Friday, February 17, 2012

मकड़ा...!!



(कल एक परेशान ज़िन्दगी से मुलाक़ात हुई..जिससे मिल कर खुद को रोक नहीं पायी...ये कविता उसी के नाम )


हर बार..!
मेरे सामने ख़ामोशी का,
एक कुआँ खुद जाता है...
और हो जातें हैं,
चेहरे में कई सूराख़, 
जिनमें तुम, 
कुछ भी भर देते हो, 
और दे देते हो, 
एक शक्ल, मनमानी सी...
मैं सह जाती हूँ सब कुछ,
ये सोच कर, 
कि शायद तुम, इंसान बन जाओ,
क्योंकि सुना है...
सहनशीलता, सभ्यता लाती है ।
इसीलिए तो उम्मीद करती हूँ,
कि तुम अपना ये जंगल बदल लोगे....
वैसे, 
इस जंगल की कहानी
बड़ी दिलचस्प है,
यहाँ...
हाथी की पीठ पर शेर बैठा है,
और शेर के कंधे पर बकरी,
लेकिन बकरी के ऊपर 
बैठा है, 
एक नामुराद,
आठ पैरों वाला मकड़ा,
जिसके बुने जाल में,
सब फँस जाते हैं.....!