Sunday, January 26, 2014

धर्मांतरण का नशा....


कल एक डॉक्युमेंटरी फ़िल्म देखे 'Silence in the House of God', देख कर मन ऐसा खौराया कि कुछ लिखने का मन कर गया । कुछ और भी फ़ैक्ट देखना था इसलिए अंतरजाल की शरण में चले गए । गूगल में डुबकी लगा कर जो निकाल कर ला पाये हैं वही परोस रहे हैं, लेकिन जो तथ्य परोस रहे हैं उसकी सत्यता पर हमको रंच मात्र भी संदेह नहीं है, आप लोग भी जान लीजिये इन सफ़ेदपोशों की काली करतूतों के बारे में और हाँ अगर मौका लगे तो डॉक्युमेंटरी फ़िल्म Silence in the House of God ज़रूर देखें। इन फादरों द्वारा यौन शोषण के भुक्त भोगी, जो न सिर्फ छोटे-छोटे अबोध बच्चे थे, वो मूक-बधिर भी थे, जो अपनी व्यथा अपने माता-पिता से भी कहने की स्थिति में नहीं थे, उनकी हृदयविदारक आपबीती देख-सुन कर मन खिन्न हो गया है । :(:(

सन् 1999 की दीपावली का पर्व था, सम्पूर्ण भारतवर्ष दीपोत्सव मनाकर असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय , मॄत्योर्माअमॄतं गमय की कामना कर रहा था वहीँ दूसरी तरफ, राजधानी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में रोमन कैथोलिक चर्च के पोप, जान पाल द्वितीय अपने अनुयायियों को बता रहे थे कि किस तरह ईसा की पहली सहस्राब्दी में यूरोपीय महाद्वीप को कैथोलिक चर्च ने अपनी गोद में घसीट लिया, दूसरी सहस्राब्दी आते-आते उत्तर और दक्षिणी महाद्वीपों व अफ्रीका पर चर्च का वर्चस्व स्थापित हो गया और अब तीसरी सहस्राब्दी में भारत सहित, एशिया महाद्वीप की बारी आ चुकी है । इसलिए कैथोलिक चर्च में जितने भी धर्मगुरु हैं, भारत में धर्मांतरण  के कार्य में अपनी पूरी ताकत लगा दें ताकि सबका कल्याण हो जाए । पोप दावा कर रहे थे कि ईसा और चर्च की शरण में ही आकर मानव जाति को अपने पापों से मुक्ति तथा स्वर्ग का साम्राज्य मिलना संभव है। 

जब पोप साहब भारत की धरती पर खड़े होकर यह गर्वोक्ति हाँक रहे थे, उसी समय अमरीका और यूरोप में, हजार डेढ़ हजार साल पहले धर्मान्तरित कैथोलिक ईसाइयों के वंशज, पोप के दरबार में अपना माथा पटक रहे थे कि हमें अपने बिशपों-पादरियों के यौन शोषण से बचाओ। वो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे, तुम्हारा चर्च ऊपर से नीचे तक पाप में डूबा हुआ है । लेकिन वेटिकन के कानों में जूँ तक नहीं रेंग रही थी ।

ईसाई धर्म के अंतर्गत अनेक चर्च या मिशन हैं, मसलन जर्मन मिशन, एस पी जी मिशन, सेवेंथ डे एवेन्टिस्ट, लूथेरन मिशन, ऑर्थोडॉक्स इत्यादि, जिन में रोमन कैथोलिक चर्च, संख्या, बल और प्रभाव में सबसे अग्रणी भी है, और सबसे ज्यादा पापाचार में लिप्त भी । इस चर्च के भीतर किशोरों-किशोरियों के साथ यौन-शोषण जैसा पापाचार कब से फैला हुआ है, ये निश्चित करना ज़रा कठिन है । पूरे संसार में शायद ही कोई रोमन कैथोलिक चर्च हो जहाँ यह कर्म न हो रहा हो । लेकिन पाप का घड़ा तो भरता ही है और भर कर फूटता भी है, तो इनके भी दिन पूरे हुए ।


