मामून कहीं रह जाऊँ, अब वो हाजत नहीं रही
ये दामन कहीं बिछ जाए, मुझे आदत नहीं रही
जिस्मों में ग़ैरों के भी यहाँ लोग जी लेते हैं
हमको तो ख़ुद से भी अब, निस्बत नहीं रही
सलवटें आँखों पे, और माथे पे हैं पेचीदगियाँ
बुझती शक्लों को आईने की ज़रुरत नहीं रही
यूँ तो कई जन्मों के हैं, तेरे-मेरे मरासिम
इक लम्हा मुझे मिलने की तुम्हें फुर्सत नहीं रही
सलवटें आँखों पे, और माथे पे हैं पेचीदगियाँ
बुझती शक्लों को आईने की ज़रुरत नहीं रही
यूँ तो कई जन्मों के हैं, तेरे-मेरे मरासिम
इक लम्हा मुझे मिलने की तुम्हें फुर्सत नहीं रही
गुजरेंगे अब चार दिन 'अदा' पूरे अज़ाब में
कोई आरज़ू हो तो अब कोई मोहलत नहीं रही
मामून=सुरक्षित
हाजत=इच्छा/तमन्ना/ज़रुरत
निस्बत=सम्बन्ध
मरासिम=रिश्ता
अज़ाब=ख़ुदा का क़हर
बहुत ही उम्दा गजल....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...।
ReplyDeleteयूँ तो कई जन्मों के हैं, तेरे-मेरे मरासिम
ReplyDeleteइक लम्हा मुझे मिलने की तुम्हें फुर्सत नहीं रही ...
गज़ब का शेर है इस गज़ल का ... हकीकत बयान है इस शेर में जीवन की ...
गहरी बातों से युक्त गजल।
ReplyDeletebehtareen!
ReplyDeleteइतने अच्छे शेर लिख कैसे लेती हैं आप
ReplyDeleteऔर फिर भी कभी शायरा नहीं कहलाईं
दीपावली पर्व की हार्दिक बधाई शुभकामनाएं ....
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल
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