छी-छी..!
कितनी गन्दगी है...!
कितनी बदबू..!
कितनी बीमारियाँ..?
पूछते हो, ये कहाँ ले आई हूँ तुम्हें ?
अरे..!
ये है तुम्हारे देश का ही हिस्सा,
जहाँ..
काली बस्तियां हैं...
यहाँ, हर दिन,
ज़िन्दगी, आखें खोलती है,
कीड़े-मकोड़ों सी रेंगती है,
फिर खड़ी हो जाती है,
घुप्प अंधेरों में..
और..
बन जाती है,
बुनियाद,
तुम्हारे शहर की...
यहाँ की औरतों से ही चलता है,
तुम्हारे घर का,
चूल्हा-चौका...
इनके बेटे-बेटियों ने ही,
खड़ी कर दीं हैं ,
आलिशान इमारतें,
तुम्हारे शहर की...
यही तो चलाते हैं,
कल-कारखाने,
तुम्हारे शहर के...
यहीं क्यूँ रुकते हो ?
इन लोगों ने ही दे दिए हैं,
तुम्हारे देश को,
अजीब से नेता और
करिश्माई अभिनेता,
जिन्होंने,
तुम सबको दिया है,
सिर्फ...
ख़्वाबों का समंदर
और बातों के,
ख़ाली आसमान....
क्यों दे दिया तुमने इतना बोझ,
इनके कमज़ोर कन्धों पर..?
तभी तो,
तुम्हारा पूरा शहर,
हो गया है...
इतना कमज़ोर, गन्दा, बीमार,
और बदबू भरा....!
और अब एक गीत...