सन् 1963 में इस पापाचार के विरुद्ध, विद्रोह के स्वर उभरने शुरू हो गए थे और  इसके पुष्ट प्रमाण भी उपलब्ध हैं। 27 अगस्त, 1963 को अमरीका में न्यू मैक्सिको स्थित "सर्वेन्ट्स आफ दि होली पोर्सलीट" नामक कैथोलिक प्रतिष्ठान के प्रमुख ने, किशोरों के यौन शोषण में लिप्त पादरियों को सुधारने में असफल होने के पश्चात,  तत्कालीन पोप जॉन पाल षष्ठम् को पत्र लिखा था और उनको अवगत कराते हुए अनुरोध भी किया था कि मासूम किशोरों के साथ यौन शोषण जैसे जघन्य कृत्य  में लिप्त पादरियों को, तुरंत उनके पदों से बर्खास्त किया जाए और चर्च से निष्कासित भी किया जाए। उस पत्र से विदित होता है कि पादरियों द्वारा यह व्याभिचार कई दशकों से चल रहा था और तारीफ की बात यह भी है कि वेटिकन को इस कुकृत्य की पूरी जानकारी भी थी ।  उस पत्र के लेखक फादर गेराल्ड फिट्ज गेराल्ड ने अपनी शिकायत के साथ, पोप से भेंट भी की थी और अगले ही दिन उन्होंने अपने शिकायती पत्र को रजिस्टर्ड भी कर दिया था ।

फादर फिट्ज गेराल्ड की इस लिखित शिकायत को वेटिकन ने न सिर्फ अनसुनी कर दी, बल्कि चर्च के हित का गाना गाते हुए सिरे से खारिज़ भी कर दिया  । तब से अब तक पोप की गद्दी पर चार नये चेहरे विराजमान हो चुके हैं-जॉन पाल षष्ठम्, जान पाल द्वितीय (26 वर्ष) और 2005 से बेनेडिक्ट सोलह और अब पोप फ्रांसिस । इस दरम्यान अमरीका और यूरोपीय देशों से कैथोलिक चर्च में व्याप्त यौन-शोषण जैसे पापाचार के विरुद्ध लगातार शिकायतें आतीं रहीं और वेटिकन तथा प्रत्येक महामहीम पोप इस बारे में  मौन साधे बैठे रहे । ये मत सोचिये, किशोर बालक-बालिकाओं के यौन शोषण का यह पापाचार एकाध देश या दो-चार पादरियों तक सीमित रहा है, पूरा रोमन कैथोलिक चर्च ही उसमें लिप्त नज़र आता है। यही एक कारण है कि चर्च के अस्तित्व की रक्षा हेतु सारे पोप इन शिकायतों को अनसुना करते रहे हैं । पादरियों के पापाचार के शिकार लोगों की संख्या इतनी बड़ी है कि अमरीका और यूरोपीय देशों  में इसके विरुद्ध अनगिनत मंच गठित हो गये हैं और उनकी सार्वजनिक अपील पर हजारों भुक्तभोगी, जो कल तक चुप थे, अब खुलकर सामने आ रहे हैं। नीदरलैंड में 1995 में ही "हेल्प एंड लॉ लाइन" बन गयी थी। अमरीका में "सर्वाइवर्स नेटवर्क फार एब्यूज्ड बाई चर्च" नामक मंच बना है। इन मंचों के बनने से पीड़ितों में साहस आया है। वे पहले अपने को अकेला समझ कर, या दूसरे दबाव के कारण चुप रहते थे, अब अपने जैसों की भारी भीड़ देख कर उसके अंग बनते चले गए । नीदरलैंड में पहले मुश्किल से 10 भुक्तभोगी सामने आये, परन्तु ऐसे मंचों की सहायता से हज़ारों पीड़ित सामने आ गए । जर्मनी में सहायता केन्द्र खुलने की घोषणा होते ही तीन दिन में 2700 शिकायतें आ गयीं। पोप बेनेडिक्ट के गाँव के ही चर्च में व्याप्त दुराचार पर 173 पृष्ठ लम्बी रपट तैयार हो गयी।

