रुख़ को कभी फूल कहा, आँखों को कवँल कह देते हैं
जब जब भी दीदार किया, हम यूँ ही ग़ज़ल कह देते हैं
वो परवाना लगता है, और कभी दीवाना सा
जल कर जब भी ख़ाक हुआ, शम्मा की चुहल कह देते हैं
जब आकर खड़े हो जाते हैं वो, सादगी लिए उन आँखों में
वो पाक़ मुजस्सिम लगते हैं, हम ताजमहल कह देते हैं
लगता तो था आज नहीं, हम तो अब उठ पायेंगे
सीने में जो दर्द उठा, चलो उसको अजल कह देते हैं
कितने ही पत्थर क्या जाने हम पर बरसे आज 'अदा'
जिन्हें मंदिर की पहचान नहीं, वो रंग महल कह देते हैं
अजल=मौत
पिया ऐसो जीया में समाय गयो रे...आवाज़ 'अदा' की...
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