1950 के बाद से, गंगा और हुगली जैसी नदियों के किनारे, आबादी और उद्योग दोनों में ही नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है। दोनों नदियों के किनारे बसे नगरों के, नगर निगमों ने भी विषैले औद्योगिक अवशेषों और सीवेज की बहुत बड़ी मात्रा का रुख़, इन नदियों की ओर कर दिया। इन नदियों में कचरा प्रतिदिन 1 अरब लीटर तक समाहित होता है। इतना ही नहीं हिन्दू धार्मिक मान्यताओं का भी, इन नदियों को प्रदूषित करने में बहुत बड़ा हाथ रहा है। हर साल इन नदियों में लाखों की तादाद में मूर्ति विसर्जन, प्रतिदिन फूल, बेलपत्र इत्यादि का विसर्जन भी इनको कलुषित करने में अच्छा ख़ासा योगदान करते रहे हैं। एक और बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है, हिन्दू संस्कृति में मृतकों का दाह संस्कार अक्सर नदियों के तट पर ही किया जाता है। चिता में जली हुई लकडियाँ और अधजले शव भी नदियों में प्रवाहित किये जाते रहे हैं। इनसे भी नदियाँ दूषित होतीं रहीं हैं। पशुओं की लाशें भी बड़ी संख्या में इन नदियों को प्रदूषित करने में योगदान करतीं रहीं हैं। महाकुम्भ जैसे महापर्व में लाखों श्रद्धालू, जब इन नदियों में स्नान करते हैं तो वो भी इन नदियों के पक्ष में नहीं होता है। इन सब कारणों से इन नदियों का जल स्तर न सिर्फ रसातल में चला गया है, इनका पानी भी पीने योग्य नहीं रह गया। बल्कि इन नदियों की स्थिति इतनी गंभीर है कि इनमें स्नान तक करना ख़तरनाक हो सकता है।
गंगा, जमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ हमारे ही जीवन काल में, या तो लुप्त हो गयीं या नदी से नाला बन गयीं। इसका कारण यह है कि हम परम्पराओं को जीवन से ज्यादा महत्त्व देते हैं। परम्परायें कभी भी जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं हो सकतीं हैं। परम्परायें समय, परिवेश और आवश्यकताओं के साथ बदलनी चाहियें। कोई भी परंपरा हमारे बच्चों के भविष्य और जनसमूह की आवश्यकताओं से बड़ी हो ही नहीं सकती। जो भी हमारी परम्पराएं बनी हैं वो उस काल, परिवेश और आवश्यकता के अनुसार बनी थीं। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकीं हैं इसलिए परम्पराओं को भी बदलना चाहिए। मूर्ति विसर्जन, फूल-पत्ती विसर्जन, नदी के तीर पर दाह संस्कार, श्मशान घाट, महाकुम्भ स्नान ये सब बंद होना चाहिए। लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए और अपनी धरोहरों को बचाते हुए, कुछ दुसरे विकल्प तलाशने चाहिए। वर्ना प्राकृतिक सम्पदा के नाम पर भारत के पास कुछ भी नहीं बचने वाला है। और एक दिन ऐसा आएगा कि पानी के लिए लोग एक-दुसरे के खून के प्यासे हो जायेंगे।
गंगा, जमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ हमारे ही जीवन काल में, या तो लुप्त हो गयीं या नदी से नाला बन गयीं। इसका कारण यह है कि हम परम्पराओं को जीवन से ज्यादा महत्त्व देते हैं। परम्परायें कभी भी जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं हो सकतीं हैं। परम्परायें समय, परिवेश और आवश्यकताओं के साथ बदलनी चाहियें। कोई भी परंपरा हमारे बच्चों के भविष्य और जनसमूह की आवश्यकताओं से बड़ी हो ही नहीं सकती। जो भी हमारी परम्पराएं बनी हैं वो उस काल, परिवेश और आवश्यकता के अनुसार बनी थीं। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकीं हैं इसलिए परम्पराओं को भी बदलना चाहिए। मूर्ति विसर्जन, फूल-पत्ती विसर्जन, नदी के तीर पर दाह संस्कार, श्मशान घाट, महाकुम्भ स्नान ये सब बंद होना चाहिए। लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए और अपनी धरोहरों को बचाते हुए, कुछ दुसरे विकल्प तलाशने चाहिए। वर्ना प्राकृतिक सम्पदा के नाम पर भारत के पास कुछ भी नहीं बचने वाला है। और एक दिन ऐसा आएगा कि पानी के लिए लोग एक-दुसरे के खून के प्यासे हो जायेंगे।
ये तो हुई नदियों पर हो रहे अत्याचार की बात, अब आते हैं हम मानवीय मूल्यों की बात पर :
उन दिनों हम पटना में थे, जाड़े के दिन थे, हम अपनी मामी के घर जा रहे थे। रास्ते में लकड़ी के कोयले की आंच में पंखा हिल-हिला कर भुट्टा भुनती एक गोरी नज़र आई। भुट्टे की सोंधी ख़ुशबू ने ज़बरदस्त आकर्षित किया था, इसलिए ६-७ गरमा-गर्म भुट्टे हम खरीद ही लिए। सोचे तो थे कि मामा-मामी खुश हो जायेंगे। लेकिन ऐसा काहे होता, हमसे तो सब कामवे उलटा होता है :) घर पहुँच कर सारे भुट्टे मामी जी के हाथ में पकड़ा दिए हम । मामी जी पूछने लगीं कहाँ से ला रही हो इतने भुट्टे ? हम बता दिया फलाने जगह से। उन्होंने बिना एक पल गँवाए, सारे भुट्टे कूड़े में फेंक दिए। कहने लगीं इस इलाके में तो क्या, पटना में ही भुने हुए भुट्टे कभी मत खरीदना। मेरे पूछने पर बताया कि पास ही शमशान घाट है। जिस लकड़ी के कोयले में ये भुट्टे भुने जा रहे हैं, वो कोयला उसी श्मशान घाट की चिताओं से आता है। उसी में भुट्टे भून-भून कर बेचा जाता है। हमको तो ऐसा लगा, जैसे हम आसमान से गिर गए !
दिल्ली के हर रेड लाईट पर छोटे-छोटे बच्चे क्यू टिप्स (कान साफ़ करने के लिए रूई लगे हुए तिनके ) बेचते हैं। भरी दुपहरी में बच्चों को पसीना बहाते हुए, कातर नज़रों से ख़रीदने की मनुहार करते देख दया आ ही जाती है। मैंने भी उनका मन रखने के लिए दो-चार डब्बे ले लिए। लेकिन मुझे बताया गया कि इसमें जो रूई है वो 'AIIMS या 'सफदरजंग' जैसे अस्पतालों में ओपरेशन, खून मवाद साफ़ करने के लिए, जो प्रयोग में लाये जाते हैं, वही रूई है। इन अस्पतालों से खून-मवाद आलूदा रूई के ढेर जमा किये जाते हैं और उनको सिर्फ ब्लीच के घोल में में डुबो कर सफ़ेद कर दिया जाता है। उसी ब्लीच्ड रूई को दोबारा प्रयोग में लाया जाता है। हैं न हैरानी की बात !
