उसकी प्रतिभा
दीवार से टेक लगा
ऊँघती रहती है,
कभी
लुढ़क वो सो भी
लुढ़क वो सो भी
जाती है,
लेकिन उसकी तक़दीर
किसी की मोहताज़ नहीं,
एक दिन
अँधेरे से निकल
खुशनसीबी आएगी,
तब उसे दलित, पीड़ित, उपेक्षित
नहीं कह पाओगे
उसे, उसके अधिकारों से
वंचित नहीं रख पाओगे
उपहास-परिहास
से हो गया विषाक्त मन उसका
लेकिन ग़नीमत समझो
अभी दाँतों में
अभी दाँतों में
विष नहीं उतरा है,
मन का विष भी
एक दिन उतर जाएगा
और फिर
मधुर मन से,
फूट जायेगी एक कविता,
या फिर एक गीत,
या शायद एक कहानी,
या एक पेंटिंग,
या फिर कुछ और...
या फिर एक गीत,
या शायद एक कहानी,
या एक पेंटिंग,
या फिर कुछ और...
और तब मिल जाएगा,
उसकी प्रतिभा को
उसका पुरस्कार.....
और अब एक ग़ज़ल ..मुझे बहुत पसंद है...