तेरा जमाल मुझे क्यूँ, हर सू नज़र आए
इन बंद आँखों में भी, बस तू नज़र आए
सजदा करूँ मैं तेरी, कलम को बार-बार
हर हर्फ़ से लिपटी मेरी, आरज़ू नज़र आए
गुज़र रही हूँ देखो, इक ऐसी कैफ़ियत से
ख़ामोशियों का मौसम, गुफ़्तगू नज़र आए
फासलों में क़ैद हो गए, ये दो बदन हमारे
पर उफ़क से ये ज़मीं क्यूँ, रूबरू नज़र आए
वो संदल सा गमके 'अदा' और कुंदन सा दमके
वो संदल सा गमके 'अदा' और कुंदन सा दमके
उसकी बेक़रार सी आँखें, क्यूँ पुर-सुकूँ नज़र आये
उफ़क= क्षितिज
जमाल=खूबसूरती
कैफ़ियत= मानसिक दशा
गुफ़्तगू=बातचीत
रूबरू=आमने-सामने
जमाल=खूबसूरती
कैफ़ियत= मानसिक दशा
गुफ़्तगू=बातचीत
रूबरू=आमने-सामने
दीदी
ReplyDeleteशुभ प्रभात
वो......
संदल सा गमके
'अदा'
और कुंदन सा दमके
सादर
उसकी बेक़रार सी आँखें, क्यूँ पुर-सुकूँ नज़र आये
बहुत ही सुन्दर, एक स्तर ऊँचा निकला जा रहा है पर, अब बुढ़ापे में उर्दू कहाँ से सीखें।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ....!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (12-10-2013) को "उठो नव निर्माण करो" (चर्चा मंचःअंक-1396) पर भी होगी!
शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Bahut Khoob Likha Aapne, Hum Aapke Abhari Hain, Hume Kavityen Padhne Ka Shuak Bachpan Se Hi.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत
ReplyDeleteगुज़र रहे हैं अजब मरहलों से दीदाओ दिल
सुबह की आस तो है ज़िन्दगी की आस नहीं
bahut sundar rachana...
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल
ReplyDeleteकिस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
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