जितने फूल आप देखते हैं, इन रेड लाईट्स पर बिकते हुए, वो सारे किसी मज़ार, किसी कब्रिस्तान में कब्रों पर या किसी डेड बोडी पर डाले गए या किसी मंदिर में चढ़ाये गए फूल होते हैं। आपको मालूम होना चाहिए, इसलिए बता रहे हैं। इन कामों को अंजाम देने के लिए बहुत बड़ा नेटवर्क है लोगों का। बच्चों का उपयोग इसलिए किया जाता है ताकि हमलोग उल्लू बन सकें। आपका पैसा आपकी अंटी से निकलवाने के लिए क्या-क्या गुर चलाये जाते हैं, ये हम आप कभी सोच भी नहीं सकते।
एक बार दिल्ली में जमुना नदी, जो अब नाला बन चुकी है, में पता नहीं क्या हुआ था, दुनिया भर के कछुवे हो गए थे और पानी कम होने के कारण सब बाहर निकल आये थे। जमुना के किनारे कछुवो ने अण्डों की भरमार कर दी थी। आपको बता दूँ कि कछुवों के अण्डे भी, देखने में मुर्गी के अण्डों जैसे ही नज़र आते हैं। उन दिनों दिल्ली के बाज़ार में कछुवों के ही अण्डे मिलने लगे थे। लोगों ने ये मौका भी नहीं छोड़ा था पैसा बनाने का।
कोई ये ना कहे आकर ' इतना सन्नाटा क्यों है भाई ??' :), इसलिए अब हम शुरू करते हैं, कुछ इधर-उधर की :
अभी पिछले साल ही हम गए थे अजमेर शरीफ, अपने दोस्तों के साथ। उनको अजमेर शरीफ के दर्शन का शौक था तो हम भी साथ हो लिए। सबने कहा, वहाँ चादर ज़रूर चढ़ाना है। तो जी, हम भी ले लिए एक बढ़िया सी चादर। मज़ार के बाहर ही एक दूकान में टंगी हुई थी। अपने हिसाब से हमने बेष्टेशट चादर ली थी। फिर हम सभी लग गए चादर चढ़ाने के लिए लाईन में। बड़ी मुश्किल से रेलम-रेल और ठेलम-ठेल में जूझते हुए, हम पहुँचे मज़ार तक। सच्ची बात कहें, तो हम पहुँचे नहीं थे, पहुँचा दिए गए थे । भीड़ ही इतनी थी। हम तो सोच रहे थे, पहुँचेंगे पीर बाबा के सामने और इत्मीनान से, दिल से पीर बाबा से बात-चीत करेंगे। लेकिन हाय री किस्मत ! पीर बाबा से गप्प-शप्प का कोई चान्से नहीं था। वहाँ एक मिनट भी रुकने की किसी को कोई इजाज़त नहीं थी। बस आप को चल-चल रे नौजवान, रुकना तेरा काम नहीं चलना है तेरी शान, की तर्ज़ पर चलते ही रहना था। ई भी कोई दर्शन हुआ भला ! रुकने का तो नाम भी मत लो। जैसे तैसे पीर बाबा के असिस्टेंट को हमने अपनी टोकरी पकडाई। उन्होंने यूँ उसे लिया जैसे हम पर अहसान किया हो। खैर हम पर तो अहसान किया ही था उन्होंने। लेकिन जिस तरह से चादर और फूल पत्ती उन्होंने पीर बाबा पर फेंका, वो तो पीर बाबा पर भी अहसान कर रहे हैं सुबह-शाम, तो हमरी का बिसात भला !! ख़ैर, इतना चुन कर, मन से खरीदी गयी हमरी चादर शायद एक सेकेण्ड के लिए भी न चढ़ी थी, पीर बाबा पर और चढ़ते साथ ही उतर भी गयी। हमारी आखों के सामने हमरी चढ़ी हुई चादर, देखते ही देखते उसी दूकान में दोबारा बिकने के लिए, उसी जगह टंग गयी, जहाँ हमारे ख़रीदने से पहले, वो टंगी हुई थी। ऐइ शाबाश ! युंकी इसको कहते हैं, आम के आम और गुठलियों के दाम।
वहीँ, दर्शन करने में एक बात और हुई, हमलोग जैसे ही मज़ार के चारों तरफ लगे रेलिंग तक पहुँचे, पता नहीं क्यों, शायद हम शक्ल से ही उल्लू नज़र आते हैं या क्या बात है, एक भाई साहब जो सबको, झाड़ू नुमा चीज़ से झाड रहे थे, उन्होंने हम पर भी झाडू फेर दिया और एक भाई साहब ने फट से मेरे गले में एक धागा डाल दिया। हम समझे पीर बाबा की स्पेशल कृपा हुई है, हम पर। अगले ही पल हमसे पैसों की दरियाफ्त होने लगी। हमने कहा किस बात के पैसे ? कहने लगे झाडू खाने के और धागा गले में पाने के। हम बोले, ई सब हम तो मांगे नहीं थे, पीर बाबा ने अपनी मर्ज़ी से दिया है। इतना ही बोल पाए थे बस, बाकी का काम, भीड़ के रेले ने ही कर दिया। हम भीड़ के साथ बाहर धकिया दिए गए। उन दोनों भाई साहबों के क्रोध भरे चेहरे अब भी याद हैं। अब सोचते हैं, कभी-कभी भीड़ भी काम की चीज़ होती है। वर्ना कोई न कोई पंगा हो ही जाता :)
वहीँ, दर्शन करने में एक बात और हुई, हमलोग जैसे ही मज़ार के चारों तरफ लगे रेलिंग तक पहुँचे, पता नहीं क्यों, शायद हम शक्ल से ही उल्लू नज़र आते हैं या क्या बात है, एक भाई साहब जो सबको, झाड़ू नुमा चीज़ से झाड रहे थे, उन्होंने हम पर भी झाडू फेर दिया और एक भाई साहब ने फट से मेरे गले में एक धागा डाल दिया। हम समझे पीर बाबा की स्पेशल कृपा हुई है, हम पर। अगले ही पल हमसे पैसों की दरियाफ्त होने लगी। हमने कहा किस बात के पैसे ? कहने लगे झाडू खाने के और धागा गले में पाने के। हम बोले, ई सब हम तो मांगे नहीं थे, पीर बाबा ने अपनी मर्ज़ी से दिया है। इतना ही बोल पाए थे बस, बाकी का काम, भीड़ के रेले ने ही कर दिया। हम भीड़ के साथ बाहर धकिया दिए गए। उन दोनों भाई साहबों के क्रोध भरे चेहरे अब भी याद हैं। अब सोचते हैं, कभी-कभी भीड़ भी काम की चीज़ होती है। वर्ना कोई न कोई पंगा हो ही जाता :)
हरिद्वार गए थे हम, वहाँ तो हम एकदमे हैरान हो गए। एक पंडा जी तो हमरे कुल-खानदान की जनम पत्री ही निकाल दिए, कि फलाने आपके बाप है और अलाने आपके दादा है। बाप रे ! हम तो फटाफट पूजा-पाठ के लिए तैयार हो गए। पूजा करके हम जैसे ही नारियल पानी में फेंके, फट से दो-तीन बच्चे कूद गए पानी में और वही नारियल किनारे ले आये। सेम टू सेम नारियल, सेम टू सेम दूकान और सेम टू सेम हम जैसे लोग, न जाने कब से ऊ नारियल रिसाईकिल हो रहा है, और न जाने कब से लोग जानबूझ कर बुड़बक बन रहे हैं :)
