Friday, May 4, 2012

अनावश्यक और अतिरिक्त....!!


चीकट हुई रजाई से,
झाँकती चीकट रूई ।
बिना खोल के,
चीकट तकिया,
बरसों पुरानी,
चीकट चादर ।
भूरे से धब्बे,
कितना गंधाते हैं,
अपनी विवशता बताते हैं ।
सामने दीर्खा पर,
अंग-भंग शंकर की मूर्ति,
टंगा है अलने पर,
मैला-कुचैला,
खद्दर का कुरता ।
ज़ेब में थोड़ी सी रेजगारी,    
टूल पर रखा,
टूटा सा चश्मा,
एक 'अनावश्यक' व्यक्ति
का कमरा,
कुछ ऐसा ही नज़र आता है । 
हर वक्त बताता है,
महसूस कराता है,
तुम, 'अतिरिक्त' हो ...!

भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाएँ...आवाज़ 'अदा' की ..