर में से एक टावर ढहता जा रहा था। मेरी आवाज़ बहुत मुश्किल से निकल रही थी। लेकिन बात तो आगे भी बढानी थी, पुछा था मैंने 'कब लौट रही हो रांची ?' उसने उतनी ही अदा से कहा  ,'बस दो दिन में, मेरे बच्चों के एक्जाम्स हैं, मेरा बड़ा बेटा एम् .ए कर रहा है और बिटिया फिजिक्स आनर्स। इतने बड़े हो गए हैं, लेकिन मैं न रहूँ तो कोई काम नहीं होता उनसे। मेरा बेटा तो हमेशा कहता है, मोम यू आर दी कूलेस्ट मोम इन दी होल वर्ल्ड। ' ऐसा कहते हुए उसकी चमकीली आँखों में गज़ब  का संतोष था। मेरे अन्दर दूसरा ट्विन टावर भी ढह गया था।

खिड़की के बाहर, दूर-दूर तक फैली हुईं पर्वतमालाएँ, निद्रामग्न तपस्विनी सी लग रहीं थीं, और उनके नीचे बसे हुए शहर, कितने बौने !!


Saturday, December 22, 2012

क्यों ???


खजुराहो के मंदिर में, नारी के अनगिनत मनोभाव, अपार प्रतिष्ठा पाते हैं। ये उत्कीर्ण आकृतियाँ, पूर्णता और भव्यता की, प्रतीक मानी जातीं हैं। यहाँ नारी देह की लोच, भंगिमाएँ और मुद्राएं, लालित्यपूर्ण तथा आध्यात्मिक मानी जाती हैं। विनम्रता और आदर पाती हैं, ये प्रस्तर की मूर्तियाँ।  ऐसी विशुद्ध सुन्दरता की दिव्य अनुभूति के लिए, समस्त कामनाओं से मुक्त हो कर, श्रद्धालु वहाँ जाते हैं। स्त्री के कामिनी रूप की, हर कल्पना को सम्मानित करते हैं, क्योंकि वो अपने हृदय में जानते हैं, यही शक्ति, संभावित माता है, जो सृष्टि को जन्म देगी, जो नारी के सर्वथा योग्य है।

लेकिन सड़क पर आते ही, वो सब भूल जाते हैं।
क्यों ???

Friday, December 21, 2012

मुझे 'भोग्या' शब्द से सख्त आपत्ति है....!

अरे ! लड़का जात है, अब ई सब नहीं करेगा तो का करेगा !!
अरे उसका का है ऊ तो लड़का है, तुम लड़की हो तुमको न सोचना है !!
तो का हुआ लड़का है, कौनो मौगी थोड़े ही न है, उसको यही सब सोभा देता है !!

ऐसी बातें तो बहुत आम सुनने को मिलतीं ही रहीं हैं। जिस तरह फ़िल्मी अंदाज़ में ये हादसा हुआ है, एक चलती बस पर, तो कई फिल्में भी याद आ गयी। और ये भी लगा कि, कला के नाम पर वर्षों से इन कला के ठेकेदारों ने क्या-क्या नहीं परोसा है समाज को !! कहते हैं, फिल्में समाज का दर्पण होतीं हैं। और इनमें समाज को बदलने की शक्ति होती है। फिल्में बनाने की भी एक रेसेपी होती है। कहते हैं समाज को जो पसंद आता है, वही फिल्मों में परोसा जाता है। कला के नाम पर, और समाज को बदलने के जज़्बे से ओत-प्रोत फिल्मकार, हर मसाला फिल्म में एक 'रेप' सीन का होना नितांत अनिवार्य बना गए। बिना इस सीन के फिल्म कभी पूरी ही नहीं हो पाती थी/है। और यही सीन उस फिल्म का सबसे अहम् सीन होता था/है। तो मतलब ये हुआ, कि ऐसे सीन लोगों की पसंद होती है, अब 'लोग' में नारियां भी आतीं हैं, और मुझे पूरा विश्वास है, खुद की अस्मिता की ऐसी भद्द-पिटाई हम नारियां तो नहीं ही चाहती होंगी। तो बाकी के 'लोग' कौन बचे जिनकी पसंद को मद्दे नज़र रखते हुए, इसे प्रस्तुत किया जाता है, पुरुष ही न बचे !!!  यही बचे हुए 'लोग' चटखारे ले-ले कर उस सीन की बात करते हैं। कई-कई बार उसी सीन को देखने जाते हैं । फिल्मों में कभी सामूहिक बलात्कार, कभी एकल बलात्कार, मनोरंजन से वंचित पुरुषत्व धारी, बेचारे पुरुषों के लिए श्रेष्ठ मनोरंजन का साधन था और अब भी है। ये सब दिखा कर फिल्म मेकर्स ने, न सिर्फ इस जहालत को मान्यता दी है, बल्कि इसे अंजाम देने के तरह-तरह के गुर भी सिखाये हैं। तो गोया, बलात्कार डिक्लेयर्ड मनोरंजन था और अब भी है। अब फर्क सिर्फ इतना है, 'कौन बनेगा बलात्कारी' की तर्ज़ पर लोग अपना रियालिटी शो बनाते हैं, और इसमें अब बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लेते  हैं।

दिल्ली का सामूहिक बलात्कार कांड इतनी सुर्ख़ियों में सिर्फ इसलिए आया, क्योंकि उस अभागिन के साथ न सिर्फ बलात्कार हुआ, उसके शरीर को भी तहस-नहस कर दिया गया। अगर सिर्फ बलात्कार हुआ होता, या फिर जान भी ले ली जाती, तो ये हादसा भी, दूसरे हादसों की तरह, बड़े आराम से, पुलिस की फ़ाईलों में गुम हो चुका होता। ये तो, पीडिता की चोटें इतनी गंभीर थीं, जितनी गंभीर चोटें देख कर डाक्टर तक सकते में आ गए थे , इसलिए यह मामला जम कर सामने आ गया। वर्ना ये भी किसी गताल-खाता में दफ़न हो चुका  होता और शीला दीक्षित, बयान दे चुकीं होती, 'कहा था न मैंने रात में बाहर मत निकला करो। बात ही नहीं मानतीं हैं आज कल की लडकियां, मुझे देखो मैं तो दिन में भी अकेली नहीं निकलती बाहर। हर वक्त एक जत्था होता है मेरे साथ।'

वैसे भी बलात्कार तो कभी 'रीयल क्राईम' की श्रेणी में आया ही नहीं है। इसे एक घटना से ज्यदा कुछ नहीं समझा जाता है। बलात्कार हुई नारी से, पुलिस, समाज, उसके अपने और बलात्कारी, बस इतनी ही उम्मीद करते हैं, कि वो अपने कपडे झाडे और उठ खड़ी हो और भूल जाए कि कहीं, कभी उसके साथ कुछ भी हुआ है। न वो खुद परेशान हो, न ही दूसरों को परेशान करे। क्योंकि बलात्कार करना कुछ पुरुष अपना  जन्मसिद्ध  अधिकार समझते हैं और बलात्कार होना स्त्री का कर्तव्य। यूँ ही तो स्त्री को 'भोग्या' नहीं कहा गया है। शर्म आती है सोच कर, नारी की बस इतनी ही औकात है ...'भोग्या' अर्थात भोग की वस्तु ...???? मुझे 'भोग्या' शब्द से सख्त आपत्ति है। 

अक्सर देखती हूँ, जब भी किसी बलात्कारी को मौत की सजा या जननांग काटने की सज़ा, की बात की जाती है, कुछ लोग फुर्ती से इन बातों को, अमानवीय, अनुचित और न जाने क्या क्या कह कर जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं । ऐसी फटाफट दलील का मकसद समझ में नहीं आता है। हाँ ! मन में एक संदेह ज़रूर सिर  उठता है, शायद उनको भी उनके अपने करम याद आ जाते होंगे, और एक भय भी घर कर जाता होगा, कहीं कल उनकी भी पोल-पट्टी न खुले और उनका भी जुलुस न निकले। वर्ना ये समझना भला कितना मुश्किल हो सकता है , कि बलात्कार करना क़त्ल करने के बराबर है। क्योंकि इस दुष्कर्म से गुजरी हुई नारी, हर दिन मरती है। एक हत्या, जब एक बार की जाती है, तो मुज़रिम बहुत बड़ी सज़ा का हक़दार हो जाता है, लेकिन जब कोई हत्यारा, हर दिन हत्या करता हो, तो उसकी सज़ा क्या होनी चाहिए, आप ख़ुद ही निर्धारित  कर लीजिये !

Wednesday, December 19, 2012

क्या बुराई थी उसमें ?

