आज कल रांची के बाज़ारों में भीड़ ठसा-ठस है, तिल धरने की भी जगह नहीं मिलती है, लेकिन त्रासदी ये हैं कि दुकानदार खाली बैठे, झख मार रहे हैं । जगह-जगह पंडाल बन रहे हैं, कहीं दीयों से तो कहीं मोतियों से । शारदीय नवरात्र में नव दुर्गा की विशालकाय प्रतिमाएँ अपने सह-देवताओं के साथ, बड़े-बड़े पंडालों में स्थापित हो गईं हैं । पंडालों में प्रवेश पाने के लिए तोरण-द्वार भी जगह-जगह बन गए हैं ।बेशक गेटों को गेटप देने के चक्कर में सडकों को बेरहमी से खोद कर रख दिया गया है। जो शायद अगले कई वर्षों तक बने ही नहीं, लेकिन उससे क्या फर्क पड़ता है, सडकें सही तरीके से कब बनतीं हैं भला ! और फिर आम नागरिक को अच्छी सड़कों पर चलने की आदत भी तो नहीं हैं ।
सड़क पर निकलते ही भीड़ का रेला, दूर से दुर्गा पूजा की गहमा-गहमी जैसा ही लगता है, लेकिन आर्थिक मंदी की मार-फटकार अधिकतर चेहरों पर नज़र आती है। मध्यमवर्गीय, और निम्नवर्गीय तबका, थका-हारा, परेशान-हाल ही नज़र आता है। और फिर त्यौहारों की भरमार भी तो इतनी है कि त्यौहार मना-मना कर लोग हलकान दिखते हैं। दुकानों में भी वो रौनक नहीं है, जो कभी हुआ करती थी। तो कुल मिला कर बात ये हुई कि दुकानें बदहाल हैं और दुकानदार से लेकर खरीददार तक, सब बेज़ार नज़र आते हैं।
पाँच हज़ार महीना वेतन पाने वाला विनोद, आज अपनी व्यथा कथा सुना रहा था। कह रहा था, दीदी इस तीज में मेरे ४००० रुपये खर्च हो गए, नई साड़ी, मेहँदी, सारे साज-सिंगार और छप्पन-भोग बनना ही था। जिउतिया में ३००० खर्च हो गए, १५० रुपैये सतपुतिया और ग्यारह तरह की सब्जियाँ, उपवास करने वाली अगर न पकाए-खाए तो कैसी जिउतिया भला ? अब दशहरा भी आ गया, फिर दीवाली, भाई-दूज और फिर छठ। कैसे मनायेंगे हम इतने त्यौहार। उसकी इन बातों ने मुझे भी कुछ सोचने और लिखने पर मजबूर कर दिया। देख रही हूँ आजकल, कर्म-काण्डों में जमकर बढ़ोतरी हुई है, और उतना ही चारित्रिक पतन भी हुआ है। हमारे झारखण्ड में जो जितना बड़ा गुंडा होता है, वो उतना ही बड़ा यज्ञ करवाता है। दुर्गा पूजा के नाम पर घर-घर जाकर या गाड़ियां रोक-रोक कर चन्दा लेना आम नज़ारा है झारखण्ड में। मना करने पर मिनटों में चन्दा मांगने वालों को गुण्डई पर उतरते भी देखा है। माँ दुर्गा के पंडाल में प्रतिमा की नाक के नीचे बैठ कर जम कर दारु और मुर्गा भक्षण हर रात करते हैं ये तथाकथित भक्तगण, जो घोषित गुंडे हैं.. सच पूछा जाए तो अधिकतर त्यौहार कुछ असामाजिक तत्वों के लिए अनैतिक कमाई करने के सुअवसर प्रदान करते हैं, ख़ास करके झारखण्ड और बिहार में।दुर्गा पूजा के दस दिन पंडितों के लिए भी बहुत मायने रखते हैं। हर यजमान से मनमानी रक़म वसूलना, धर्म का भय दिखा कर ज्यादा से ज्यादा कर्म-काण्ड करवाना, और अंधाधुन्द पैसे वसूलना, ये आज के पंडितों की फितरत हो गई है । सचमुच हैरानी होती है देख कर, ये कैसी पूजा-अर्चना है? और क्या सचमुच यह पूजा, देवी को स्वीकार्य होती होगी ??
