मनुष्य की आधारभूत,
भावनाओं पर,
चढ़ते-उतरते,
चढ़ते-उतरते,
नित्य नए,
पर्दों का नाम ही,
'संस्कृति' है,
समाज के, एक वर्ग के लिए,
दूसरा वर्ग,
सदैव ही 'असभ्य' और 'असंस्कृत',
रहेगा...
फिर क्यों भागना
इस 'सभ्यता और संस्कृति',
के पीछे...?
जहाँ तक 'सुरुचि' का प्रश्न है..
वो अभिजात वर्ग की,
'असभ्यता' का...
दूसरा नाम है..!!
और उसे अपनाना,
हमारी 'सभ्यता'...!!