अब बात करते हैं पुष्कर की। कहते हैं ब्रह्मा जी का मंदिर सिर्फ एक ही जगह है और वो है पुष्कर में। पुष्कर में जो तालाब है, उसकी गन्दगी की व्याख्या करने की क्षमता हम में नहीं है। इसलिए आप कुछ भी कल्पना कर लीजिये उसकी पराकाष्ठा तक शायद आप पहुँच जाएँ। खैर, हम जैसे ही पहुँचे ब्रह्मा जी के मंदिर, कमीज-पैंट, धोतीधारी पण्डों ने धावा बोल दिया। हमको बताया गया यहाँ पुरखों के लिए, पिण्ड-दान करना अच्छा होता है। आपकी मर्ज़ी है तो आप कर सकते हैं। यहाँ एक बात बताना ज़रूरी है कि 'आपकी मर्ज़ी' वाली बात, सिर्फ कहने के लिए कही जाती है, उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। बाकी आपकी कोई भी मर्ज़ी इन जगहों पर नहीं चलती। हम भी सोचे जब यहाँ आ ही गए हैं और इन पण्डों से बच कर जाया जा ही नहीं सकता तो काहे को बेफजूल में कोशिश भी करना, चलो कर ही दो पिण्ड-दान, शायद कुछ अच्छी ही बात होगी। हम पिण्ड-दान करने को तैयार हो गए। लेकिन उन पण्डों को तो, सारे यजमान चाहिए थे। उन्होंने ज़बरदस्ती, उर्सुला और माधुरी से भी, उनके पुरखों के लिए पिण्ड-दान करवा ही दिया, जबकि वो दोनों ही ईसाई हैं। भगवान् जाने उन पण्डों ने उर्सुला और माधुरी के कुल, गोत्र की समस्या कैसे हैंडल किया होगा।ज़रूर होगा उनके पास कोई न कोई शोर्टकट, आई एम श्योर :) । उससे भी बड़ी बात हमको जो सताती है, बेचारियों के पुरखों का क्या हाल हुआ होगा :)
इन सारी घटनाओं को देख कर यही सोचती हूँ, ऐसी पूजा का क्या मतलब होता है, जिसमें न पूजा करने वाले की कोई आस्था है, न करवाने वाले का ध्यान है ? पंडा जी चारों तरफ चकर-मकर खोजी नज़र से अगले शिकार की तलाश करते रहे, मन्त्र सिर्फ मुंह से झरते रहे। न उन मन्त्रों का मतलब पंडा जी को मालूम है, न ही पूजा पर बैठे हुए पूजक को। बस खानापूरी करके दूकान चलाई जा रही है। मैं दूर से दोनों लड़कियों के चेहरों पर 'कहाँ फँस गए यार ' का भाव देखती रही।
आज कल हमलोग अधिकतर पूजा ही करते हैं, प्रार्थना नहीं। मुझे पूजा से बेहतर प्रार्थना लगती है, जिसमें कोई मिडिल मैन नहीं होता। आप डाईरेक्ट अपने आराध्य से बात चीत करते हैं।सबसे अच्छा रहता है, 'ध्यान' करना या मेडिटेशन करना। इससे आप मन पर क़ाबू पाते हैं और शरीर पर संयम भी। मेरे 'वो' हर दिन डेढ़ से दो घन्टे मेडिटेशन करते हैं। हम महसूस करते हैं, बात विचार सब में वो हमसे ज्यादा संतुलित हैं। हम भी मेडिटेशन करना चाहती हूँ, बस हम कर नहीं पाती हूँ :), लेकिन अब हम सीरियसली ठान लिए हैं, कि कोशिश करेंगे मेडिटेशन करने की।
सच पूछा जाए तो दुनिया में जितने भी धर्म हैं और उनके जितने भी धार्मिक स्थल हैं, सभी अपना सही अर्थ खो चुके हैं। वो सभी के सभी तब्दील हो गए हैं, उद्योग में। जहाँ सिर्फ और सिर्फ पैसे की ही बात होती है। न भगवान् से किसी को कोई मतलब है, न भक्तों से। बल्कि इन जगहों में मैंने महसूस किया है सबसे कम ध्यान भगवान् और उसकी भक्ति की तरफ जाता है। इन जगहों पर जाने से, ऐसा लगता है जैसे भगवान् की कृपा वहाँ बिकती है। आप पैसे खर्च करके ईश्वर की कृपा खरीद सकते हैं। जो जितना पैसा खर्चेगा भगवान् की कृपा, उस पर उतनी ही होगी। कभी-कभी तो ऐसा भी महसूस कराया जाता है, इतना पैसा भी है लोगों के पास, जिसे आप दे दें तो पूरे भगवान् ही उनके हो जायेंगे।
सबसे ज्यादा हँसी आती है, मन्नत मानना। और यह हर धर्म में है। भगवान्, पीर, संत, गॉड जिस नाम से भी आप बुलाएं, इनके सामने हम जैसे मूढ़ शर्त रखते हैं, कि हे भगवान् या पीर या संत या गॉड मेरा ये काम कर दोगे तो मैं तुम्हें ये चीज़ दूँगा। ये हमारी धृष्टता की पराकाष्ठा है। हम अपनी औक़ात भूल जाते हैं, क्या सचमुच हम भगवान् को कुछ भी देने के काबिल है ?? क्या भगवान् को कुछ भी चाहिए होता होगा ??? कितने अहमक है हम, भगवान् न दे तो हम एक सांस नहीं ले सकते हैं और उसी भगवान् के सामने शर्त रख कर हम उसे देने की कोशिश करते हैं, जिसे देने की औकात भी हमें वही भगवान् देता है। गज़बे हैं हमलोग भी :)
आप किसी भी धर्म के बड़े धार्मिक स्थल में चले जाइये। वहाँ दूकान खोलने के लिए टेंडर निकलते हैं, प्रसाद सप्लाई के लिए टेंडर निकलते हैं। फूलों के टेंडर निकलते हैं। क्या है ये सब ?? और उन टेंडर्स को जीतने वाले वो लोग होते हैं, जिनको भगवान् या इंसान से कोई मतलब नहीं होता। एक आम इंसान इन बातों को नहीं जानता है, वो सिर्फ भक्ति भाव से ही इन जगहों पर जाता है, लेकिन इनके पीछे दबी-छुपी कितने तरह की धाँधली चलती है, यह कोई जान भी नहीं सकता। मैं तो कहती हूँ, इन सब बातों को समझना, भगवान् या पीर के भी बूते की बात नहीं है। ऐसे घनचक्कर वाले काम तो बस इंसान ही करते हैं !
हाँ नहीं तो !
बढ़िया लेख. बहुत सारे पहलुओं को बखूबी छुआ है.
ReplyDeleteआपको पसंद आया, आभारी हूँ !
Deleteतिरुपति में भी खूब धक्के खाकर पहुँचते हैं अन्दर मंदिर में मगर सिर झुकाने तक का समय दिए बिना आगे धकिया दिया जाता है . अजमेर शरीफ का हमारा अनुभव भी ऐसा ही रहा . एक हाथ ऐसा फंसा भीड़ में कि लगा यही छूट जाएगा .
ReplyDeleteमगर फिर भी यही कहूँगी कि
श्रद्धा तर्क के आगे बेबस है जो इन धार्मिक स्थलों पर खींच ले जाती है . इसे दुःख तकलीफ या फिर अपरिमित सुख से घिरा इंसान ही बेहतर समझ सकता है .
जयपुर की द्रव्यवती नदी अमानीशाह का नाला बन ही चुकी है , सरस्वती भी कोई नदी हुआ करती थी , प्रमाण बताते हैं .
धार्मिक मान्यताओं को परिष्कृत करते हुए उनका पालन करना ही अधिक उचित है !