(आज जो भी लिख रही हूँ, शायद उसका ओर-छोर आपको समझ ना आये, क्योंकि मन बहुत विचलित है।)

क्या बुराई थी उसमें ? डॉक्टर बन रही थी वो ...बन जाती तो न जाने कितनों को मौत के मुंह से निकाल लाती वो। लेकिन दुराचारियों ने उसे ही मौत के मुंह में धकेल दिया !! कितने अरमान से, कितने परिश्रम से वो यहाँ तक पहुंची होगी। कितनी तपस्या की होगी उसने और उसके परिजनों ने। लेकिन कुछ ही मिनटों में सब कुछ स्वाहा हो गया !! सिर्फ एक ही तो बुराई थी उसमें, वो एक पढ़ी-लिखी, स्वावलंबी बनाने को आतुर 'नारी' थी। अब तक कल्पना नहीं कर पायी हूँ, क्या-क्या सहा होगा उसने ? क्या-क्या हुआ होगा उसके साथ ? कितनी तकलीफ, कितनी तड़प ..कितना दर्द ???? मैं सोचना भी नहीं चाहती हूँ। बस मैं उसके आस-पास रहना चाहती हूँ। 
 
लेकिन सारा दोष उसके मत्थे मढने को सब तैयार बैठे हैं। रात में क्या ज़रुरत थी फिल्म जाने की, क्या ज़रुरत थी उस बस में बठने की ....क्या ज़रुरत थी ये करने की, क्या ज़रुरत थी वो करने की ...लेकिन कोई ये नहीं कहता क्या ज़रुरत थी उन वहशियों को ऐसा घोर और घृणित काम करने की ...अपने से कमजोर पर दोष का ठीकरा फोड़ना हर सबल का ईश्वर प्रदत्त अधिकार है, जैसे मालिक नौकर पर, धोबी गधे पर, पति पत्नी पर (अगर पत्नी कमज़ोर हो तो ) और फिर फ़ोकट में स्वयंभू 'भगवान्', रक्षक और जाने क्या क्या बने लोग ऐसे अधिकारों का उपयोग करने से वंचित भला कैसे रह सकते हैं। दोष कपड़ों का होता है, शाम दोषी होती है, रात तो महा दोषी होती है और उससे भी बड़ी बात लड़की, युवती, औरत, महिला, स्त्री,जो भी नाम आप पुकार लें, वो तो नरक का द्वार कहाती ही है। बाकी पुरुषों के चरित्र, संस्कार, मानसिकता इत्यादि सब अपनी जगह ठीक हैं ...वाह !! उसमें बदलाव की क़तई भी ज़रुरत नहीं है ..वो सब एकदम टीप-टॉप है।

कैसा घटिया चरित्र, और कैसे लीचड़ संस्कार होते हैं जो, कपड़ों की लम्बाई-छोटाई में बिगड़ जाते हैं, ये कैसा चरित्र हैं जो शाम ढले गिरने को आतुर हो जाता है। कैसा चरित्र है जो एक बच्ची, एक असहाय महिला को देख कर उबाल खाने लगता है।
क्या चाहता है पुरुष वर्ग, कि नारी घर में चौबीस घंटे बैठी रहे। क्या पढाई-लिखाई करना, नौकरी करना, अपना कैरियर बनाना, नारी का अधिकार नहीं है ???
ऐसा क्यों नहीं है कि नारी एक नार्मल ज़िन्दगी जी सकती ? जहाँ सब कुछ सामान्य हो।
कभी सोचा है नारी भी एक साफ़-सुथरी, साधारण सी ज़िन्दगी, जो डर-भय से परे हो, जीना चाहती है, लेकिन वो जी नहीं सकती, इसका एक मात्र कारण हैं ...पुरुष
वर्ना इस दुनिया में लाखों जीव-जंतु हैं, उनसे नारी को कोई खतरा नहीं है, खतरा है तो सिर्फ पुरुषों से और त्रासदी ये है कि नारी इन्हें रक्षक मानती है।
रेप की विक्टिम जो भी होती है, उसके अपने तो उसके माँ-बाप भी नहीं रह जाते। हर जानने वाला या अनजाना उसे ही शक की नज़र से देखता है। कितनी अजीब बात है, बिना किसी कसूर के सारी उम्र की सजा एक बेगुनाह झेलती है और दोषी हमेशा साफ़ बच कर निकल जाते हैं, क्योंकि कोई चश्मदीद गवाह नहीं होता। अंधे कानून को ये बात समझ में नहीं आती कि बलात्कारी गवाहों के सामने बलात्कार नहीं करता, जो उसके साथ होते हैं वो गवाह नहीं, इस काम में बराबर के हिस्सेदार होते हैं। ऐसे काम अंधेरों में और अकेले ही किये जाते हैं।
ऐसे हादसे होते ही रहेंगे तब तक, जब तक :
भारतीय कानून में सुधार नहीं होगा
पुरुष समाज इन्हें रोकने और ऐसे अपराधियों को पकडवाने के लिए आगे नहीं आएगा
पुरुष समाज, महिलाओं के साथ-साथ ऐसे मुजरिमों को सजा दिलवाने के लिए मुहीम नहीं चलाएगा।
जब तक ऐसे केसों की कार्यवाही ज़रुरत से ज्यादा समय लगाएगी
जब तक ऐसे मुजरिम साफ़ बच कर निकलते रहेंगे
जब तक इन वहशियों को कड़ी से कड़ी सजा नहीं दी जायेगी
तब तक ये चलता ही रहेगा, लडकियां पिसतीं ही रहेंगी और ऐसी सनसनीखेज़ खबरें सुर्खियाँ बन कर अखबारों, टीवी की टी आर पी बढ़ातीं ही रहेंगी। हम आप उनपर पोस्ट लिखते रहेंगे और ऐसी पीड़िता सिर्फ एक चर्चा बन कर ख़बरों की भीड़ में खोतीं रहेंगी। दुनिया यूँ ही चलती रहेगी और हम यूँ ही फिर बिफ़रते रहेंगे अगले हादसे पर ...बिना मतलब !! 


New Delhi: More than 50 per cent of women feel unsafe while travelling on Indian roads, with the capital perceived to be the most unsafe of all the metros, a study claimed on Friday. According to the study, 51 per cent of the women surveyed in Delhi, Mumbai, Kolkata and Chennai felt unsafe while travelling on roads while 73 per cent said they were scared of travelling alone at night.
The study conducted by Navteq, global provider of navigation enabled maps, and TNS Market Research claims 87 per cent women regarded Delhi as most unsafe city while Mumbai was touted as the safest city by 74 per cent women. While women in Kolkata felt safer than those in Delhi and Mumbai, most women in Chennai felt their city was safer than Delhi but not as safe as Mumbai.
The study also claimed that to find their way, most women prefered to seek direction from friends and family before setting out while en-route in unfamiliar areas, a similar number will seek directions from strangers with an aim to overcome the fear of losing their way.

कहीं देर न हो जाए !

भारत हमेशा से ही पश्चिम की उतरन पहनने का आदी रहा है। पश्चिम में जो कुछ छूट जाता है या छूटने लगता है भारतीय उसे फट अपना लेते हैं। फिर वो फैशन हो, भोजन हो, त्यौहार हों, सिगरेट हो, लिव-इन रिलेशन हों, पारिवारिक मूल्य हों, समलैंगिगता हो या फिर पूरे देश को चलाने की रणनीति हो, या आम जन की मानसिकता। अभी चार साल पहले अमेरिका के जन साधारण ने 'अब बहुत हुआ' सोचकर एक फैसला लिया और देखते ही देखते पूंजीवादी माफिया टोली और बुश administration को बाहर का रास्ता दिखा दिया । एक बदलाव के सपने के साथ, श्री ओबामा ने सरकार की बागडोर अपने हाथों में सम्हाल ली । जिससे कुछ हद तक, पूंजीवादियों पर लगाम कसी गयी। 

लेकिन, जैसा कि हमेशा होता है, अमेरिका की उतरन, भारत पहनने को अब तैयार है। धीरे-धीरे भारत भी पूंजीवाद की तरफ अग्रसर होता जा रहा है, तभी तो आज देश किसी अम्बानी, किसी बिड़ला के इशारों पर नाचता दिख रहा है। आज भारतीय खुश होते हैं देख कर कि, अम्बानी पृथ्वी के अपार धनिकों में शुमार हैं, लेकिन वो धनी  हुए कैसे ? आपका ही पैसा लेकर न ! धनी होना बुरी बात नहीं है, लेकिन तानाशाही की हद तक धनी हो जाना, ख़तरे की घन्टी है । आज अम्बानी के तानाशाह बनने की शुरुआत हो चुकी है। अब अम्बानी आपकी रसोई तक पहुँच चुका है। आप कितना खाना बनायेंगे, और कैसे खायेंगे, इसका फैसला अब अम्बानी करने लगा है। क्योंकि आपको साल में कितने सिलिंडर मिलेंगे, इसका फैसला आपने अम्बानी के हाथ में दे दिया है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप कैसे जीते हैं या आप कैसे मर जाते हैं, क्योंकि उसके चूल्हे के लिए गैस की कभी कोई कमी नहीं होगी। अभी तो ये सिर्फ शुरुआत है, आगे-आगे देखिये होता है क्या। यही मौका है, भारतीयों के सम्हल जाने का, आवाज़ उठा कर लगाम कसने का। क्या इतने विशाल देश को चंद लोगों के हाथों में जाने देना सही होगा ? इससे पहले कि अम्बानी या उन जैसे लोग आपकी रसोई, आपका घर, आपकी जमा-पूँजी, आपकी दवाईयाँ यहाँ तक कि आपके जीवन का पुर्जा-पुर्जा वो अपने इख्तियार में कर लें , आप सोते से जाग जाइये और अपने आप को रहन होने से बचा लीजिये।

आज हर आम भारतीय की नज़र, बस चंद ख़ास व्यक्तियों पर ही टिकी रहती है। जैसे इनके अलावा और कोई रहता ही नहीं है भारत में। 'व्यक्ति पूजा' भारतीयों का प्रिय शगल हमेशा से रहा है। कुछ ही इने-गिनों की पकड़ मिडिया पर, और जन-मानस पर इतनी ज़बरदस्त देखने को मिलती है, कि लगता है, इन गिने-चुने लोगों के अलावा, भारतीय समाज में किसी का कोई योगदान ही नहीं है। अफ़सोस होता है यह सब देख कर। क्यों हम भूल जाते हैं कि हमारा देश सिर्फ इनके बल पर नहीं चल रहा है। भारत चल रहा है, लाखों शिक्षकों, लाखों डॉक्टर्स, जाने कितने इंजीनियर्स, कितने ही वैज्ञानिक, अनगिनत मजदूरों और न जाने कौन-कौन हैं, जो हर पल भारतीय समाज के तंतुओं को मजबूत बनाने में अपना योगदान दे रहे हैं। दुःख की बात ये हैं कि, हम कभी उनके बारे में न तो सोचते हैं, न कहीं उनकी चर्चा होती है, न ही उनको कभी सामने लाने की कोशिश की जाती है, यहाँ तक कि इतने बड़े हुजूम के होने का भी हमें भान नहीं है। लेकिन सच्चाई यही है कि भारत की चमक इन Unsung Heros की वजह से ही है, न कि इन चंद घाघ बिजिनेस मेन की वजह से । 

इन पूँजीपतियों के फंदे से जितनी जल्दी हो सके खुद को बचाना होगा ...अमेरिका की ग़लतियों से सीख लेने की जगह उन्हें अपनाना भारतीयों की भारी मूर्खता होगी। देख लीजिये, कहीं देर न हो जाए !


