मेरे इश्क़ का ज़ुनून, रक़्स करता है इन फिज़ाओं में,
रक्स=नृत्य
नशेमन=घोंसला
तेरे फ़रेब कुचलते हैं मुझे, मेरे दर्द की छाँव में
हर साँस से उलझती है मेरी, हर लम्हा ज़िन्दगी की,
लिपटती जाती है हर रोज़, उम्र की ज़ंजीर पाँव में
अब ये पागलपन मेरा, बरामद करवाएगा मुझे,
कब तक छुपूँगी मैं कहो, सदियों की गुफाओं में
आंधियाँ मुझसे अब भी, हर दुश्मनी निभातीं हैं,
फिर भी बनाऊँगी मैं, इक नशेमन हवाओं में...!
रक्स=नृत्य
नशेमन=घोंसला
हौंसला हवाओं को बाँध ले जायेगा।
ReplyDeleteघोंसले की आशा अच्छी है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल रविवार (18-08-2013) को "नाग ने आदमी को डसा" (रविवासरीय चर्चा-अंकः1341) पर भी होगा!
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इसमें कोई गाना काहे नहीं है?
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजानते हैं जिद्दी तो आप हैं ही :)
ReplyDeleteमसूबे जबर्दस्त हैं -आगे खुदा खैर करे :-)
ReplyDeleteये हौसले....ये अदा............
ReplyDeleteक्या बात है :-)
अनु
आंधियाँ मुझसे अब भी, हर दुश्मनी निभातीं हैं,
ReplyDeleteफिर भी बनाऊँगी मैं, इक नशेमन हवाओं में...!
बुलंद हौसले के लिए बधाई