इस दुनिया में कौन ऐसा है जो दुखी नहीं है। सबके अपने-अपने दुःख होते हैं।
Deleteईश्वर के दरबार में जाने के लिए मनुष्य को सिर्फ और सिर्फ श्रद्धा, आस्था और विश्वास की ज़रुरत होती है, मझौलियों की नहीं।
बाई दी वे। हम तो ई पूछना ही भुला गए, हथवा आप ले आयीं थीं न अजमेर से ? :)
Delete@श्रद्धा के आगे तर्क बेबस है !
ReplyDeleteअंध-श्रद्धा के आगे सही तर्क बेबस है!
Deleteतभी तो आज दुनिया में धर्म के नाम पर जान लेने-देने वाले बहुत हैं, लेकिन धार्मिक कम :(
बहुत बाज़िव मुद्दा है अदा. इस तरह के कई मामले मैने सतना अस्पताल की रिपोर्टिंग के दौरान उजागर किये थे. कभी भेजूंगी तुम्हारे पास या पोस्ट करूंगी.
ReplyDeleteमेरे पास भेज भी दो और पोस्ट भी कर दो :)
Deleteएक पंथ दो काज
लोगों को मालूम तो चले, दुनिया में कैसे कैसे गड़बड़-झाले चल रहे हैं :(
मुझे यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी। अजीब सी बात है कि सबसे ज्यादा लालच उन परिसरों में बिखरी होती है जो दुनियावी चीजों से परे होने का दावा करती हैं। छोटे और मासूम बच्चों से इस तरह के कार्य कराने वाले पेरेंट्स से मुझे बहुत नफरत होती है। ट्रेन में अक्सर मूँछ वाले बच्चे दिखते हैं जिनकी कड़ी मेहनत से उनका परिवार चलता है। हम इनसे कैसा व्यवहार करें? समझ नहीं आता। पवित्र नदियों में स्नान करने की इच्छा होती है लेकिन बगल में गंदे नाले से विसर्जित होते पानी को देखना, कुछ भी अच्छा नहीं बचा। केवल मेडिटेशन ही मुक्ति का रास्ता नजर आता है लेकिन उसका भी धैर्य काफी कम है मुझमे।
मेडिटेशन करना शुरू कर दो, यही सही रास्ता है, अपनी आस्था पर क़ायम रहने का।
Deleteबेशक बेहतर्तीन आलेख है वाह "हरिद्वार गए थे हम, वहाँ तो हम एकदमे हैरान हो गए। एक पंडा जी तो हमरे कुल-खानदान की जनम पत्री ही निकाल दिए, कि फलाने आपके बाप है और अलाने आपके दादा है। बाप रे ! हम तो फटाफट पूजा-पाठ के लिए तैयार हो गए। :)"
ReplyDeleteये हिंदुत्व के संगठनात्मक स्वरूप का नमूना है. किंतु ऐसी व्यवस्था को नज़रअंदाज़ किया गया यह विचारणीय है
गिरीश जी,
Deleteहिंदुत्व के संगठनात्मक स्वरूप की बात से पूर्णतः सहमत हूँ ..
ये सब आस्था और विश्वास की बात है . आप जब भी भारत आयें याद दिलाइयेगा और रूद्र शिव की बेजोड़ मूर्ति के साथ ब्रह्मा की मूर्ति के दर्शन लाभ कराये जायेंगे . पुष्कर के अतिरिक्त ये वडा रहा . वैसे आपके लेख या यात्रा वृतांत की बातों से पूर्णतः सहमत .
ReplyDeleteआस्था और विश्वास के नाम पर हम कब तक अपनी प्राकृतिक संपदाओं और धरोहरों का दुरूपयोग करते रहेंगे ?
Deleteआस्था और विश्वास, बिना इनको तहस-नहस किये हुए भी निभाये जा सकते है।
ये सब आस्था और विश्वास की बात है . आप जब भी भारत आयें याद दिलाइयेगा और रूद्र शिव की बेजोड़ मूर्ति के साथ ब्रह्मा की मूर्ति के दर्शन लाभ कराये जायेंगे . पुष्कर के अतिरिक्त ये वादा रहा . वैसे आपके लेख या यात्रा वृतांत की बातों से पूर्णतः सहमत .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार के चर्चा मंच-1198 पर भी होगी!
सूचनार्थ...सादर!
--
होली तो अब हो ली...! लेकिन शुभकामनाएँ तो बनती ही हैं।
इसलिए होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
आपका धन्यवाद शास्त्री जी !
Delete@@ सबसे ज्यादा हँसी आती है, मन्नत मानना। और यह हर धर्म में है। भगवान्, पीर, संत, गॉड जिस नाम से भी आप बुलाएं, इनके सामने हम जैसे मूढ़ शर्त रखते हैं, कि हे भगवान् या पीर या संत या गॉड मेरा ये काम कर दोगे तो मैं तुम्हें ये चीज़ दूँगा। ये हमारी धृष्टता की पराकाष्ठा है। हम अपनी औक़ात भूल जाते हैं, क्या सचमुच हम भगवान् को कुछ भी देने के काबिल है ?? क्या भगवान् को कुछ भी चाहिए होता होगा ??? कितने अहमक है हम, भगवान् न दे तो हम एक सांस नहीं ले सकते हैं और उसी भगवान् के सामने शर्त रख कर हम उसे देने की कोशिश करते हैं, जिसे देने की औकात भी हमें वही भगवान् देता है। गज़बे हैं हमलोग भी :)
ReplyDelete---------------
कहना अजीब होगा । लेकिन - यह "देने" की बात नहीं होती हर किसी के मन में । करीब यही बात कई जगह सुनी है - जैसे "३ इडियट" में आदि आदि ।
न | देने वाला "दे" नहीं रहा । यह उसका समर्पण है । इश्वर भावना के वशीभूत हैं - वे चढ़ाव नहीं चाहते, न उन्हें आवश्यकता है । वे भक्त का भाव देखते हैं ..... कृष्ण को माखन थोड़े ही चाहिए था , राम को बेर नहीं चाहिए थे ......
कृष्ण को माखन खिलाना, और शबरी का राम को बेर खिलाना, ये दोनों बातें आस्था के प्रतीक हैं ।
Deleteबिना किसी अपेक्षा के किसी को श्रद्धा और प्रेम से कुछ समर्पित करना और किसी को इस शर्त पर कुछ देना कि तुम मेरा यह काम करो तब मैं तुम्हें फलानी चीज़ दूंगा, दोनों में फर्क है। दूसरी तरह का देना तो पारिश्रमिक देने जैसा लगता है :)
एक निस्वार्थ परक है दूसरा स्वार्थ परक।
true - you are ABSOLUTELY right
Delete- that is exactly how "love" and "natural act" gets converted to pomp and show and meaningless paramparas.
we usually do not know / see /try to find the facts and reasons behind traditions and follow things blindly - and this is what happens .....
हम्म बहुत ही गंभीर मुद्दे पर चर्चा की है...
ReplyDeleteअब तो सचमुच गंभीरता से इन पहलुओं पर गौर किया जाना चाहिए
मंदिरों में फूल और मजार पर चादर चढाने जैसा ही नज़ारा मैंने चर्च में मोमबत्तियां चढाने का देखा है.
मुंबई के मशहूर माहिम चर्च में दो-तीन जगह मदर मेरी की फोटो लगी है और बगल में दान पात्र के साथ ड्रम जैसा एक डब्बा रखा है . यहाँ हर अंग की आकृति की मोमबत्ती मिलती है. हार्ट, किडनी, पैर, हाथ, घर ...जिसकी जो मन्नत हो...लोग श्रद्धानुसार इन आकृतियों वाली या फिर सादा दस- बीस - पचास मोबत्तियाँ फोटो से छुला कर उस ड्रम में डाल देते हैं.