Thursday, December 13, 2012

मेरी एक पुरानी ग़ज़ल और गुनगुनाने की कोशिश ....(Repeat)



मेरी एक ग़ज़ल है .....जिसे बस गुनगुनाने की कोशिश की है.... सुनियेगा ज़रा...
(न जी भर के देखा, न कुछ बात की, बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की, ....की तर्ज़ पर )


हम बोलें क्या तुमसे के क्या बात थी
अजी रहने दो बातें बिन बात की

सहर ने शफ़क़ से ठिठोली करी है
शिकायत अंधेरों को इस बात की

खयालों के तूफाँ तो थमने लगे हैं
लहर कोई डूबी थी जज़्बात की

उजालों से ऊँचें हम उड़ने लगे थे
कहाँ थी ख़बर अपनी औक़ात की

मन सोया जहाँ था वहीँ उठ गया है
शिकन न थी बिस्तर पे कल रात की

मुसलसल वो आया गली में हमारी
नदी बह रही थी इक हालात की

गुबारों से कितने परेशाँ हुए तुम
क्यूँ भूले वो ताज़ी हवा साथ की


मुसलसल= लगातार
गुबारों=धूल भरी आँधी
सहर=सुबह
शफ़क़=सवेरे की लालिमा

Thursday, December 6, 2012

अपने गिरेंबाँ में भी, झाँको तो एक बार ....

अपने गिरेंबाँ में भी, झाँको तो एक बार ....
आज 6 दिसंबर है और वो मार्च महीने की 2 तारीख़ थी ...

Wednesday, November 21, 2012

क्या हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं ???????

कल, एक बहुत ही खूबसूरत फिल्म आ रही थी टी वी पर, 'पिंजर' । यूँ तो कई बार देखा है इस फिल्म को, लेकिन हर बार यह फिल्म, मुझे बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है । नायिका पूरो की कहानी ...एक स्त्री की, स्त्रियोचित संवेदनाओं की उथल-पुथल का इन्द्रधनुषी शाहकार । रिश्तों, भावनाओं का निहायत खूबसूरती से संजोया हुआ, एक मार्मिक दस्तावेज़ है, ये फिल्म। पाप-पुण्य, इंसानियत- हैवानियत, आबरू-बेआबरू, असंतोष, अविश्वास, छल-कपट, धर्मान्धता, बदला और बँटवारे की राजनीति के बीहड़ में रिश्तों का मुरझाना, पनपना और हर विसंगति को अपनाते, दरकिनार करते हुए, एक स्त्री के मन में, अपने ही घाती के लिए प्रेम का फूटना, अपने आप में, एक करिश्मा तो है, लेकिन एक सवाल खड़ा कर, सोचने को मजबूर कर ही देता है,  आखिर क्यूँ और कैसे, प्रेम संभव हो जाता है, उसी से जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा होता है ?

एलिजाबेथ स्मार्ट का अपहरण 2002 में हुआ था, 9 महीनों बाद वो मिली। पुलिस ने उसे ढूंढ निकाला और साथ ही उसका अपहरणकर्ता भी गिरफ्तार हुआ। हैरानी इस बात से हुई, कि एलिज़ाबेथ को, अपनों के पास और अपने घर सुरक्षित पहुँच जाने के बाद भी, अपने अपहरणकर्ता की सलामती की फ़िक्र थी। ये क्या है ? इसे आप प्रेम कहेंगे, या आदत या फिर असुरक्षा में सुरक्षा का अहसास ? या फिर इसे आप स्त्रियोचित गुण ही कहेंगे ?

ऐसी ही एक घटना याद आ रही है, मेरे बचपन में घटी थी । 'आशामणि' नाम था उसका, लेकिन हमलोग, 'आसामनी' ही कहते थे। मोहल्ले की ही लड़की थी, बराबर ही उम्र रही होगी हमारी। तब 14-15 वर्ष रही होगी उसकी उम्र, जिस दिन, आसामनी गायब हो गयी थी । मोहल्ले में ये चर्चा, बहुत दिनों चलती रही, आख़िर आसामनी गयी कहाँ ? 

मोहल्ले वालों ने, बहुत ढूँढा उसे, उसे नहीं मिलना था, वो नहीं मिली। वैसे भी, गरीब की बेटी गायब हो जाए तो,  'बोझ उतरने' जैसा ही अहसास होता है, परिवार को। परिवार वालों के चेहरों से तो, ये भी लगता था कभी-कभी, कहीं आसामनी मिल ही न जाए, फिर जो ग्रह कटा है वो फिर झेलना पड़ेगा। कुछ दिनों तक ये चर्चा मोहल्ले में, सिर्फ 'अटकल' लगाने के लिए होती रही, बाद में जब सारे 'अटकली विकल्प' ख़त्म  हो गए, तो चर्चा भी समाप्त हो गयी।  धीरे-धीरे, इस घटना की जगह दूसरी घटनाओं ने ले लिए, और आसामनी का गायब होना, अनगिनत घटनाओं की गर्द में दब कर 'कोल्ड केस' बन गयी। लेकिन, मेरे मन में ये घटना घर कर गयी थी, कारण शायद ये भी हो, हमउम्र होने की वजह से, रास्ते में आते-जाते, एक दूसरे से नज़रों का रिश्ता तो था ही, उसका इस तरह गायब हो जाना, मेरी नज़रों को खाली कर गया था, किसी एक फ्रेम में ...

आज से तीन साल पहले, मैं भारत गयी थी। माँ से मालूम हुआ कि, आसामनी आई हुई है। ये सुनते ही जाने क्यूँ, नज़रों का खाली फ्रेम भरता हुआ लगा था,  उसका नाम, बिलकुल भी अनजाना नहीं लगा। उसका एकदम से वापिस आना, मुझे कहीं अन्दर एक संतुष्टि का ठहराव दे गया, लेकिन उत्सुकता का उफ़ान भी थमा गया । मैं इतनी बेचैन हो गयी उससे मिलने को, कि नहीं रोक पायी खुद को, और चल ही पड़ी मैं उससे मिलने। 

उसके घर के पास जब पहुंची, तो आस-पास कौतुकता भरी नज़रें, मुझ पर टिकी ही रहीं, मानों पूछ रहीं हों, आज कैसे इधर का रास्ता भूल गयी तुम ? ऐसे तो कभी नहीं आती ...पूछा तो किसी ने नहीं, लेकिन मैंने ही कह दिया, आसामनी से मिलने आये हैं हम। उसके घर के लोग, भाग-भाग का कुर्सी ला रहे थे, और मेरी आँखें, आसामनी को ढूंढ रहीं थीं। कहाँ थी वो इतने दिन ? कैसी दिखती होगी ? क्या हुआ उसके साथ ? दिल में सवालों का भूचाल आया हुआ था। और कलेजा ऐसे धक्-धक् कर रहा था, जैसे सदियों बाद, मैं ही वापिस आई हूँ। मेरा इंतज़ार, बस कुछ पलों का ही था और वो सामने आ ही गयी। देखा तो, कहीं से भी ये, वो आसामनी थी ही नहीं, न पहनावे से, न बोल-चाल से। ठेठ हरियाणवी बोली और ठेठ हरियाणवी परिधान। लेकिन आँखों में, वही पुरानी पहचान थी। मैंने उसका हाथ थाम लिया, हाथ थाम कर यूँ लगा था, जैसे मैंने खुद को पा लिया हो। एक बहुत लम्बे, अनकहे, अनबूझे, इंतज़ार का अंत हुआ था, उस दिन। 

मेरे पूछने पर जो उसने बताया था, वो कुछ इस तरह था ... वो उस शाम, दूकान गयी थी कुछ लेने, उसकी माँ ने भेजा था। वापसी में अंधेरा, थोडा और घना हो गया था। रास्ते में एक औरत मिली थी, उससे बातें करती रही वो ... कुछ खाने को दिया था उसने। ग़रीब की आशाएँ, हमेशा पेट पर ही ख़त्म होतीं हैं। बस वही खाना, उसके लिए मुहाल हो गया, उसके बाद जब, उसकी आँखें खुली, तो ख़ुद को ट्रेन में पाया उसने। जीवन में पहली बार ट्रेन में भी बैठी थी वो। वो औरत उसके साथ ही थी, कुछ कह नहीं पायी वो, न उस औरत से, न ही सहयात्रियों से। बचपन से, डर कर जो रहने को बताया गया था उसे। उसे बोलना तो  सिखाया ही नहीं गया था। उसे तो बस यही बताया गया था, लडकियां ज्यादा नहीं बोलतीं, बस वो नहीं बोली।