सोचनेवाली बात यह है कि पापाचार को रोकने से अधिक महत्वपूर्ण वेटिकन के हित क्या हो सकता है ? कैथोलिक ईसाई मत के अनुसार सम्भोग को ही पाप माना गया है। इस मतानुसार मनुष्य का जन्म ही पाप कर्म में से होता है अर्थात जो नवजात जन्म लेता है वो ऑलरेडी पापी होता है, वो अपने सर पर पाप की वो गठरी लेकर धरती पर आता है, जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं है,  वो उस ऑरिजिनल सिन का मारा होता है, जो आदम और हौवा ने गार्डन ऑफ़ ईडेन में किया था  !!!!!!!   ईसाई मत का यही मानना है कि इस पाप कर्म से बाहर निकलने पर ही मनुष्य का उद्धार संभव है । यदि चर्च सचमुच इस मत पर विश्वास करता है तो चर्च को ऐसे पापाचारी पादरियों से मुक्त करना उसकी पहली चिंता होनी चाहिए। लेकिन वेटिकन का तो लक्ष्य ही कुछ और है, जिसकी फ़िक्र में वो ऐसे कुटिल और पापी पादरियों को संरक्षण दे रहा है और नये-नये क्षेत्रों में धर्मांतरण की फसल काटने में जुटा हुआ है।

वेटिकन ने इन शिकायतों के बारे में बड़ा ही सरल सा रास्ता अपनाया है कि जिस पादरी के विरुद्ध यौन दुष्कर्म करने की शिकायत मिले, उसका फ़ौरन रातों-रात तबादला कर दो, या फिर उसका दायित्व ही बदल दो। 

पापाचार के आरोपों और अपराधियों की सूची इतनी लम्बी है कि उनकी गिनती ही सम्भव नहीं है । इस पापाचार में वेटिकन की संलिप्तता इतनी स्पष्ट है कि अब निराश श्रद्धालु विद्रोह करने पर उतारू हो गए हैं। मार्च 2010 में आस्ट्रिया में बीस हजार कैथोलिकों ने चर्च छोड़ने की घोषणा कर दी ।

चारों ओर से उमड़ती आंधी के विरुद्ध वेटिकन का आरोप है कि हमारे विरुद्ध दुष्प्रचार की यह आंधी अमरीका की यहूदी लाबी और विश्व के इस्लामवाद ने खड़ी की है। वेटिकन का यह भी कहना है कि ईसाइयों का एक वर्ग पोप का इसलिए विरोध कर रहा है क्योंकि उन्होंने भ्रूणहत्या व समलैंगिक यौनाचार के विरुद्ध कड़ी भूमिका अपनायी है। किंतु कहना और करना में कितना फर्क है, यदि चर्च और पोप सचमुच समलैंगिक यौनाचार के विरुद्ध हैं तो अनेक देशों के अनेक पादरी और बिशप जो इसी दुष्कर्म में आकण्ठ लिप्त हैं और उनके विरुद्ध शिकायतों का अम्बार लग चुका है, उन शिकायतों की वेटिकन ने जांच क्यों नहीं की ? पापाचारी पादरियों की सार्वजनिक भर्तस्ना क्यों नहीं की? उन्हें चर्च से निष्कासित क्यों नहीं किया? गरीब और पिछड़े वर्गों का धर्मांतरण करने के पूर्व अपने घर का शुद्धिकरण करना आवश्यक क्यों नहीं समझा? अब जब पानी सिर से ऊपर चला गया तब वेटिकन की आँख ज़रा सी खुली है और अब वो थोडा-बहुत अपना मुंह भी खोल रहा है । 

यूरोप और अमरीका से उखड़ने के बाद, अब चर्च भारत जैसे देश में गरीब और अबोध जनजातियों व दलित वर्गों के धर्मांतरण पर पूरी शक्ति लगा रहा है। इसके लिए राज्यशक्ति का भी उपयोग कर रहा है। समुद्र तटवर्ती जिलों में धर्मांतरण का अभियान तेजी से चलाया जा रहा है। इसके लिए वो साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना रहा है । उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या से प्रगट हुआ कि चर्च धर्मांतरण में बाधक तत्वों को हटाने के लिए माओवादी मुखौटों का भी इस्तेमाल कर रहा है।