मैं यही सोच रही थी..क्या सैकड़ों मोमबत्तियां जलाई जाती होंगी?
ये जरूर फिर वापस चर्च से लगे बीसियों दूकान में पहुँच जाती होंगी वापस बिकने के लिए .
मोमबत्तियों का व्यापार यहाँ भी खूब चलता है। वहाँ और यहाँ में फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ मोमबत्तियाँ जलाई जातीं हैं। मोमबत्तियों के साईज़ के हिसाब से उनका दाम भी होता है। पैसे डालिए पात्र में और मोमबत्ती जलाइये। सोचने वाली बात ये है कि भगवान् मोमबत्ती की साईज के हिसाब से दया करते होंगे क्या ?
Deleteहर मंदिर, हर चर्च, हर मस्जिद, हर मज़ार सिर्फ और सिर्फ एक व्यावसायिक केंद्र है और कुछ नहीं। दूकान बना कर रख दिया है लोगों ने, आप जाइये वहाँ और ईश्वर की कृपा, दया, आशीर्वाद जो भी चाहिए या तो खरीद लीजिये, नहीं तो बार्टर सिस्टम तो है ही, आप मुझ पर कृपा कीजिये मैं आपको फलानी चीज़ चढ़ा दूंगा।
@ हर मंदिर, हर चर्च, हर मस्जिद, हर मज़ार सिर्फ और सिर्फ एक व्यावसायिक केंद्र है और कुछ नहीं।
Deleteno - it is not so.... please do NOT generalize
chalo 'har' nahi to 'adhiktar' to hain hi. aur jitne bade-bade hain unke baare mein to yah baat poori tarah laagoo hoti hain.
Deleteअब होलियै का वकत मिला था इस लेख को ठेलने का -इस पर तो इतनी ही लम्बी टिप्पणी बनती है -बिलकुल ऐसे ही संस्मरण हैं मेरे .....लम्बी पोस्ट तो है मगर आनंद आ गया -बेष्टेशट (क्या प्रयोग है ) :-)
ReplyDeleteमल्टी टास्किंग का ज़माना है डाक्टर साहेब, होली भी मनाइये, पोस्ट भी पढ़िए और कमेन्ट भी कीजिये :)
Deleteबात अगर मानव जीवन को सार्थकता प्रदान करने की है तो मानव जीवन के लिए रोजी जरूरी है। और यह रोजी जब आवश्यकता से आगे बढ़कर तृष्णा बन जाती है तो ऐसे कई विरोधाभास प्रकट होने लगते है।
ReplyDeleteअंधश्रद्धाएं जितनी अधिक होगी धर्म के धंधे उतने ही फलेंगे फूलेंगे। लेकिन चढ़ावों का रिसायकल बुरा नहीं है। पुनः उपयोग में आने वाली वस्तु को फैकने से लाभ भी क्या? इतने विशाल मात्रा में चढ़ावे होते है कि उन्हे व्यर्थ फैकना भी पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है।
मानव अपने जीवन की जिजीविषा में ही नदी किनारों की बसाहटों को विकट व विराट कर देता है। मानव द्वारा पैदा किया गया व्यर्थ ठिकाने लगाना मानव हित में ही है। आशा करें जल्दी ही हमें कोई सुरक्षित और प्रकृति अनुकूल उपाय मिल जाय। और लोग कर्तव्य निष्ठा से उसे निभाए।
जगत में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो घृणास्पद हो, प्रकृति सभी पदार्थों को एकमेक कर देती है। जिसको हम रिसायकिल नहीं करेंगे, प्रकृति उसको रिसायकल कर देगी।
'ध्यान'करना अच्छा है किन्तु ध्यान के अन्तर्गत निरन्तर माईंड को सदाचार व सकारत्मक विचारों की सूचना देते रहें तो ही उपयोगी है। फिर तो वह भी पूजा है।
हर बड़े धार्मिक स्थल पर धन्धे स्पष्ट दृष्टिगोचर होते है, अंध आस्थावान भी देखते जानते है, लेकिन पता नहीं क्या है आस्थावानों की श्रद्धा बढ़ती ही जाती है। यह 'बड़े' धार्मिक स्थल ऐसे ही तो बड़े बनते जाते है।
'इतने विशाल मात्रा में चढ़ावे होते है कि उन्हे व्यर्थ फैकना भी पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है।'
Deleteइतने विशाल मात्र में चढ़ावे आते हैं फिर भी, भारत के गरीब बच्चे भूख से बिलबिलाते हैं ??
ऐसे चढ़ावे ही हम क्यों चढ़ाते हैं जिसको रीसाईकिल करने की ज़रुरत होती है? वही नारियल, चढ़ाए हुए फल-मिठाईयाँ गरीबों को क्यों नहीं बांटे जाते। वो वापस वहीँ क्यों पहुंचा दिए जाते हैं जहाँ से खरीदे गए थे। क्यों नहीं इन चढ़ावों का उपयोग ग़रीब, दुखी, पराश्रित का पेट भरने के लिए किया जाता है ? क्यों हम जो आलरेडी धनिक है उसी की तिजोरी भरने में लगे हुए हैं।
चर्च, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे हम बड़े से बड़ा बनाते जा रहे हैं, और गरीबों के सिर से छत छूटती जा रही है। नहीं लगता कि विशाल धार्मिक स्थलों की नहीं निशुल्क स्कूलों, निशुल्क अस्पतालों, अनाथालयों की ज्यादा ज़रुरत है ?
मानव द्वारा पैदा किया गया व्यर्थ ठिकाने लगाने के लिए ईश्वर प्रदत्त नदियों का दुरूपयोग सही नहीं है। पानी नहीं रहेगा तो पेट्रोल नहीं पिया जा सकता। हम अपने बच्चों को जो मुसीबत देकर जा रहे हैं, उसके लिए आने वाली पीढियाँ 'पानी पी पी कर कोसेंगी' ये भी नहीं कह सकते हम, क्योंकि पानी होगा ही नहीं :)
शिवालयों पर शिवलिंग पर दूध की धार होती है।
Deleteमंदिर की सीढीयों पर भूखे बच्चों की चीत्कार होती है।
कैसी हमारी पूजा है ये, कैसी है ये भक्ति ?
भगवान् के घर के बाहर, इन्सानियत दरकिनार होती है
भूखे ही बैठे रह जाते हैं भगवन सीढ़ियों पर,
और नालियों में दूध-दही मेवा की भरमार होती है!
मन्दिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में जो भी होता है, उन्हें आप धार्मिक अनुष्ठान कह सकते हैं, लेकिन पूजा का वास्तविक अर्थ यह है :
Deleteयेनकेन प्रकारेण यस्य कस्यपि देहिन |
संतोष जनयेद्राम तदेश्वर पूजनम् ||
किसी भी प्रकार से किसी भी देहधारी को संतोष प्रदान करना - यही वास्तविक पूजा है;
निराश्रित को आश्रय, अज्ञानी को ज्ञान, वस्त्रहीन को वस्त्र, भूखे को भोजन, प्यासे को पानी,
निर्बल की रक्षा, भूले भटके को सही राह, दुखी को दिलासा, बड़े-बुजुर्गों की सेवा, रोते हुए को आश्वासन, थके हुए को विश्राम, निराश को आशा, उदास को खुशी, रोगी को दवा, निरुद्यमी को उद्यम में लगाना, अधर्मी को धर्म की राह पर मोड़ना, तप्त को शांति, व्यसनी को व्यसन-मुक्त बनाना, गिरे हुए को उठाना, दीन-दुखी, अनाथ, निर्बल की सहायता करना, निराधार का आधार बनना, अपमानितों को मान देना, शोक-ग्रस्त को सांत्वना देना, अर्थात जहाँ जिसको जिस समय जैसी आवश्यकता हो, उसे यथा-शक्ति मदद करना ही पूजा है।
http://forum.spiritualindia.org/
1)इतनी पैदावार होती है,अनाज गोदामों में सडता है,भारत के गरीब बच्चे भूख से बिलबिलाते हैं
Delete2)प्रसिद्ध धर्मस्थलों की अधिकांश आय का हिस्सा स्कूलों,अस्पतालों,अनाथालयों और सेवाकार्यों के अनुदान में जाता ही है.