पता नहीं किन-किन रास्तों से, कहाँ-कहाँ होती हुई, उसकी ज़िन्दगी, कहाँ पहुँच रही थी, उसे कुछ भी मालूम नहीं था। कठपुतली की डोर की तरह, उसके जीवन की डोरी भी, एक हाथ से दुसरे हाथ में, आ-जा रही थी। 

अंततोगत्वा , उसे हरियाणा में, एक किसान परिवार को बेच दिया गया, उसकी क़ीमत क्या लगी, ये उसे नहीं मालूम। परिवार में चार भाई थे, और एक पिता भी। माँ नाम की 'चीज़' भी थीं वहाँ, लेकिन बस 'चीज़' ही थी वो। खरीद कर या जीत कर लाई गयी 'चीज़' पर तो, सबका अधिकार होता ही है। आसामनी पर भी, अपने-अपने अधिकार का प्रयोग सबने किया। और बस उसकी ज़िन्दगी की सुबह-शाम उस घर में बदल गयी। दिन भर खेतों में हाड-तोड़ मेहनत, घर का भी काम और फिर रात को .....। खेत से घर और घर से खेत तक की दूरी तय करती हुई, उसकी ज़िन्दगी कटने लगी।

सोचती हूँ, कैसे एक बच्ची का अल्हड़पन, रातों-रात 'प्रोमोशन' पाकर उसे औरत बना देता है ? बचपन उम्र के दायरे में नहीं होता, वो तो शरीर के दायरे में होता है, बस एक बार शरीर, उस दायरे से बाहर आ जाए, फिर चाहे उम्र कुछ भी हो, बचपन खो जाता है।   

ख़ैर, एक ज़िन्दगी की शुरुआत, खरीद-फ़रोख्त से शुरू हुई, फिर वासना की धरातल पर, वर्षों घिसटने के बाद , रिश्तों के बीज धीरे-धीरे पनपने लगे, और देखते ही देखते आसामनी, उस परिवार के वंशज जनने लगी। उसके चार बच्चे हुए। उस परिवार के सबसे छोटे बेटे की, अब वो पत्नी कहाती है। और वही उसे, उसके परिवार से मिलाने, रांची ले आया था। मिली मैं, आसामनी के 'पति' से भी, अपनी गर्दन वो उठा नहीं पाया, मेरे सामने, न ही नज़रें मिला पाया वो। लेकिन उसकी झुकी हुई नज़रें भी, मुझे ठेंगा दिखा रहीं थीं। ये बिलकुल वैसा ही था, जैसे किसी ने, किसी निर्दोष का बलात्कार किया हो, और फिर उसी लड़की से शादी करके, महान बन गया हो। उस आदमी से मिलकर मन खिन्न हो गया था। लेकिन मन में, यह भी आया, विश्वास की कोंपलें कहीं तो फूटीं थीं, जो ये ले आया आसामनी को उसके माँ-बाप से मिलाने। मैं घर तो लौट आई, लेकिन मन शान्ति और अशांति की जंग में मशगूल था । ये मन भी न, बहुत अजीब है।

दो-चार दिन बाद ही, आसामनी बदहवास सी मेरे घर आई, पता चला उसके पति की तबियत ख़राब है, मेरी जानकारी में कोई, अच्छा सा डॉक्टर है तो बता दूँ। उसके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे, मैं फ़ोन में उलझी, उसे हर तरह से ढाढस बंधाने की कोशिश कर रही थी। उससे बार-बार मैं कह रही थी, सब ठीक हो जाएगा। और वो मुझसे कहती जाती थी, 'अगर मेरे आदमी को कुछ हो गया तो, मैं जी नहीं पाऊँगी ??? और मैं आवाक़, उसका मुंह देख रही थी और  सोच रही थी ......क्या सोच रही थी ??? पता नहीं मैं क्या सोच रही ...सच कहूँ तो, कुछ सोच ही नहीं पा रही थी ...

क्या है ये ? प्यार, प्रेम, मुट्ठी भर आसमान या धूप का एक टुकड़ाअसुरक्षा में सुरक्षा का अहसास, या फिर पिंजरे में आज़ादी की साँस, .... या फिर, शायद हम औरतें ऐसी ही होतीं हैं  ???????

Tuesday, November 20, 2012

ऐसा भी होता है, इंडिया में .....:):):)

ऐसा भी होता है इंडिया में  .....
 :

और ये भी एक तस्वीर है, इसी दुनिया की ....

Monday, November 19, 2012

इक कली, जिस गली में बलि चढ़ गयी, वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे....

ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते, हम बनाते रहे, फिर मिटाते रहे 
थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी, हम उससे मगर दूर जाते रहे 

रात रोई थी मिल के गले चाँद से, और अँधेरे, अँधेरा बढ़ाते रहे 
आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब, दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे 

बिखरे-बिखरे थे मेरे, वो सब फासले, हम करीने से उनको सजाते रहे 
अब समेटेंगे हम अपनी नज़दीकियाँ, दूरियों को गले से लगाते रहे 

वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे, और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं 
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे, बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे

कोई भूखा मरा मंदिर के द्वार पर, लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कली, जिस गली में बलि चढ़ गयी, वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे


और अब एक गीत ...इसे गाया है किशोर कुमार ने...लेकिन फिलहाल मैं गा रही हूँ...हाँ नहीं तो...!!
अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो (थोड़ा सा अलग करने की कोशिश की है...लगता है मिस फायर हो गया है :):) )

Saturday, November 17, 2012

हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू .....आवाज़ 'अदा' की ....

आज सुबह जब आँख खुली, तो ये गाना बहुत याद आया ...
सोचा लगे हाथों गा ही दूँ ...आशा है आपको उतना बुरा नहीं लगेगा।
गुलज़ार के बेमिसाल बोल हैं ....हमने देखी  है उन आँखों की महकती खुशबू .....फिल्म का नाम 'ख़ामोशी'..
यहाँ आवाज़ 'अदा' की ....

Thursday, November 15, 2012

यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ..?


मंजू दी, बस देख रहीं थीं, अपने सामने, अस्पताल के बेड पर पड़े, रमेश जीजा जी के निर्जीव शरीर को। छह फीट का इंसान, चार फीट का कैसे हो जाता है ?  वो चेहरा जो कभी, मन मंदिर का देवता था ..आज ....!!! मंजू दी की आँखों में, अजीब सा धुँवा समाने लगा था। पुरानी संदूक से निकले, फटे चीथड़ों सी यादें , आँखों के सामने, लहराने लगीं, पर एक मुट्ठी लम्हा भी वो, समेट नहीं पायीं, जो उनका अपना होता। उनकी आँखों में सूखे सपनों की चुभन, हमेशा की तरह, आज भी उन्हें महसूस हो रही थी। 

मंजू दी को आज, नियमतः रोना चाहिए था, क्योंकि आज वो विधवा हो गयीं हैं,  और यह विधान भी है, लेकिन वो चाह कर भी रो नहीं पा रही थी। अन्दर ही अन्दर वो, आधी कीचड़ में डूब गईं थीं, अगर जो, कहीं वो रो पड़ीं, तो शायद भरभरा कर ढह जायेंगी। कमरे में डॉक्टर, नर्स,  मशीनों को और जाने क्या-क्या, अगड़म-बगड़म समेटने में लगे हुए थे। सबके चेहरों पर, वही रटी-रटाई ख़ामोशी की चादर, चढ़ी हुई थी। कुछ इस्पाती नज़रें, मंजू दी पर, इस आस से टिकी हुई थीं, कि अब उन्हें बुक्का फाड़ के रोना चाहिए। लेकिन उनकी आशा के विपरीत, मंजू दी ने अपना पर्स उठाया, डॉक्टर से कहा कि, बोडी मेरा छोटा भाई ले जाएगा। डॉक्टर ने अपनी तरफ से, उन्हें याद भी दिलाया, मिसेज पाण्डेय आई एम रीअली सॉरी फ़ॉर योर लोस...वी डिड आवर बे ... बीच में ही मंजू दी ने बात काट दी, इट्स ओ . के ....रीअली ...और वो इत्मीनान से बाहर निकल आयीं।

मंजू दी की 30 साल की गृहस्थी में से, 25 साल की गृहस्थी की, कुल जमा पूँजी थी, अविश्वास और धोखा। रमेश पाण्डे, अपने आप में, एक बड़ा ही मशहूर नाम था, उस ज़माने में, ख़ास करके रांची जैसी छोटी जगह के लिए। हैंडसम इतना कि, ग्रीक गॉड पानी भरते नज़र आते थे, उसपर से उनका डॉक्टर होना, मतलब ये कि, एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। अगर जे डॉक्टर नहीं बनते, तो हीरो बन ही जाते, धर्मेन्द्र भी उनसे उन्नीस ही पड़ते। 

मंजू दी मेरी मौसेरी बहन थीं। मेरी मौसी ने, एक चाईनीज डेंटिस्ट से शादी की थी। रांची में पहले सारे डेंटिस्ट चाईनीज ही हुआ करते थे। खैर, मेरे चाईनीज मौसा का क्लिनिक, रांची के बहुत ही मेन इलाके में था/है, और उनका नाम भी बहुत था, इसलिए मेरी मौसी का घर, रांची के गिने-चुने अमीरों में माना जाता था। कालान्तर में मौसी के, दो बच्चे हुए , मंजू दी और प्रदीप भैया। पैसा, पावर, पोजीशन ने, हमेशा ही, हमारे परिवार के बीच एक फासला रखा। ऐसा नहीं था, कि हमारे परिवार के बीच, प्रेम नहीं था, था बिलकुल था, लेकिन कहीं, कोई एक अनकहा सा फासला तो था ही। 