यदि वेटिकन में थोड़ी भी आध्यात्मिक चेतना शेष है तो उसे धर्मांतरण को बंद करके पहले अपना घर सही करना चाहिए । नैतिक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। इससे भी अधिक अच्छा होगा कि वह विश्व भर में फैले अपने विशाल संगठन तंत्र को भंग कर लोगों को अपने आध्यात्मिक विकास का मार्ग खोजने के लिए स्वतंत्र छोड़ दे । अपने पाप के निशान मिटाने के लिए हर साल ७०० मिलियन डॉलर खर्च करने वाले वैटिकन से ये सवाल लाज़मी है कि क्या वो ऐसा कर सकता है ????

दूसरी बात जो अब लोगों को खटकने लगी है, वो है वेटिकन के आस्तित्व की। ब्रिटेन में वेटिकन को एक राज्य का दर्जा दिये जाने पर भी आपत्ति उठायी जा रही है। वेटिकन को एक राज्य है या केवल एक उपासना पंथ का मुख्यालय? अब यह प्रश्न भी सिर उठाने लगा है। पोप को एक धार्मिक नेता के साथ-साथ राज्याध्यक्ष का सम्मान क्यों दिया जाता है? क्यों वेटिकन को संयुक्त राष्ट्र संघ में पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया है? क्यों वेटिकन को प्रत्येक देश में अपने राजदूत नियुक्त करने का अधिकार मिला है? क्या वेटिकन किसी भी देश के कानून से ऊपर है?

18 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (26-01-2014) को "गणतन्त्र दिवस विशेष" (चर्चा मंच-1504) पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    ६५वें गणतन्त्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आपका धन्यवाद शास्त्री जी !

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  2. ६५वें गणतंत्र दिवस कि हार्दिक शुभकामनायें !

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    1. आपको भी गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. फ़िल्म नहीं देखी.. लेकिन जिस व्यभिचार की बात कही गयी है, उसकी परोक्ष जानकारी है... जहाँ हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति है वहीं कुछ सम्प्रदाय गिनती में विश्वास रखते हैं और उनका दावा सिर्फ गिनती के आधार पर अपनी सम्प्रभुता सिद्ध करना है.. जिसके लिए धर्मांतरण एक आसान रास्ता है.. अरब देशों में विभिन्न धर्मों के सज़ायाफ्ता क़ैदियों को धर्मांतरण करने पर बाध्य किया जाता है, इस शर्त पर कि उनकी बाक़ी सज़ा माफ कर दी जाएगी... और यही नहीं अगले दिन अख़बार में ख़बर आती है कि हमारे धर्म की विशेषताओं से प्रभावित होकर उसने स्वेच्छा से धर्मांतरण स्वीकार लिया..
    रही बात यौन शोषण की और विशेषत: बच्चों का, तो इस रोग से कोई भी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ या मठ अछूता नहीं!

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    1. हिन्दू धर्म/जीवन पद्धति की अपनी यही विशेषताएँ इसे दूसरे धर्मों से अलग करती है, इसकी भी अपनी समस्याएं हैं.। इसमें भी कोई शक़ नहीं कि कोई भी धर्म बाल यौन शोषण ने अछूता नहीं है, लेकिन मेथड इन दी मैडनेस जितनी कैथोलिक चर्चों में देखने को मिलती है दूसरे किसी धार्मिक संस्थान में नहीं मिलेगी। कारण स्पष्ट है इनके पास दूसरों के बनिस्पत मौके बहुत ज्यादा हैं.।

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  4. ईसाइयों की प्रारम्‍भ से ही यह मंशा रही है कि वे सम्‍पूर्ण विश्‍व को ईसाई बना दें, इसीकारण भारत में भी उनका प्रयास जारी है। भारत के वनाचंलों में इनके द्वारा किये जा रहे प्रयासों को स्‍पष्‍ट देखा जा सकता है। अण्‍डमान निकोबार की कहानी तो दिल दहला देने वाली है। वर्तमान राजनीति में परिवर्तन की जो लहर दिखायी दे रही है उसके पीछे भी चर्च का बहुत बड़ा हाथ दिखायी दे रहा है। मैंने तो इस क्षेत्र में 15 वर्ष तक कार्य किया है इसलिए इनकी नस-नस पहचानती हूं।