3)पानी पेड पर्यावरण पर चेतना के प्रयास चलते ही है.
4)'दुखिया सब संसार मेँ' शिवलिंग पर दूध की धार चढाने वालों में अधिकांश अभावी ही होते है. कुछ सुख की कामना लिए प्रार्थना करते लोग.
5)"निराश्रित को आश्रय" आदि सब 'सेवा' है,लाक्षणिकता से सभी को पूजा समझा जा सकता है.
अगर आपका इशारा पश्चिम की तरफ है तो आपको बता दूँ, सिर्फ भारत ही एक देश नहीं है, दुनिया में और भी देश हैं, जहाँ पश्चिम से बहुत कुछ भेज जाता है :) वैसे भी अपना घर अपने बूते पर चले तो अच्छा है :)
Deleteबाकी तो आपके हिसाब से सब कुछ परफेक्ट चल रहा है, कहीं कोई कमी नहीं है, फिर भी गंगा मैली, जमुना विषैली और सरस्वती गयली :)
अभी तक 'चेतना' ही जगाने में लोग लगे हुए हैं। मुझे नहीं लगता कि चेतना, भावना, कल्पना के लिए टाइम है भारत और भारतीयों के पास। जाने कब ये चेतना जागेगी और प्रेरणा बनेगी, क्योंकि तब तक तो कोई काम-ना होने का।
पिछले पचास साल में ही सारे जंगल गायब हो गए, जिससे बारिश कम हो रही है। नदियाँ सूख गयीं हैं इसलिए सिंचाई नहीं हो सकती। नदियों के पाटों में अब कोलोनियाँ बन रहीं हैं। हर प्रान्त में पानी का स्तर नीचे चला गया है। जो भारत अनाज के मामले में आत्मनिर्भर था, वही भारत अब अनाज आयात करने लगा है। भारत के किसानों के पास सिर्फ एक ही सुविधा बाकी रह गयी है, आत्महत्या कर लेने की, बाकी कोई सुविधा भारत की सरकार मुहैय्या करवा ही न पा रही क्योंकि वो सक्षम है ही नहीं।
आभाव ग्रस्त अगर अपने बच्चों के मुंह से दूध छीन कर महादेव पर चढ़ा रहे हैं तब तो और भी दुखद है ये। दूध चढ़ाने को डिस्करेज करना चाहिए, और सच्ची श्रद्धा को बढ़ावा देना चाहिए। हर मंदिर में एक नोटिस लगना चाहिए, खाद्य पदार्थों का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए। नाली में इनको फेंकने के स्थान पर, एक जगह इकठ्ठा करना चाहिए और अनाथालय या गरीबों को दिया जाना चाहिए।
मेरा इशारा कोई पश्चिम की तरफ नहीं है, अनाज सडाते गोदाम भारत के ही है.सही कहा- अपना घर तो अपने बूते पर ही चलना चाहिए,पराई चुपडी पर क्या ललचाना. जिस थाली में खाते है उसमें ही छेद कैसे किया जा सकता है? मेरा इशारा इस तरफ था कि अव्यवस्था केवल धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं है प्रत्येक क्षेत्र में है,सरकारी स्तर पर,स्वास्थ्य में,शिक्षा के क्षेत्र में,कार्यपालिका में. कहाँ नहीँ है.
Deleteइसलिए कुछ भी परफेक्ट नहीं है, किंतु प्रयास हो रहे है, प्रयास की गति धीमी हो सकती है लेकिन जो हो रहा है उससे कैसे इंकार किया जा सकता है.हो सकता है भारतीय थोडे शिथिल हो, लेकिन अपना घर अपने अंदर से ही सम्हालने की कुवत है ही.
पर्यावरण,सिंचाई,उपज, किसान समस्या धार्मिक अंधश्रद्धा के कारण नहीं है, यही तो मैं स्पष्ट करना चाहता था कि अव्यवस्था हर क्षेत्र में है और भूख व कुपोषण का कारण केवल धार्मिक आस्थाएँ या रूढियाँ ही नहीं है.
बच्चों के मुंह से दूध छीने या न छीन कर भी चढ़ाए, दुखद तो है ही. खाद्य पदार्थ व्यर्थ नहीँ होना चाहिए. किंतु अभावी और दुखियारों के आँख व कान नहीं होते, जब दुखों से बाहर निकलने के लिए श्रम युक्त सारे प्रयास विफल होते है, सारे दरवाजे बँद नजर आते है तो बुद्धि को किनारे रखकर आस्था का अंतिम द्वार खटखटाते है.जब सभी तरह के उपाय बेकार जाते है,प्रारब्ध की किरण भी नजर नहीं आती, अंतिम उपाय मेँ आस्था के शरणागत होते है. अब आपके लेख में निर्देशित सारी समस्याओँ पर पाबंद करें भी तो कैसे, अभाव और दुख सोचने समझने की शक्ति ही छीन लेता है. दुखद तो यह भी है.
मेरी पोस्ट ध्यान से पढ़िए ...
Delete1950 के बाद से, गंगा और हुगली जैसी नदियों के किनारे, आबादी और उद्योग दोनों में ही नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है। दोनों नदियों के किनारे बसे नगरों के, नगर निगमों ने भी विषैले औद्योगिक अवशेषों और सीवेज की बहुत बड़ी मात्रा का रुख़, इन नदियों की ओर कर दिया। इन नदियों में कचरा प्रतिदिन 1 अरब लीटर तक समाहित होता है।
ये भी लिखा गया है। अगर सचमुच काम हो रहा होता तो पिछले साल से इस साल देश की हालत बेहतर होती, बदतर नहीं :)
क्या सम्हाल रहे हैं लोग, पानी नहीं, बिजली नहीं, गैस नहीं, अब तो भोजन भी बाहर से मंगाने लगे हैं :)
नहीं मानना है तो बात अलग है, लेकिन सच्चाई तो बस यही है :)
यह क्या? आपकी पोस्ट ध्यान से ही तो पढ रहा हूँ तभी तो प्रस्तुत भूमिका और उपसंहार के बीच क्या सम्बंध है, सूत्र खोजने के प्रयास कर रहा हूँ. ताकि समस्याओँ की जड तक पहूँचा जा सके. कनक्लूजन अंधश्रद्धाओं पर ही केंद्रित नहीं होना चाहिए था. और भी गम है इस गम के सिवा :)
Deleteफिर लगा यह सब गरीब के कारण है,किंतु उसे कैसे उल्हाना दें कैसे पाबंद करें,वह तो कहता है भूख के आगे मुझे कुछ नहीं सूझता!!