मंजू दी, उन दिनों मास्टर्स कर रहीं थीं। पता नहीं क्यूँ, अचानक उनके बाल बहुत गिरने लगे। सारे घरेलू नुस्खे आजमा लिए गए, लेकिन कुछ कारगर नहीं हुआ। हार कर उन्होंने डॉक्टर के पास जाना ही, उचित समझा। खैर, किसी ने नाम बता दिया, डॉक्टर रमेश पाण्डे, बहुत अच्छे हैं ऐसी बातों के लिए। बस मंजू दी पहुँच गई उनको दिखाने। डॉक्टर रमेश की दवा का असर हुआ या नहीं, ये तो मालूम नहीं, लेकिन, डॉक्टर रमेश का असर ज़रूर हुआ था। फिर, जैसा कि होता है, ख्वाहिशों, सपनों ने, हकीक़त के मुखौटे पहन लिए। शिद्दत ने, मुद्दत की मियाद कम कर दी और एक दिन, मंजू दी, मिसेज पाण्डे बन गयीं। मैं छोटी थी, लेकिन गयी थी उनकी शादी में, बाल मंजू दी के, कम ही दिखे थे मुझे, लेकिन चेहरे पर खुशियों का अम्बार लगा हुआ था। मौसी भी फूली नहीं समा रही थी, सबकुछ पिक्चर परफेक्ट लग रहा था।

थोड़े ही दिनों में, डॉ. रमेश, जो अब मेरे जीजा जी भी थे, ने अपना क्लिनिक, मौसी के क्लिनिक में शिफ्ट कर लिया, जगह के बदलते और एक नामी क्लिनिक में जगह मिलते ही, रमेश जीजाजी की प्रैक्टिस चमचमा गई। मंजू दी, की ज़िन्दगी बड़े सुकून से बीतने लगी, और इसी बीच उनकी, 2 बेटियाँ भी हो गयीं। 

अब, प्रदीप भैया (मंजू दी के छोटे भाई) की भी शादी हो गयी। घर में जब, नयी बहु आई, तो हिस्से की बात भी हुई, वो क्लिनिक जिस में, रमेश जीजाजी ने, अपनी प्रैक्टिस चला रखी थी, अब प्रदीप भैया को भी चाहिए थी, क्योंकि प्रदीप भैया भी डेंटिस्ट थे। यहीं से खटराग शुरू हो गया।  रमेश जीजाजी, जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे और प्रदीप भैया उनको देने को तैयार नहीं थे । मंजू दी, इनदोनो के बीच पिस रही थी। आखिर दीदी ने, जीजाजी से कह ही दिया, मेरे छोटे भाई का हक मैं नहीं मार सकती, आपको ये जगह छोडनी होगी। फ़ोकट की जगह छोड़ना, नयी जगह ढूंढना, फिर से क्लाएंट बनाना, उतना आसान नहीं था। फिर जीवन का स्तर भी तो बहुत ऊंचा था, वहाँ से नीचे उतरना भी कब किसे मंज़ूर होता है ! लेकिन, उसे मेंटेन करना भी मुश्किल था। 

खैर, रमेश जीजाजी ने, दूसरी जगह अपना क्लिनिक खोला, लेकिन वो बात नहीं बनी, वजह अब क्या थी, ये नहीं मालूम। किस्मत ने साथ नहीं दिया, या वो मेहनत से क़तरा  गए, पता नहीं, लेकिन, कुल मिला कर बात ये हुई, कि उनकी प्रैक्टिस लगभग ठप्प हो गयी। किसी के पास कुछ न हो, तो उसे उतना बुरा नहीं लगता है, संतोष कर लेता है इंसान, कि चलो जी, हमारे पास तो है ही नहीं। लेकिन अगर किसी को, सब कुछ मिल जाए और फिर छिन जाए, तो उसे झेल पाना उतना आसान नहीं होता। कुछ ऐसी ही हालत, रमेश जीजाजी की भी हो गयी थी, और इसी बात के लिए, एक तरह से उन्होंने दीदी को, सज़ा देना शुरू कर दिया। वो अपने क्लिनिक जाते ही नहीं, घर का ख़र्चा चलाना मुहाल हो गया, दीदी को हार कर नौकरी करनी पड़ी। ख़ैर, जैसे-तैसे मंजू दी ने सब सम्हाल लिया। देखते-देखते पांच साल बीत गए। रमेश जीजाजी ने, घर के लिए कुछ भी सोचना बंद कर दिया था, उनको हमेशा यही लगता कि, उनको, उनका हक नहीं मिला। 

ख़रामा-खरामा ज़िन्दगी, मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही थी, और मंजू दी अपने स्याह-सफ़ेद बेजान रिश्ते में रंग भरने की भरपूर कोशिश करती रही।  ये कोशिश शायद रंग भी ले आती, अगर उस दिन अप्रत्याशित रिश्तों का बम, अपने रिश्तों पर न फूटता। 

वो एक आम सी सुबह थी, मंजू दी हर दिन की तरह, सारे घर के काम निपटाने में लगी हुई थी, उसे ऑफिस भी तो भागना था। सुबह के आठ बजे थे, कॉल बेल  बजने की आवाज़ से ही, मंजू दी झुंझला गयी, कौन है ... का जवाब, जब नहीं ही मिला तो, उन्होंने दरवाज़ा खोल ही दिया। सामने एक औरत और उसके साथ 3 जवान लडकियां खड़ीं थीं, उन्हें लगा शायद कुछ बेचने, या चंदा माँगने आयीं हैं, झट से मना करके वो वापिस मुड़ी। जी हमें डॉ . रमेश पाण्डे जी से  मिलना है, एक लड़की ने कहा। अच्छा ! क्या काम है उनसे ? आपलोग क्लिनिक में क्यूँ नहीं जातीं, वो घर पर मरीजों को नहीं देखते हैं। जी हम मरीज नहीं हैं, ये मेरी माँ  हैं, थोड़ी अधेड़ उम्र की महिला की तरफ उस लड़की ने इशारा किया और हम तीनों बहनें हैं। डॉ . रमेश हमारे पिता हैं। क्याआआ ??? मंजू दी इतने जोर से चीखी, कि वो चारों भी एक बार को सहम गयीं। अब मंजू दी, आपे से बाहर हो गयीं, क्या समझती हो तुमलोग खुद को, किसी के घर पर आकर, कुछ भी अनाप-शनाप बक जाओगी। मंजू दी की आवाज़, बहुत तेज़ होती जा रही थी। शोर सुन कर रमेश जीजाजी भी आ गए, चारों स्त्रियों को देख कर, वो सकते में आ गए, उनकी चोर नज़रों ने,  इस बात की पुष्टि कर दी, कि वो चारों सच कह रहीं थीं। जीजाजी ने उनका सामान, जो उस दिन घर के अन्दर पहुँचाया, फिर कभी वो सामान बाहर नहीं आया । 

पथराना किसे कहते हैं, वो हमने तब ही देखा था। उस दिन दरवाज़े से कुछ, अनजाने, अनचाहे, अनबूझे रिश्ते अन्दर आये और, भरोसा, विश्वास, यकीन, जैसे भाव बाहर चले गए और साथ में चली गयी मंजू दी के होंठों की मुस्कान। रिश्तों की गर्माहट अब पूरी तरह ठंडी हो गयी थी। उसकी जगह शुरू हो गया, नित नए तजुर्बों का घाल-मेल, और नए ढर्रे से, पुराने रिश्तों को घसीटती हुई ज़िन्दगी। इत्ता बड़ा धोखा दिया था, रमेश जीजाजी ने। अपनी पहली शादी की बात, उन्होंने कभी नहीं बताई थी मंजू दी को, उसपर से 3 जवान लडकियां ? 

अब शुरू हो गयी, कभी न ख़त्म होने वाली, जिम्मेदारियों की दौड़। मंजू दी पर, अपनी दो बेटियों की जिम्मेदारी के अलावे, रमेश जीजाजी की 3 और बेटियों की जिम्मेदारी भी आ गयी। जद्दो-जहद की हर आंधी को चीरती हुई, मंजू दी आगे बढ़तीं गयीं, उन्होंने रमेश जीजाजी की, लड़कियों की शादी की, अपनी बच्चियों का पढाया-लिखाया, उनको अपने पैरों पर खड़ा किया। इसी बीच रमेश जीजा जी बीमार हो गए, उनकी तीमारदारी में भी, कभी कोई कमी नहीं की, मंजू दी ने। 

आज जीजाजी अपने जीवन की, आखरी घड़ियाँ गिन रहे थे अस्पताल में, और मंजू दी बैठीं थीं उनके सामने, उनकी आँखों में आँखें डाल कर, पूछ रहीं थीं उनसे, मैंने तो तुमसे माँगा था, हंसी-ख़ुशी का एक छोटा सा घोंसला, और तुमने मुझे थमा दिए, काले-पीले रंगों में लिथड़े कई अनचाहे रिश्ते । आखिर क्यों किया तुमने ऐसा ?   क्या जवाब देते जीजाजी, खैरात की ज़िन्दगी की मियाद पूरी हो चुकी थी और पाबन्दियाँ ख़त्म। और मैं सोचती रह गयी, यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ???

(पात्रों के नाम बदल दिए हैं ...)

Sunday, November 11, 2012

जन जन के धूमिल प्राणों में, मंगल दीप जले...(दीपावली की हार्दिक शुभकामना !!!)