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    1. आपकी बाकी सभी बातों से सहमत हूँ, लेकिन वर्त्तमान राजनैतिक परिवर्तन में ईसाईयों का हाथ है इस बात से बिलकुल असहमत हूँ.। आपने इनको बहुत ज्यादा क्रेडिट दे दिया, यह पिछले ६५ सालों से तंग-हाल हुई जनता का विद्रोह है, वर्ना ईसाई काँग्रेसियों की इतनी औकात नहीं है ।
      जहाँ तक ईसाईयों के प्रभाव की बात है यह प्रभाव आज से नहीं तब से है जब राजीव गांधी प्रधान मंत्री बने थे, तब से अब तक इनको रोकने के लिए कोई भी क़दम न सरकार ने नहीं उठाया न जनता ने सोचा , जनता को राजीव गांधी के वैदिक विवाह का फोटो दिखा कर खुश कर दिया गया और हम सभी खुश होकर, विदेशी बहू को अपनाने में लग गए :(

      मैंने अपना सारा जीवन ही इनके बीच बिताया है, इनके रग़-रग से मैं वाक़िफ़ हूँ

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  5. अब तो किसी भी धर्म गुरुओं पर विश्वास नहीं किया जा सकता है ,चाहे वह इशाई हो या हिन्दू या कोई और ,सब में व्यभिचार है ,यौन शोषण है |इस से अच्छा तो वैश्यालय है जहाँ लोग सच को जान कर जाते हैं और जो प्राप्त करने जाते हैं वही उन्हें मिलता है !धार्मिक स्थलों में तो धोखा मिलाता है !
    ६५ वीं गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं !
    नई पोस्ट मेरी प्रियतमा आ !
    नई पोस्ट मौसम (शीत काल )

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    1. आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ कालीपद जी.।

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  6. आपका धन्यवाद !

    आपको भी गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !

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  7. इससे भी अधिक अच्छा होगा कि वह विश्व भर में फैले अपने विशाल संगठन तंत्र को भंग कर लोगों को अपने आध्यात्मिक विकास का मार्ग खोजने के लिए स्वतंत्र छोड़ दे........अत्‍यन्‍त विचारणीय। देखा जाए तो अस्‍सी प्रतिशत जनसमस्‍याएं इसी कारण है। ईसाईकरण और इस्‍लामीकरण के नाम पर दुनिया में कई खोलों के भीतर घृणित स्थितियां उत्‍पन्‍न हो गईं हैं। और विडंबना ही है कि भारत में इनके चलाए जा रहे धर्मांतरण को एक प्रकार से वामपंथ के प्रतिनिधित्‍व में गोपनीय संरक्षण प्राप्‍त हो रहा है। इस दिशा में चलने, सोचने और विचार करने को विद्वता का शीर्ष पैमाना सिद्ध किया जा रहा है। इस सब को अपने लोगों का समर्थन उनके अल्‍पज्ञान के कारण ही हो रहा है।

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    1. सहमत हूँ, लेकिन समस्या के मूल में सिर्फ अल्पज्ञान ही नहीं है, ग़रीबी, मुफ़लिसी भी इसमें बहुत बड़ा योगदान कर रही है, जब जीवन फ़ाक़ों पर आ जाए तो इंसान अपने भगवान् को भी बेच खाता है और जब एक हिन्दू ऐसी हालत में पहुंच जाता है तो हिन्दू संस्थाएँ उसका बचाव करने नहीं ही आतीं हैं, कोई बीमार है और इलाज करवाने में सक्षम नहीं है तो उसका इलाज करवाने नहीं आते, अस्प्ताल नहीं खोलते, स्कूल नहीं खोलते बच्चों के लिए.। लेकिन ईसाई धर्म के प्रचारक इन दुखियों का दुःख-दर्द बांटने आ जाते हैं, हर गली हर नुक्कड़ पर स्कूल खोलते हैं, अस्पताल खोलते हैं, खाना-कपडा देते हैं, स्वयं-सेवी लोगों को घर-घर भेजते हैं जो लोगों कि समस्यायों का निदान करते हैं और बदले में उनको अपने मत में शामिल कर लेते हैं,