फिर मेरा निष्कर्ष गरीबी पर स्थिर हुआ, प्रत्येक अव्यवस्था का कारण यह गरीबी है, गरीबी ही उन्हें व्यवस्थाओं के साथ कदाचार करवा रही है.
इसी के कारण वे अल्प प्रयास सफल नहीं होते, हालात सुधरने की जगह बद से बदतर होते चले जाते है.
एक दीनानाथ थे. उन्हें सैंकडो एकड भूमि उपहार में मिली, किंतु उसके चारो ओर बाड बनाने के लिए गाँठ में दमडी नहीं थी. जाहिर है वे भूमि को सुरक्षित नहीं रख पाए. :)
@नहीं मानना है तो बात अलग है, लेकिन सच्चाई तो बस यही है :)
आप धमकी किसे दे रही है :) आई मीन नहीं मानने का आरोप लगा रही है....:) समस्या तो है, हालात बदतर है इस सच्चाई को लो स्वीकार किया. :) लेकिन समाधान क्या है?
आपने अजानते ही पश्चिम की ओर इशारा किया था, क्या हम सारे सवा सौ करोड कनाडा आ जाएँ? :)
यह क्या? आपकी पोस्ट ध्यान से ही तो पढ रहा हूँ तभी तो प्रस्तुत भूमिका और उपसंहार के बीच क्या सम्बंध है, सूत्र खोजने के प्रयास कर रहा हूँ. ताकि समस्याओँ की जड तक पहूँचा जा सके. कनक्लूजन अंधश्रद्धाओं पर ही केंद्रित नहीं होना चाहिए था. और भी गम है इस गम के सिवा :)
Deleteपोस्ट का शीर्षक है 'कुछ इधर-उधर की' तारतम्य ढूँढने की कोशिश मत कीजिये :)
अंध-श्रद्धा एक बड़ी समस्या है। अंध श्रद्धा का प्रतिफल है लाखों मूर्तियाँ बनना और उनका नदियों में विसर्जन, टनों फूल-पत्र का नदी में विसर्जन। परम्परा दूसरी समस्या है, जिसके अंतरगत नदी के तीर पर दाह संस्कार, अध् जली लाशों का नदियों में बहाना, मरे हुए पशुओं का नदी में बहाना। कभी बनारस, पूरी, पटना जाइये और देखिये।
फिर लगा यह सब गरीब के कारण है,किंतु उसे कैसे उल्हाना दें कैसे पाबंद करें,वह तो कहता है भूख के आगे मुझे कुछ नहीं सूझता!!
सिर्फ गरीब ये काम नहीं करते हैं। ये जितने नेता हैं, कभी उनके द्वारा किये गए महायज्ञों को देखिये। किस तरह से दूध मेवा मिष्टान्न का सदुपयोग होता है। सारे नेता काम कम यज्ञ ज्यादा करते हैं।
फिर मेरा निष्कर्ष गरीबी पर स्थिर हुआ, प्रत्येक अव्यवस्था का कारण यह गरीबी है, गरीबी ही उन्हें व्यवस्थाओं के साथ कदाचार करवा रही है.
गरीबी क्यों है ? क्या कमी है भारत में, फिर भी गरीब देश ? गरीबी इस लिए है क्योंकि अमीर को और अमीर बनाया जाता है, और उनको अमीर गरीब ही बना रहे हैं।
इसी के कारण वे अल्प प्रयास सफल नहीं होते, हालात सुधरने की जगह बद से बदतर होते चले जाते है.
एक दीनानाथ थे. उन्हें सैंकडो एकड भूमि उपहार में मिली, किंतु उसके चारो ओर बाड बनाने के लिए गाँठ में दमडी नहीं थी. जाहिर है वे भूमि को सुरक्षित नहीं रख पाए. :)
@नहीं मानना है तो बात अलग है, लेकिन सच्चाई तो बस यही है :)
आप धमकी किसे दे रही है :) आई मीन नहीं मानने का आरोप लगा रही है....:) समस्या तो है, हालात बदतर है इस सच्चाई को लो स्वीकार किया. :) लेकिन समाधान क्या है?
अगर आपको धमकी लगी तो इसमें हम कुछ नहीं कर सकते हैं। आप धमकी ही समझ लीजिये :)
आपने अजानते ही पश्चिम की ओर इशारा किया था, क्या हम सारे सवा सौ करोड कनाडा आ जाएँ? :)
बिलकुल आ जाइये, कम से कम दिमाग तो खुलेगा :)
सभी समस्याओं का एक ही निदान है, समस्या की जड़ को पकड़ना, और उसे ख़तम करना। कठोर कानून बनाना, और हर नागरिक को बाध्य करना कि उसे उसका पालन करना ही होगा और कोई रास्ता नहीं है। डेवेलोपड देश सिर्फ और सिर्फ इसी एक मन्त्र से डेवेलोप हुई है ...दूसरा और कोई विकल्प नहीं है
@ बिलकुल आ जाइये, कम से कम दिमाग तो खुलेगा :)
Deleteहम तो समृद्धि की कामना धरे आ रहे थे। किन्तु… ओह!! दिमाग वहां खुल जाता है। तब तो खुले पड़े दिमाग में अवश्य संक्रमण लग जाता होगा॥ :) :)
विकल्प तो वही है, बस सभी के अपने अपने हिस्से की कर्तव्यनिष्ठा में कमी ही समस्या है।
@ सिर्फ गरीब ये काम नहीं करते हैं। ये जितने नेता हैं, कभी उनके द्वारा किये गए महायज्ञों को देखिये। किस तरह से दूध मेवा मिष्टान्न का सदुपयोग होता है। सारे नेता काम कम यज्ञ ज्यादा करते हैं।
Deleteगरीबी क्यों है ? क्या कमी है भारत में, फिर भी गरीब देश ? गरीबी इस लिए है क्योंकि अमीर को और अमीर बनाया जाता है, और उनको अमीर गरीब ही बना रहे हैं।
इस पर कमेंट करना रह गया था… :)
नेता, सेलिब्रिटी और अमीर असल में इन कथित धार्मिक स्थलों, मान्यताओं के "मार्केटिंग मैनेजर" होते है। वे ही इनकी प्रसिद्धि फैलाते है। ये गरीब ग्राहक को घेरते है, उसके मानस को प्रभावित करते है। गरीब समझता है ये जो नेता, सेलिब्रिटी और अमीर आज सफल है, ऐश्वर्यशाली है, समृद्ध है वह इन्ही से माँगी मन्नतों का परिणाम है। संसार के अजब गजब सांयोगिक दुखों से त्रस्त गरीब इन 'एम्बेसैडरों' को देख सहज ही ढ़ल पडता है।
मैं जहाँ रहती हूँ, वहाँ बिलकुल भी पोल्यूशन नहीं है। यहाँ आपके दिमाग को ताज़ी खुली हवा लगेगी तो आज तक का सारा संक्रमण दूर हो जाएगा :)
Delete'रूल्स' ही रूल कर सकते हैं, कानून सख्त जब तक नहीं होगा, भारत में तो कर्तव्य समझ कर कोई पालन नहीं करने वाला।
दशहरे, गणपति, सरस्वती पूजा, इत्यादि मैं, लाखों मूर्तियाँ न बने, हर शहर में कुछ मूर्तियाँ की ही स्थापना हो। रांची, बिहार में न जाने कितने क्लब और संस्थाएं बने हुए हैं सिर्फ और सिर्फ इसी तरह की पूजा के लिए। इन पूजाओं के नाम पर क्या क्या होता है इसपर भी एक आलेख लिखूंगी। पूरी रंगदारी होती है। गुंडे-मवाली पूजा करते हैं, हर घर से पैसा उघाया जाता है वो भी जबरदस्ती। और उस पैसे का कोई हिसाब किताब नहीं मांग सकता। दारु गांजा, मांस सब खाया पिया जाता है उसी पूजा स्थल में। कितने तो उसी पैसे से बन जा रहे हैं। ऐसी संस्थाओं पर अंकुश होना चाहिए। मूर्तियों में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थों पर सख्ती हो, उनके विसर्जन की व्यवस्था हो।