(ये मेरी पुरानी कविता है लेकिन हर दीपावली में उपयुक्त लगती है मुझे )

जन जन के धूमिल प्राणों में
मंगल दीप जले -2

तन का मंगल, मन का मंगल
विकल प्राण जीवन का मंगल
आकुल जन-तन के अंतर में
जीवन ज्योत जले
मंगल दीप जले

विष का पंक हृदय से धो ले
मानव पहले मानव हो ले
दर्प की छाया मानवता को
और व्यर्थ छले
मंगल दीप जले

आज अहम् तू तज दे प्राणी
झूठा मान तेरा अभिमानी
आत्मा तेरी अमर हो जाए
काया धूल मिले
मंगल दीप जले

सुर में यहाँ सुने ....आवाज़ 'अदा' की, स्वबद्ध 'अदा' द्वारा (थोडा इंतज़ार करना पड़ता है :))

Friday, November 9, 2012

तीन बातें ..

ये तीन बातें  कभी न भूलें : प्रतिज्ञा करके, क़र्ज़ लेकर और विश्वास देकर 

ये तीन कभी वापिस नहीं आते : कमान से निकला हुआ तीर, ज़ुबान से निकली हुई बात और शरीर से निकला हुआ प्राण ।

ये तीन किसी का इंतज़ार नहीं करते : समय, मौत और ग्राहक 

इन तीनों को कभी छोटा न समझें : कर्ज़, शत्रु और बीमारी 

इन तीन चीज़ों में मन लगाए उन्नति होगी : ईश्वर, परिश्रम और विद्या 

इन बातों से आपका जीवन सुखी होगा : अतीत की चिंता न करें, भविष्य पर भरोसा मत करें और वर्तमान को व्यर्थ मत जाने दें 


Wednesday, November 7, 2012

सौदर्य की पीड़ा....

सौन्दर्य के प्रति सहज आसक्ति मानवीय गुण है। लेकिन सौन्दर्य प्राप्ति के लिए बर्बरता ही हद तक जाना अमानवीय प्रवृति। इसी जगत में ऐसी कितनी ही परम्पराओं ने सिर्फ सौन्दर्य प्राप्ति के लिए जन्म लिया है, जो न सिर्फ अप्राकृतिक हैं, बल्कि नृशंस और बर्बर भी हैं।
ध्यान रहे, ये सारे अमानवीय प्रयोग महिलाओं पर ही किये गए हैं।

फुटबाइंडिंग या पैर बंधन परंपरा:

चीनी मान्यताओं में महिलाओं के छोटे पैर सौन्दर्य के प्रतिमान माने जाते थे। चीन में पैर बंधन की बर्बर प्रथा का आरम्भ तांग राजवंश (618-907) के दौरान 10 वीं सदी में शुरू हुआ और यह प्रयोग एक हजार से अधिक वर्षों तक चला. फुटबाइंडिंग या पैर बंधन का अभ्यास आमतौर पर छह साल या उससे छोटी बालिकाओं पर किया जाता था। इस अनुष्ठान से पहले बालिका के दोनों पैरों को जानवरों के रक्त तथा जड़ी बूटी के गरम मिश्रण में डुबोया जाता था। तत्पश्चात, पैरों के नाखूनों को ज्यादा से ज्यादा काटा जाता था। फिर पाँव के अँगूठे को छोड़ कर बाकी की चार उँगलियों को निर्दयता पूर्वक तोड़ कर, उसे एड़ी की तरफ मोड़ दिया जाता था ताकि उनका विकास आगे की ओर न हो, फिर उसी मिश्रण में भिगोई एक इंच चौड़ी और दस फीट लंबी रस्सी से उनके पैरों को बांध दिया जाता था, जिससे किसी भी कीमत पर पैर का सही विकास न हो।  ऐसा करने से महिला के पाँव 4-5 इंच ही बढ़ पाते थे। यह अमानुषिक परंपरा, प्रतिष्ठा और सौंदर्य, का बोधक था।










कांस्य के छल्ले और गर्दन की लम्बाई :


बर्मा में एक जनजाति पायी जाती है जिसका नाम है 'कायन'. यूँ तो यह भी अन्य जनजातियों की तरह ही है, लेकिन इस जनजाति की महिलाओं के विशेष परिधान ने लोगों को आकर्षित किया है। यह रूचि इसलिए हुई है, क्योंकि कायन महिलाएं अपनी नाजुक गर्दन में भारी-भारी कांस्य के छल्ले पहनती हैं। जिनकी संख्या उम्र के साथ-साथ बढ़ती ही जाती है। कांस्य छल्ला धारण का अनुष्ठान बालिकाओं के पांच वर्ष की आयु में ही शुरू हो जाता है और यह ता-उम्र चलता ही रहता है। उम्र के साथ, महिला की गर्दन में छल्लों की संख्या बढती है, उनका बोझ बढ़ता है और उनकी गर्दन भी लम्बी होती जाती है, जो उन्हें अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाता है, ऐसा माना जाता है। 

सदियों से यह परंपरा कायन जाति की महिलाओं की पहचान रही है। इस प्रथा को अपनाने का मुख्य कारण गर्दन की लंबाई को बढ़ाना है, और लम्बी गर्दन खूबसूरती का साक्षात प्रतिमान माना जाता है। 

इस परम्परा को निभाने में कितने कष्ट है, एक बार इसे भी सोचना चाहिए।  एक बार कांस्य के छल्ले पहन लिए जाएँ तो इन्हें उतारना लगभग असंभव है| जीवन भर गर्दन पर बोझ लादे रहना, जो लगभग 5 किलो होता है, गर्दन की त्वचा को कभी भी प्राकृतिक हवा-पानी नहीं मिलता, फलतः उसका रंग ही बदल जाता है, गर्दन हमेशा छल्लों पर टिकी रहती है, इसलिए गर्दन की हड्डी बहुत कमजोर हो जाती है, जिसके कारण, अगर छल्ले हटा दिए जाएँ, तो गर्दन के टूटने का भी भय रहता है।

इतनी पीड़ा महिलाओं की अपनी पसंद है, सौन्दर्य के लिए है, या पुरुषवर्ग का अपना वर्चस्व जताने का तरीका ???  


Tuesday, November 6, 2012

मृत्यु के बाद क्या होता है ?



क्यों आत्मा पृथ्वी पर जन्म लेती है, और क्यों वह इतने कष्ट झेलती है ? मृत्यु के बाद क्या होता है, और भाग्य क्या है? क्यों दो व्यक्तियों के जीवन में इतनी असामनता है ? हिंदू धर्म के अनुसार, मृत्यु के उपरान्त भी आत्मा का विनाश नहीं होता, जो  ब्रह्मांड की अन्य अवधारणाओं के साथ असंगत है,  जो साधारनतया यह बताती हैं कि मृत्यु के साथ ही सबकुछ समाप्त हो जाता है, और उसके बाद के जीवन का कोई अर्थ नहीं। परन्तु ये अवधारणायें, दृश्य लोगों के बीच की स्पष्ट असामनताओं की व्याख्या नहीं कर पाती। सब बराबर पैदा नहीं होते, कुछ बुरी प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेते हैं, तो कुछ अच्छी प्रवृतियों के साथ , कुछ मजबूत हैं और कुछ कमजोर, कुछ भाग्यशाली हैं, और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हैं।  इसके अलावा, यह भी अक्सर देखने को मिलता है पुण्य  करनेवाले पीड़ित हैं और शातिर समृद्ध। क्या इसे हम परमेश्वर का अन्याय या उसके द्वारा किया गया भेद-भाव कहेंगे ?


हिंदू धर्म का कहना है, कि जीवन के दुख और असमानताओं का निदान मृत्यु के पश्चात नहीं बल्कि जन्म से पहले ही हो जाना चाहिए। पुनर्जन्म, आत्मा के अमरत्व का परिणाम और मृत्यु आने वाले अनेक जीवन की श्रृंखला  को जारी रखने के लिए विश्राम स्थली। और यही वो समय होता है, जहाँ अगले जन्म के निर्णय, कर्मों का लेखा-जोखा, योनी निर्धारण इत्यादि होता होगा शायद।

हिन्दू दर्शन में पुनर्जन्म पूरी तरह से मनुष्य के 'कर्म' द्वारा शासित होता है। इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है,और वह अपने 'कर्म' द्वारा पुनर्जन्म को बनाए रखता है .... 

दूसरी तरफ अगर , हम कुछ लोगों के जीवन का अवलोकन करें , जैसे सद्दाम, हिटलर, मुसोलोनी, बिन लादीन, गद्दाफी, इदी अमीन इत्यादि, ने जो इस जन्म में वैभवपूर्ण जीवन जिया, क्या वह सब उनके पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम था ? जबकि इनमें से किसी को भी न पूर्वजन्म पर विश्वास था, न ही पुनर्जन्म पर यकीन। क्या उनके इस जन्म के कर्मों का उनकी आज की सफलता (??) में कोई हाथ नहीं था ? उन्होंने जो राजनीति, कूटनीति इस जन्म में खेली, उससे उनको ये सफलता नहीं मिली ?

कुछ लोगों को बिना मेहनत के ही सबकुछ मिल जाता है जबकि, कुछ अथक मेहनत करते हैं, फिर भी कुछ हासिल नहीं कर पाते... आखिर वजह क्या है ? क्या यह पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं ? कभी यह भी देखा है, लोग असफल होते हैं, फिर बार-बार कोशिश करते हैं, और सफल भी हो जाते हैं ...इसे क्या कहा जाएगा, आज की मेहनत या पिछले जन्म के कर्मों का परिणाम ...? 


आप अपने ऑफिस में सबसे काबिल माने जाते हैं, इसलिए नहीं कि आपने पिछले  जनम में बड़े पुण्य किये थे , बल्कि इसलिए माने जाते हैं, क्योंकि आज हर दिन आप, अपना काम पूरी निष्ठा से करते हैं। कोई व्यक्ति बहुत ईमानदार और सच्चा या बेईमान, धोखेबाज़, उसके आज के व्यवहार से माना जाता है, पिछले जन्म के व्यवहार से नहीं ...

