विष वृक्ष की तरह फैलते
इस डाह में,
भर दो अणु अस्त्रों की आग,
जिसकी लपट से
झुलसे चेहरों को,
अपनी असलियत पर आने दो,
गलाने पर जो तुले हैं
हमारी अस्मिता-तरु को,
उन सांप्रदायिक डालियों को काट डालो।
ख़ूब लड़ें हम आओ मिलकर,
मगर टूटने की बात न करें ।
हो जाने दो हाहाकार,
बस एक बार,
कर लो हर फसाद,
बह जाने दो हर मवाद,
द्वेष की काली काई निकल जाने दो,
उज्जवल स्फटिक पथ बन जाने दो,
आलोकित हो जाएगा
रास्ता उत्थान का,
फिर हो जाएगा नव-निर्माण
हमारे मन के वृन्दावन का...
विषाक्त परिवेश में कोमलता और सरलता बद्ध अनुभव करती है, हाहाकार आवश्यक है। सुन्दर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteजी हाँ प्रवीण जी तात्पर्य तो यही है.…
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ReplyDeleteकलुषित करनेवाला विष का मवाद का निकलना ही उचित है
latest post: भ्रष्टाचार और अपराध पोषित भारत!!
latest post,नेताजी कहीन है।
कालिपद जी,
Deleteकाश कि ऐसा हो ।
शुक्रिया यशोदा !
ReplyDeleteआपका धन्यवाद रविकर जी !
ReplyDeleteधन्यवाद शिवम् !
ReplyDeleteसच में मुक्ति पानी होगी इससे, बिना हाहाकार यह संभव भी नहीं ..... अनुकरणीय भाव
ReplyDeleteमोनिका जी,
Deleteआपका आभार !
अणुशस्त्र जी जगह शायद अणुअस्त्र होना चाहिए ...
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद काजल जी, इस गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए, सही कहा आपने।
Deleteउज्जवल रास्ता जरुर मिलेगा। बहुत गहरी विचारणीय रचना।
ReplyDeleteकब मिलेगा ?
Deleteअब तो लगता है देर होने लगी है.।
द्वेष की काली काई निकल जाने दो,
ReplyDeleteउज्जवल स्फटिक पथ बन जाने दो,
आलोकित हो जाएगा
रास्ता उत्थान का,
फिर हो जाएगा नव-निर्माण
हमारे मन के वृन्दावन का...
गहन चिंतन, प्रेरणा देती
धन्यवाद भईया !
Deleteशांतिप्रियता को जब दुर्बलता मान लिया जाये तो विध्वंस आवश्यक ही है। कामना ही नहीं विश्वास भी है कि मन के वृंदावन का नवनिर्माण उपयुक्त समय पर होगा।
ReplyDeleteआपका विश्वास बना रहे !
Deleteबहुत सुंदर, लंबे अंतराल के बाद आपको पढ़ना सुखद अनुभव है।
ReplyDeleteमुझे भी तुम्हें यहाँ देख कर बहुत हुई !
Deleteओजपूर्ण आह्वान गीत
ReplyDeleteजहाँ काम न आवे सुई वहाँ करे तलवार :)
Deleteबहुत प्रेरक
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी !
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