हर शहर में शव दाह गृह हो। चिता में शव जलाना बिलकुल बंद हो। वैसे भी अब जंगल बहुत कम रह गए हैं। आप सोच कर देखिये, प्रतिदिन कितने पेड़ ख़तम हो रहे हैं, सिर्फ चिता जलाने में और नदी के तट पर यह काम होने से नदियों पर इसका असर तो होता ही है। हमारे शहर में ही एक नदी थी 'हरमू' अब वो नाला भी नहीं रही सिर्फ इसी काम की वजह से।
इसके लिए कानून बनाना कोई मुश्किल काम नहीं है। बहुत आसानी से कानून बन सकते हैं और सख्ती से लागू हो सकते हैं। नहीं मानने वाले को बहुत बड़ा जुर्माना ठोक दिया जाए। देखिये कैसे कुछ ही सालों में हम जंगल और नदियों पर काबू पा लेंगे। लेकिन कानून बनाना ही होगा।
संक्रमण तो खुली हवाओं के साथ ही बहते आते है, कभी भी कैसे भी। ज्यादा भरोसा अच्छी बात नहीं है। क्योंकि किसी भी वातावरण को अछूता कहना अतिश्योक्ति है। संक्रमण होना सच्चाई है, संक्रमण से वे ही बचने में समर्थ है जिनकी प्रति्रोधक क्षमता प्रबल है। अतः हमारा दिमाग जब तक क्वच में नियंत्रित है, सुरक्षित है। और प्रतोरोधक क्षमता मजबूत होगी तो,कहीं भी समस्या नहीं है। :)
Delete@ कानून सख्त जब तक नहीं होगा, भारत में तो कर्तव्य समझ कर कोई पालन नहीं करने वाला।
Deleteअगर भारत में कहीं कर्तव्यनिष्ठा ही नहीं है (जैसा आपने कहा) तो सख्त कानून बनाने वाले, उन्हे सख्ती से लागू करने वाले,जुर्माना वसूलने वाले कर्तव्यनिष्ठ भी कहां से आएंगे?
आपको बातों का मर्म समझ में नहीं आता, जब आप जैसे पढ़े लिखे ही बात नहीं समझ पाते तो .... :)
Deleteमैंने जो भी अपनी पोस्ट में लिखा है, अगर उसमें कोई गलती है तो वो बताइये ..शब्दों को न पकडें :)
अगर बातों का मर्म शब्दों से भिन्न है तो वाकई मुझे समझ में नहीं आता। :)
Deleteयदि भिन्न दृष्टिकोण बनता है तो व्यक्त मात्र करता हूँ बस अपनी समझ के अनुसार्। आपको परेशान करना मेरा उद्देश्य नहीं है। तर्क वितर्क में आनन्द अवश्य आता है लेकिन वे समझ में आए तो ही उनकी सार्थकता है। बहुत बहुत आभार!!
dhanywaad !
Deletesaarthak lekh...
ReplyDeleteधार्मिकस्थलों पर तो भगवान भी पंडों का बंधक होता है, उसके भक्तों की तो हस्ती ही क्या.
ReplyDeleteवन हंड्रेड परसेंट एग्रीड :)
Deleteजहाँ हम कृपा के लिये जाते हैं, व्यवस्था के बारे में सोचते ही नहीं, पता नहीं ईश्वर वहाँ प्रसन्न कैसे रह लेते होंगे, रोचक तथ्य।
ReplyDeleteनहीं सोचते हैं, इसलिए ठीक-ठाक है। सोचने लगे तो पागल क़रार दिए जायेंगे :)
Deleteउन्होंने ज़बरदस्ती, उर्सुला और माधुरी से भी, उनके पुरखों के लिए पिण्ड-दान करवा ही दिया, जबकि वो दोनों ही ईसाई हैं। भगवान् जाने उन पण्डों ने उर्सुला और माधुरी के कुल, गोत्र की समस्या कैसे हैंडल किया होगा।ज़रूर होगा उनके पास कोई न कोई शोर्टकट, आई एम श्योर :) । उससे भी बड़ी बात हमको जो सताती है, बेचारियों के पुरखों का क्या हाल हुआ होगा .....................हा हा हा हा ही ही ही हु हु हु।
ReplyDelete....................बहुत आनन्द आया आपकी यह पोस्ट पढ़ कर। बाकी सब से तो मैं परिचित था, पर भुट्टे वाले प्रसंग ने तो मुझे भी जैसे आसमान से सीधे भुट्टे के पेड़ पर गिरा दिया! जानकारी से पूर्ण। धर्म के नाम पर उत्पन्न हुईं समस्याओं पर उल्लेखनीय विचार प्रवाह।
भुट्टे वाले प्रसंग के बाद तो मुझे कहीं भी भुना हुआ भुट्टा खरीदने में डर लगता है। जान कर अच्छा लगा तुम्हें पसंद आया आलेख ।
Deleteआपसे प्रार्थना है कि इस प्रसंग की विसंगतियों के प्रभाव में भुट्टे खाना न छोड़ें। घर पर कोयला मंगाएं और घर पर भूने पर खाएं जरुर। निश्चय ही आपकी यह पोस्ट अतिमहत्वपूर्ण है। प्रसंगों के बहाने धार्मिक कुरीतियों का वर्णन और अंत में विडंबना पर चुप्पी।
Deleteतभी तो कहा मैंने, भुने भुट्टे ख़रीदने से डरती हूँ, भुने भुट्टे खाने से नहीं। विसंगतियों पर अगर चुप्पी होती तो इस पोस्ट का जन्म ही कैसे होता :)
Deleteइस विडंबना की विडंबना यही है 'चुप्पी' :(
Deleteधार्मिक कुरीतियों की विडंबना पर आपकी हमारी उदासी वाली चुप्पी।
Delete:(
Deleteएक और बात जोडती हूँ ये जो बर्फ" गोला " ठेलो पर मिलती है जो बर्फ की सिल्लियों पर शव रखे जाते है वह बर्फ बहुत सस्ते दामों में मिल जाती है (सब ऐसे नहीं होंगे ठेले)?
ReplyDeleteमैंने दो बार भागवतजी है बार सुनी है किन्तु कही उल्लेख नहीं है की भगवान को भेंट दोगे तो भगवन प्रसन्न होंगे भगवन तो केवल प्रार्थना स्तुति से आपके होते है ,किन्तु भगवन के तथाकथित अपने को अवतार बताने वालो ने उद्योग बना दिया भक्ति को ,
आस्था को ,ध्यान को ,विश्वास को ।
बहुत अच्छा आलेख ।
शोभना दी,
Deleteलीजिये आपने भी एक बात और जोड़ दी। बाप रे अब तो बरफ का गोला भी खाना बंद हुआ मेरा।
आपकी बात सोलह आने सही है। मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि आपने गीता का ज़िक्र किया है। भगवान् को खुश करने के लिए कुछ भी चढ़ाने का कोई मतलब ही नहीं बनता। अगर भगवान् खुश होते हैं तो सिर्फ सद्कर्मों से।
आपका आभार !