ऐसे कई प्रश्न आये मन में जब मैंने ये पोस्ट पढ़ी :

http://mosamkaun.blogspot.ca/2012/11/blog-post.html?showComment=1352086662933#c9143398798382510055


भारतीय दार्शनिक पुनर्जन्म और कर्मफल को मानते ही रहे हैं और अब वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं। विज्ञान ने अनुसार ही देखा जाए तो ऊर्जा का विनाश नहीं होता, उसकी सिर्फ अवस्था बदल जाती है। हमारी चेतना, ऊर्जा का शुद्धतम रूप है। 

सद्कर्म का फल हमेशा अच्छा होता है, इस जन्म में भी, अगले जन्म में भी और पिछले जन्म में भी, (अगर जो ये सब होता है तो) ...इत्ती तो हिंदी फिलम हैं, देखा नहीं है, हर बार धर्मेन्द्र, मीनाकुमारी, राजेश खन्ना, प्राण को हरा देते हैं।


मेरे पति हमेशा कहते हैं, तुमसे मेरा नाता सात जन्मों का है, और मैं जी भर के उनको सता लेती हूँ, क्योंकि मेरे हिसाब से 'ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा ' और मौका भी न मिलेगा दोबारा । 



हाँ नहीं तो ..!



Thursday, November 1, 2012

करवा चौथ की बहुत सारी बधाई आपको ...!

करवा चौथ की बहुत सारी बधाई आपको ...! 
तुम्हीं मेरे मंदिर .....आवाज़ 'अदा ' की




Wednesday, October 31, 2012

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके.....(Repeat)



http://firdaus-firdaus.blogspot.in/2008/11/blog-post_05.html 
मैंने ये पोस्ट पढ़ा फिरदौस जी के ब्लॉग पर...उन्होंने बहुत अच्छी पोस्ट लिखी है...सच पूछिए तो मेरी यह पोस्ट उनकी पोस्ट से प्रेरित होकर ही लिखी गयी है...

फिरदौस जी, आपने जिन लोगों का नाम लिया है..निःसंदेह वो वन्दनीय हैं...लेकिन एक बात इन सभी महान हस्तियों में कॉमन है...इन लोगों ने अपने देश और फ़र्ज़ के आगे धर्म को तूल नहीं दिया....उन्होंने वही किया जिसे करने के लिए उनके 'ईमान' ने इजाज़त दी....ये तब की बात है जब 'जुबान', 'यकीन', 'स्वामिभक्ति' जैसे शब्द मायने रखते थे...इनकी तारीफ के साथ-साथ, उनकी भी तारीफ है, जिन्होंने अपना विश्वास इनपर रखा....

बात करते हैं...अवध में होली मनाने की...तो ये त्यौहार पहले से ही मनाये जाते रहे थे....हाँ...महल में इनको मनाना, एक सियासी फैसला होगा...आख़िर आवाम को खुश रखना भी तो, एक सफल शासक का फ़र्ज़ होता है...सभी धर्मों को समान अधिकार मिलना भी चाहिए...आज हमलोग कनाडियन पार्लियामेंट में दिवाली का त्यौहार मनाते हैं...इसे स्थान देना यहाँ की सरकार के हक में हैं..क्योंकि आज हम हिन्दुस्तानियों की तादाद को, कनाडियन सरकार नज़रंदाज़ नहीं कर सकती...लिहाज़ा हमारी दीवाली मनती है पार्लियामेंट में सारे मिनिस्टर्स और प्राईम मिनिस्टर के साथ...और ये यहाँ की सरकार का सियासी फैसला है...

जहाँ तक कत्थक की बात है...कत्थक नाम 'कथा' शब्द से बना है, कत्थक उत्तर प्रदेश का एक परिष्कृत शास्त्रीय नृत्य है, जो कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ किया जाता है, इस नृत्य में नर्तक किसी कहानी या संवाद को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करता है, कत्थक नृत्य का अभ्युदय ३-४ वीं शताब्दी में उत्तर भारत में हुआ था, आदिकाल में यह एक धार्मिक नृत्य हुआ करता था, जिसमें नर्तक महाकाव्य गाते थे, और अभिनय करते थे, महाभारत में भी कत्थक नृत्य का प्रसंग है....१३ वी शताब्दी तक आते-आते कत्थक एक सौन्दर्यपरक नृत्य हो गया, किसी भी कला की भाँति इस नृत्य में भी नवीनता आने लगी...अब इसमें सूक्ष्मता पूर्वक अभिनय एवं मुद्राओं पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, साथ ही 'बोल' का प्रयोग अधिक होने लगा,  १५-१६ वीं शताब्दी में भक्ति-काल का दौर चला, तब कत्थक, कृष्ण लीला, राधा-कृष्ण प्रेम प्रसंग के लिए ज्यादा प्रसिद्ध होने लगा...१६ वीं शताब्दी में मुगलों ने इसे राजसी मनोरंजन में शुमार कर लिया, और तब कत्थक में थोड़ी और फेर बदल हुई...उन्ही दिनों इसमें चकरी की तरह घूमना डाला गया, जो मिडिल इस्ट के नृत्यों का प्रभाव माना जा सकता है...अब कत्थक नृत्य, ठुमरी गायन और तबले तथा पखावज के साथ ताल मिलाते हुए किया जाने लगा...और विशुद्ध धार्मिक कला से कत्थक बन गया, मुगलों का राजसी मनोरंजक नृत्य...ऐसे ही एक नवाब थे वाजिद अली शाह , शौक़ीन मिजाज़...बेशक इस्लाम नृत्य-संगीत की आज्ञा नहीं देता..लेकिन अन्य मुग़ल बादशाहों की तरह, नवाब वाजिद अली शाह को भी इस्लाम नहीं रोक पाया था....और उसने भी अपने हरम और दरबार में..कत्थक नृत्य-संगीत को स्थान दिया...कत्थक उस ज़माने में दरबार में नाचने वालियों का ही नृत्य बन गया...ये नाचने वालियां दरबारों में ही नाचतीं थीं, आम घरों में नहीं...क्योंकि कत्थक का इतिहास बहुत पुराना है, अतः ये कहना गलत होगा कि  वाजिद अली शाह ने हिन्दुस्तान को कत्थक नृत्य दिया...

इस्लाम में गाना-बजाना हराम है..किन्तु हिन्दू धर्म में, संगीत एक अहम् स्थान रखता है...संगीत का अभियुत्थान ही सामवेद से हुआ है...कहते हैं नारदमुनी ने संगीत का प्रचार किया था, और ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती, संगीत की देवी हैं...पाणिनि ने संगीत को एक संरचना दी...जिससे रागों का अविर्भाव हुआ...देवी-देवताओं की स्तुति, संगीत से ही की जाती थी..और इसके लिए श्लोकों, गीतों, भजनों की कमी नहीं थी,  श्री कृष्ण-राधा, गोपियों की लीलाओं के अनेको अनेक नृत्य-गीत, तब भी जनसाधारण गाया-नाचा करते थे...ये तीज-त्यौहार हिन्दू बहुल समाज का हिस्सा थे...आज भी, जो हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीन सीखते हैं...वो हिन्दू भजन ही सीखते हैं...क्योंकि शास्त्रीय संगीत का आधार राग हैं...और जैसा मैंने बताया...सामवेद में सातों सुरों का ज़िक्र है...और राग-रागिनियाँ से ही भजनों का सृजन होता है...इसलिए भारतीय शास्त्रीय संगीत के विद्यार्थी वो चाहे, हिन्दू हों, मुसलमान हो, सिख हों या ईसाई...उन्हें भजनों को ही गा कर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा मिल सकती है...यही बहुत बड़ा कारण है..कि  बड़े-बड़े संगीतज्ञं चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों...भजनों पर अपनी पकड़ अच्छी पाते हैं..आधुनिक युग में इसका सबसे अच्छा उदहारण होगा फिल्म 'बैजू बावरा' का भजन 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज'...जिसके गायक हैं, श्री मोहम्मद रफ़ी और संगीतकार हैं, श्री नौशाद...

अब बात करते हैं अमीर खुसरो की...अमीर खुसरो का जन्म जिला एटा में हुआ था, खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि अमीर खुसरो, एक सूफियाना कवि थे और ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मुरीद थे, इनका जन्म सन १२५३ में हुआ था, इनके जन्म से पूर्व इनके पिता तुर्क में लाचीन काबिले के सरदार थे, मुगलों के ज़ुल्म से घबरा कर, इनके पिता सैफुद्दीन मुहम्मद, हिन्दुस्तान भाग आये थे और उत्तरप्रदेश के एटा जिले के, पटियाली गाँव में जा बसे..अमीर खुसरो की माँ दौलत नाज़, हिन्दू (राजपूत) थीं, वो  दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे, अमीर एमादुल्मुल्क राजनीतिक दवाब के कारण, नए-नए मुसलमान बने थे, इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे, खुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था, जिसने अपना अच्छा ख़ासा असर अमीर खुसरो पर दिखाया...खुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक था, इस पर बाद में खुसरो ने 'तम्बोला' नामक एक रचना भी लिखी, इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल ने किशोर खुसरो को पारस बना दिया...