      ऐसा करने से दो बातें होतीं हैं, पहली ज़रूरतमंदों की ज़रूरतों की पूर्ती हो जातीं हैं और दूसरी कठिन समय में जिस धर्म के लोग काम आये वही धर्म बेहतर है, ये भावना भी आ जाती है.।

      मैं ईसाई बहुल इलाके से हूँ, जाहिर है ये इलाका ईसाई बहुल धर्मांतरण के कारण ही हुआ है, और यह भी जाहिर है कि हिन्दू धर्म के संरक्षण की ज़रुरत यहाँ कभी हुई ही होगी लेकिन मैंने आज तक एक भी हिन्दू संस्था को मेरे इलाके में कोई भी कार्य करते नहीं देखा

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  8. यदि हिन्दू समाज में दलितो आदिवासियो को सम्मान दिया होता उन्हें उनके गरीबी वाली हाल पर न छोड़ा होता तो किसी में भी ये ताकत नहीं थी कि वो किसी का धर्म परिवर्तन करा लेता , अफसोस होता है हिन्दू समाज के बड़े ठेकेदार इस धर्म परिवर्तन पर छाती तो पीटते है किन्तु सेवा के नाम पर लालच दे कर हो रहे इस धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए जमीनी कार्य नहीं करते है , डराने धमकाने की जगह उन्हें अस्पताल स्कुल और नौकरी दी जाये तो इस लालच में हो रहे धर्म परिवर्तन रुक सकते है मंदिरो में पड़े करोडो अरबो रुपये रख कर क्या फायदा होगा यदि एक बड़ा वर्ग हिन्दू ही नहीं रहेगा , जरुरत शहरो ओए सुविधा वाली जगहो पर इन्हे खर्च करने की नहीं है बल्कि वहा है जहा लोग असुविधा के बिच रह रहे है , किन्तु दलितो और आदिवासियो की सेवा करना ही कौन चाहता है , जब आप उन्हें समाज में सम्मान नहीं दे सकते या दिला सकते है तो फिर धर्म परिवर्तन को लेकर किसी को रोना भी नहीं चाहिए । बाकि यौनदूराचार से तो कोई भी धर्म और समाज अछूता नहीं है ।

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    1. अक्षरशः सहमत हूँ, हिन्दू मंदिरों में करोड़ों के चढ़ावों के बारे में गर्वोक्ति सुनते ही रहते हैं, लेकिन उन चढ़ावों का सही उपयोग होते कभी देखने को नहीं मिलता, भगवान् जाने उनका क्या होता है लेकिन गरीब हिंदुओं के लिए उन चढ़ावों के अंशमात्र का भी उपयोग नहीं किया जाता, कुछ भी नहीं किया जाता है

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  9. जब तक मैं ही का सिद्धान्त किसी धर्म में पलेगा, उसका निर्वाण संभव नहीं। सबके सुख की कल्पना है निष्कर्ष है।

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  10. वो फिल्म देखने की हिम्मत तो नहीं ...
    और धर्मांतरण की बात पर क्या कहा जाए. .कुछ उदाहरण देख चुकी हूँ , आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के बच्चे बहुत बीमार थे, ऑपरेशन के लिए बड़ी रकम चाहिए थी . चर्च से सहायता मिली, चर्च द्वारा संचालित अस्पताल में मुफ्त इलाज़ हुआ . अब इनलोगों पर दबाव डाला जाएगा तो इन्हें धर्मपरिवर्तन करते कितनी देर लगेगी ?? खामी तो हम में है,...हम अपने गरीब भाई-बहनों की सुख-सुविधा का ख्याल नहीं रखते तो दूसरे धर्म वाले इस कमजोरी का फायदा उठाएंगे ही.

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