क्यों तुझसे इतनी, मुहब्बत है मुझे
इक इसी बात की, झंझट है मुझे
कहाँ छूटेगी लत, शौक़-ए-इबादत की मेरी
ज़बीं पटकने की अब, आदत है मुझे
ये कौन बस गया दिल के हरएक आईने में
लिल्लाह तमाशा न हो, ये दहशत है मुझे
इस तक़दीर का अंजाम जो हो, देखा जाएगा
अज़ार-ओ-ज़ीस्त से ही, कब राहत है मुझे
खामोशियों की भीड़ ही, अब लगती है भली
गर्द-ए-हंगामों से बड़ी, वहशत है मुझे
तेरी नज़रों में जुम्बिश भी है, और ईमाँ भी
फ़क्त प्यार भरे दिल की, ज़रुरत है मुझे
दिन चार हैं 'अदा', रुख़सती चार काँधों पर
मिली चार दिन की ही, शब-ए-फुरक़त है मुझे
शौक़-ए-इबादत=पूजा करने का शौक़
ज़बीं=माथा
अज़ार-ओ-ज़ीस्त= बीमार शरीर
गर्द-ए-हंगामों = हंगामों की धूल
जुम्बिश=गति, ऊर्जा
ईमाँ = ईमानदारी, सत्यवादिता
शब-ए-फुरक़त=जुदाई की रात
ReplyDeleteतेरी नज़रों में जुम्बिश भी है, और ईमाँ भी
फ़क्त प्यार भरे दिल की, ज़रुरत है मुझे
चलो एक बेसब्र को सब्र तो मिला -जोरदार पहले की ही गहराई लिए हुए !
किसी ग़लतफ़हमी में ना रहे ज़नाब, ना कोई बेसब्र है ना कहीं कोई सब्र है :)
Delete:)
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
ReplyDeleteachchhaa likhaa hai ji
ReplyDeletekarwaa chauth ki haardik shubhkaamnaayein aapko