अमीर खुसरो के जन्म का नाम अबुल हसन था, इनके गुरू हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया थे जिनकी इन पर अटूट कृपा थी, ये भी उन पर बडी श्रध्दा रखते थे, खुसरो संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की तथा कई भारतीय भाषाओं के ज्ञाता थे, ये १२ वर्ष की आयु से शेर और रुबाइयाँ लिखने लगे थे, जिनकी भाषा 'हिंदवी है, कहते हैं, इन्होंने ९९ पुस्तकें लिखीं, हिंदी में इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ बहुत लोकप्रिय हुईं, अमीर खुसरो न सिर्फ एक कवि थे, उन्हें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में भी महारत हासिल थी, जाहिर सी बात है जब उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा था, तो भजनों से उनको दो-चार होना ही पड़ा होगा, और शायद गहन आस्था भी थी, उनकी राधा-कृष्ण में...फलत हमें एक अमूल्य धोरोहर मिल गयी....
अमीर खुसरो खडी बोली के प्रथम कवि, बुहभाषाविद, सूफी साधक, हिंदू मुस्लिम एकता के अग्रदूत, भारतीय संगीत के परम ज्ञाता तथा जो सबसे अहम् बात है, वो एक राष्ट्रभक्त थे...उनके बुझौवल बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुए...आज भी उन बुझौवल का कोई सानी नहीं है...

एक नार वह दाँत दँतीली। दुबली-पतली छैल छबीली।
जब वा तिरियहिं लागै भूख। सूखे हरे चबावै रूख।
जो बताया वाही बलिहारी। खुसरो कहे बरी को आरी।
- आरी

बीसों का सिर काट लिया। ना मारा ना खून किया॥
- नाखून
 
सावन भादो बहुत चलत है, माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यों कहे, तू बूझ पहेली मोरी॥
- मोरी

घूस घुमेला लहँगा पहिने, एक पाँव से रहे खडी।
आठ हाथ हैं उस नारी के, सूरत उसकी लगे परी।
सब कोई उसकी चाह करे, मुसलमान, हिंदू छतरी।
खुसरो ने यही कही पहेली, दिल में अपने सोच जरी।
- छतरी

आदि कटे से सबको पारे। मध्य कटे से सबको मारे।
अन्त कटे से सबको मीठा। खुसरो वाको ऑंखो दीठा॥
- काजल

बाला था जब सबको भाया। बढा हुआ कछु काम न आया।
खुसरो कह दिया नाँव। अर्थ करो नहिं छोडो गाँव॥।
- दीया

एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे॥
- आकाश

एक नार ने अचरज किया। साँप मार पिंजरे में दिया।
ज्यों-ज्यों साँप ताल को खा। सूखै ताल साँप मरि जाए॥
- दीये की बत्ती

एक नारि के हैं दो बालक, दोनों एकहिं रंग।
एक फिरे एक ठाढ रहे, फिर भी दोनों संग॥
- चक्की

खेत में उपजे सब कोई खाय।
घर में होवे घर खा जाय॥
- फूट

मुकरियाँ 
रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥
यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

नंगे पाँव फिरन नहीं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥
पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय॥
मीठे लागें वाके बोल। ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल॥

जब माँगू तब जल भरि लावे। मेरे मन की तपन बुझावे। ।
मन का भारी तन का छोटा। ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा॥

बेर-बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूँ तो काटे खावे॥
व्याकुल हुई मैं हक्की-बक्की। ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी॥

अति सुरंग है रंग रंगीलो। है गुणवंत बहुत चटकीलो।
राम भजन बिन कभी न सोता। क्यों सखि साजन? ना सखि तोता॥

अर्ध निशा वह आयो भौन। सुंदरता बरने कवि कौन।
निरखत ही मन भयो आनंद। क्यों सखि साजन?ना सखि चंद॥

शोभा सदा बढावन हारा। ऑंखिन से छिन होत न न्यारा।
आठ पहर मेरो मनरंजन। क्यों सखि साजन?ना सखि अंजन॥

जीवन सब जग जासों कहै। वा बिनु नेक न धीरज रहै।
हरै छिनक में हिय की पीर। क्यों सखि साजन?ना सखि नीर॥

बिन आए सबहीं सुख भूले। आए ते अंँग-ऍंग सब फूले।
सीरी भई लगावत छाती क्यों सखि साजन?ना सखि पाती॥

पंडित प्यासा क्यों? गधा उदास क्यों ?
* लोटा न था
रोटी जली क्यों? घोडा अडा क्यों? पान सडा क्यों ?
* फेरा न था

अनार क्यों न चक्खा? वजीर क्यों न रक्खा ?
* दाना न था

दोहा
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥

पद

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम बटी का मदवा पिलाइके
मतवाली कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

ग़ज़ल

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ||

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ||

चो शम्मा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह |
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ||

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||

तो ये थे कवि अमीर खुसरो रचित चंद बेशकीमती मोती..

जहाँ तक, शिवाजी को मुसलामानों का साथ मिलने कि बात है...ये मत भूलिए...बहुत सारे हिन्दू ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए थे..और ऐसा भी नहीं था, कि औरंगजेब बहुत लोकप्रिय शासक था...उसके जितने हिन्दू दुश्मन थे, उतने ही मुसलमान दुश्मन थे..वो भी तो होंगे..औरंगजेब के खिलाफ...

गुलाम गौस खान और खुदादा खान भी, बेशक स्मरणीय हैं, क्योंकि इन्होने अपने धर्म से पहले अपना फ़र्ज़ निभाया...और उन्हें इस क़ाबिल समझने के लिए लक्ष्मीबाई की पारखी नज़रों की भी तारीफ़ किये बिना हम नहीं रह सकते...
हम ये क्यों भूलते हैं कि..इन्सान की बुनियादी ज़रूरतें किसी भी धर्म से पहले आतीं हैं..मनुष्य, अपना  और अपने परिवार का भरण पोषण करना, अपना पहला फ़र्ज़ समझता है...और शायद ईश्वर भी यही चाहते हैं...हमारे मुसलमान भाई-बहन भी अपवाद नहीं हैं...कितने ही ऐसे काम हैं, जो वो अपना काम, अपनी नौकरी या फिर अपना पेशा मान कर करते हैं..और इनको करने में उनका धर्म इनके आड़े नहीं आता...इसके कई उदाहरण हैं....दिवाली में सजाने के सामान, दीये, मूर्तियाँ इत्यादि मुसलामानों के हाथों बनाए हुए होते हैं....होली के रंग, मंदिरों में चढ़ाये जाने वाले हार-सिंगार, मुसलमान भाई-बहन के हाथों की कला-कृति होती है...रंग बिरंगी चूड़ियाँ जिनसे लाखों हिन्दू-मुस्लिम दुल्हने बड़े शौक से अपने सुहाग की निशानी मान कर पहनतीं हैं, फैजाबाद के मुसलमान बनाते हैं...यहाँ तक कि सारे राम नामी शाल-दुशाले भी जिन्हें बड़े से बड़े मंदिर और छोटे से छोटे शिवालय के पुरोहित अपने अंग पर धारण करते हैं, मुसलमान रंगरेजों ने ही रंगे होते हैं,......अब सवाल ये उठता है..अगर वो अपने इस्लाम के हिसाब से जीने लगे तो, क्या चल पाएगी उनकी रोज़ी-रोटी और गृहस्थी ???...लेकिन वो सभी बेहतर मुसलमान हैं..जो अपने और अपने बच्चों के प्रति, अपने फ़र्ज़ को बहुत अच्छी तरह समझते हैं....और वही करते हैं जो उन्हें उचित लगता है...उनके लिए, उनका काम, उनकी रोज़ी ही ख़ुदा होता है...जिसमें उनकी आस्था पहले होती है..फिर चाहे वो लक्ष्मी-गणेश की मूर्ती हो या राम-नामी शाल...उनको कोई फर्क नहीं पड़ता और वो अपना काम पूरी ईमानदारी से करते हुए, अपने धर्म का भी पालन करते हैं...

हम अगर आज के तालेबानी इस्लाम की नज़र से देखें तो, जिन ऐतिहासिक व्यक्तियों का ज़िक्र किया गया है, वो मुसलमान ही नहीं माने जायेंगे...अगर आज अमीर खुसरो, अकबर, वाजिद अली शाह इत्यादि जिंदा होते तो, कब के इनके नाम से फतवे ज़ारी हो चुके होते..और इनके सर कलम किये जा चुके होते...
लेकिन हम आज उन्हीं दहशतगर्दों, के ढकोसलों के बीच जी रहे हैं...जिन्होंने न सिर्फ ग़ैर मुस्लिम धर्मावलम्बियों को निशाने पर रखा है...उनकी बन्दूक की नोक मुसलामानों की तरफ भी है...शायद यही कारण है कि  आज के ज़्यादातर मुसलमान किसी भी देश के नागरिक होने से पहले, मुसलमान होने पर मजबूर हैं ...और यही उनकी सबसे बड़ी त्रासदी है...

हमें भी बुरा लगता है जब क्रिकेट जैसे खेल में भी, हम बड़ी तादाद में मुसलमान मोहल्लों में जश्न होते देखते हैं, तब, जब भारत की हार होती है और पाकिस्तान की जीत..जब हम मुसलामानों, जिसका अर्थ ही होता है 'मुसल्लम हो ईमान जिसका', को ऐसी बेईमानी करते हुए देखेंगे तो असर तो होगा ही...
मुसलामानों को शक के घेरे में लाने के लिए ख़ुद मुसलमान जिम्मेदार हैं...और कोई नहीं...

और भी मुद्दे थे..उनके बारे में फिर कभी तफसील से बात करुँगी...फिलहाल इतना ही...!!
हाँ नहीं तो..!! 

इस पोस्ट में कुछ जानकारियाँ यहाँ से ली गयीं हैं..
http://hi.wikipedia.org/

छाप-तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाये के...