दूसरी ओर बाज़ारवाद की हवा तेज़ हुई है, हर त्यौहार के लिए रोज़-रोज़, नए-नए परिधानों और विधि-विधानों का आविष्कार होता जा रहा है। नए-नए झाड-फ़ानूसों से बाज़ार लद्ते जा रहे हैं, जिसे न चाहते हुए भी, एक आम हिन्दू जो स्वाभाव से ही धर्मभीरु होता है, अपनाता जाता है। वो मीडिया और बाज़ार की मिलीभगत से रचे गए इस चक्रव्यूह में फंसता जाता है, और रोते-पीटते अपनी अंटी ढीली करता जाता है। पहले त्योहारों के आने से कितनी ख़ुशी होती थी, लेकिन अब ये त्यौहार एक ओर लोगों के लिए महज दिखावा दिखाने के अवसर बन कर रह गए हैं, दूसरी ओर बाजारों के लिए बिजिनेस ओपोर्चुनिटी और तीसरी ओर असामाजिक तत्वों के लिए रंगदारी उठाने का सुनहरा अवसर। आम आदमी की ज़िन्दगी से खुशियाँ नेस्तनाबूत होती जा रही है और जो उसके पास बाकी बच रहीं हैं, वो हैं चिंता, परेशानी और कई बार, कुछ लोगों के लिए 'क़र्ज़' का बोझ ।
त्यौहार, आते रहने चाहिए, मनते भी रहने चाहिए, लेकिन इन्हें ढोंग, गुंडई से परे और आम इंसान की ज़ेब की ज़द से बाहर नहीं होना चाहिए।
बात तो सही है, दिखावा बढ़ता ही जा रहा है और लोगों में अब पहले सा उत्साह भी नज़र आता.
ReplyDeleteदुर्गापूजा के साथ साथ अब तो देशभर में डांडिया भी खेले जाने लगे हैं (आज ही रांची से एक कजिन ने फेसबुक पर तस्वीर डाली है , चनिया-चोली और डांडिया वाले जेवरातों में सजी धजी लडकियां बिलकुल किसी गुजरात के शहर की लग रही हैं ) ऐसे ही गणपति पूजा भी अब हर शहर में होने लगी है. दुसरे शहरों के तीज त्यौहार को अपनाना एक अच्छी शुरुआत है पर अफ़सोस है कि यह सिर्फ तड़क-भड़क और दिखावे तक ही सीमित रह जाता है.
आपकी यह रचना कल बुधवार (09-10-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 141 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteएक नजर मेरे अंगना में ...
''गुज़ारिश''
सादर
सरिता भाटिया
आपका हृदय से आभार !
Deleteयह ढ़ोंग ही अब इन पांडालों की और आकर्षित नहीं करता है.. यह गुंडई अब हर जगह फ़ैल चुकी है..
ReplyDeleteजो मनुष्य अपनी आमदनी से कम खर्च करता है उसके पास पारस-पत्थर है ।
ReplyDeleteBehatarin post sankalan yogy
ReplyDeleteअच्छी बात है। पर संभलना तो लोगों को ही पड़ेगा।
ReplyDeleteहमारे हर त्यौहार बाजारवाद की भेंट चढ़ गए -सब अर्थतंत्र है ! उनकी शुचिता सहज आनन्द सब गायब !
ReplyDeleteथान्कू :):)
ReplyDeleteबिहार में रास्ता रोक कर जबरन चन्द वसूलने वालों के अनगिनत किस्से याद है , बच निकलने के फेर में कई दुर्घटनाएं हो जाती है।
ReplyDeleteपूजा पाठ के लिए श्रद्धा और मन की निर्मलता की आवश्यकता है , ना कि दिखावे की।
टीवी पर एक कार्यक्रम देखा था करवाचौथ का , एंकर पूछ रही थी कैसी तैयारी चल रही है , जवाब मिला --- नयी ड्रेस तैयार है , कल ब्यूटीपार्लर का समय पहले से ले रखा है , उसने पूजन की सामग्री के लिए पूछा तो याद नहीं आया :)
सहजता और सरलता से भी मन का उत्साह व प्रसन्नता व्यक्त की जा सकती है।
ReplyDeleteये 'पहले' और हमारे समय' वाले जुमले हमें कुछ जमते नहीं . पता नहीं ये कौनसा सिंड्रोम है .. पर कम्बखत है भयंकर वाला . भगवान् हमें इससे बचाए रखे !
ReplyDeleteइस सिंड्रोम से तो आपको भगवान् भी नहीं बचा सकते :)
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