हमारे पड़ोस में रहते थे धनपति रामसिंहासन पाण्डेय ...दो बेटियाँ ..एक बेटा....संजय...
बेटियों की शादी हो चुकी थी बड़े-बड़े घरों में....कभी कभार आती थी वो
दोनों...उनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हुए कुछ वर्ष हो चुके थे...
बात
हम करते हैं संजय की....संजय हमसे उम्र में बहुत बड़े थे हमलोग भईया कहते
थे उन्हें...उनकी शादी हो चुकी थी शीला भाभी से और उनका भी एक बेटा था
विशाल.....शीला भाभी को मैंने कभी भी जोर से बोलते नहीं सुना था...हर वक्त
उनके सर पर आँचल हुआ करता था...हम लोग दौड़ कर उनसे लिपट जाते, तो अपने हाथ
से हमेशा मेरे बाल सहलाया करती थी....वो शाही टुकड़ा बहुत अच्छा बनाती
थी....जिस दिन भी उनके घर बनता था, एक कटोरी में मेरे लिए ज़रूर भेज देतीं
थीं....
संजय भईया..अच्छे खासी पर्सनालिटी के मालिक थे ..६ फीट
उंचाई, गोरा रंग, भूरी आँखें और रोबदार चेहरा.... एक तो अकेले बेटे उसपर
से अपार संपत्ति....कभी न पढ़े-लिखे, न ही कभी...कुछ काम
किया...ज़रुरत ही नहीं पड़ी.....बस दिन भर दारू पीना और और महफ़िल सजाये रखना,
घर पर दोस्तों की या फिर टनडेली करना....
कहते हैं न, शुरू में आप
शराब पीते हैं, फिर शराब आपको पीती है...संजय भईया भी कहाँ अपवाद
थे....होते-होते शराब ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया...उनको लीवर सिरोसिस
हो गया और ६ फीट का आदमी ४ फीट का कैसे हो जाता है, यह मैंने तभी देखा
था....खूबसूरत बदन हड्डियों का ठठरी हो गया था.....शीला भाभी ने अपनी
आँखों की नींद को, अपने पास महीनों नहीं फटकने दिया....आँचल पसार-पसार कर
सारे व्रत कर गयी थी वो....लेकिन भगवान् को तो अपना काम करना था .....सो एक
दिन संजय भईया को इस दुनिया से जाना ही पड़ा...शीला भाभी और विशाल को छोड़
कर....अब घर में मात्र शीला भाभी, विशाल जिसकी उम्र २-३ वर्ष कि थी और
पाण्डेय जी रह गए.....
एक दिन की बात है, शीला भाभी हमारे घर, सर पर
आँचल रख कर धड-फड करतीं हुई आई और भण्डार घर में छिप गयीं...मैं बहुत छोटी
थी, मुझे बात समझ नहीं आई.....मैंने सिर्फ इतना देखा कि वो बहुत रो रहीं थीं,
और मेरी माँ से कहती जातीं थीं, कि हम नहीं जायेगे ..आपलोग हमको कैसे भी करके, यहीं
से मेरे मायके भेज दीजिये.....बाहर पाण्डेय जी ने हाहाकार मचाया हुआ था, कि
उसको भेजो बाहर.....पाण्डेय जी का वर्चस्व और यह उनकी बहु की बात...कौन
भला इसमें टांग अडाता.....आखिर, शीला भाभी को जाना ही पड़ा ...कोई कुछ
भी नहीं कर पाया ....
इस बात को गुजरे शायद २५-२६ साल भी हो गए
होंगे....और मुझे इस बात को समझने में इतने ही वर्ष लग गए .. मैं जब भी
भारत जाती हूँ ..ज्यादा से ज्यादा ५ हफ्ते ही रह पाती हूँ...समय इतना कम होता इसलिए कभी भी शीला
भाभी से मिलना नहीं हुआ....पिछले वर्ष किसी कारणवश मुझे पूरे ६ महीने रहना
पड़ा....
एक दिन, मैं किसी होटल से माँ-बाबा के लिए कुछ खाना बंधवा
रही थी..काउंटर पर खड़ी थी कि अचानक किसी ने मेरे पाँव छुए....खूबसूरत सा
नौजवान था...कहने लगा बुआ आप हमको नहीं पहचान रहे हैं लेकिन हम आपको पहचान
गए....मैंने वास्तव में उसे नहीं पहचाना ....कहने लगा हम विशाल हैं
बुआ...संजय पाण्डेय के बेटे.....मुझे फिर भी वक्त लगा.....आपकी शीला
भाभी...वो मेरे दादा रामसिंहासन पाण्डेय....एकबारगी मैं ख़ुशी के अतिरेक
में चिल्लाने लगी...ज्यादा परेशानी नहीं हुई क्यूंकि लगभग सब मुझे वहां
जानते ही थे....मैंने कहा अरे विशाल !! तुम इतना बड़ा और इतना हैंडसम हो
गया है......माँ कैसी है तुम्हारी ?? अच्छी है बुआ ...आपके बारे में अक्सर
बात करती है....चलिए न बुआ घर...माँ से मिल लीजिये.... बहुत खुश हो
जायेगी.....मेरा मन भी एकदम से शीला भाभी से मिलने को हो गया.....अरे विशाल
घर पर माँ-बाबा को इ खाना पहुँचाना है...आज उलोगों को बाहर का खाना खाने
का मन हुआ है.....उ लोग आसरा में बैठे होंगे.....वो बोला ..हाँ तो कोई बात
नहीं बुआ....चलिए उनको खाना खिला देते हैं, फिर हम आपके साथ अपने घर चलेंगे
...हम भी मिल लेंगे दादा-दादी से.....चलो ठीक है.....उसके पास मोटर साईकिल
थी, उसी पर बैठ कर हम अपने घर आ गये...माँ-बाबा को खाना खिलाते खिलाते, ये भी
पता चल चल गया, कि अब रामसिंहासन पाण्डेय जी भी नहीं रहे.....विशाल ने MBA
किया है और किसी अच्छी सी कंपनी में अब नौकरी भी कर रहा है...माँ के हर सुख
का ख्याल रखता है...
माँ-बाबा को खाना खिला कर हम विशाल के साथ,
शीला भाभी से मिलने उनके घर गए.....घर बिलकुल साफ़ सुथरा...हर चीज़ करीने से
लगी हुई...संजय भईया की तस्वीर टंगी हुई थी दीवार पर ...चन्दन की माला से
सजी हुई....देख कर मन अनायास ही बचपन में कूद गया...माँ !! माँ !! देखो न
कौन आया है..?? देखो न !! अरे कौन आया है ?? बोलती हुई एक गरिमा की
प्रतिमा बाहर आई...मेरी शीला भाभी बाहर आयीं ...सफ़ेद साडी में लिपटी....सर
पर आँचल लिए हुए शीला भाभी ...उम्र की हर छाप को खुद में समेटे हुए ...शीला
भाभी खड़ी थी मेरे सामने....मुझे देखते ही...थरथराते हुए होंठों से
कहा...मुना बउवा अभी याद आया अपना भाभी का...?? .मैं भाग कर उनसे यूँ लिपटी
जैसे ...दो युग आपस में मिल रहे हों....आँखों से अश्रु की अविरल धारा रुक
ही नहीं पा रही थी...मैं उनसे ऐसे चिपकी थी जैसे उनका सारा दर्द सोख लेना
चाहती थी.....सामने दीवार पर टंगी तस्वीर में से, संजय भईया की आँखें मुझे देख रहीं थीं और मेरी आँखें उनसे
बस यही कह रहीं थीं....भईया कुछ आँचल तार-तार हो जाते हैं लेकिन मैला कभी
नहीं होते ..कभी नहीं !!!.
तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे....आवाज़ संतोष शैल और 'अदा' की...