जब तुमने अपने दिल पर इतने, संगे-दर लगाए हैं
हमने भी फिर उनके मुक़ाबिल, कई मंसूबे बनाए हैं
दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ यहाँ, अब सब बेग़रज़ हो गए हैं
बेलाग लरजती उँगलियों ने, बेख़ौफ़ कलम चलाये हैं
छलक जाने दो तबस्सुम, अपने आरिज़-ओ-लब पर अब
रौशनी का इक सादा दीया, हम दीद में जलाए हैं
जहाने-फ़िक्र में तुम क्यों बेक़ार, यूँ दुबलाते जाते हो
मसअलों के कोहे-पराँ, हम अपने संग ले आये हैं
बुलंदियों से कुछ मंज़र, कुछ साफ़ नज़र नहीं आते
इस दश्ते-ग़ुरबत में बुजुर्गों की, दुआयें ही काम आये हैं
क्यूँ खेलते हो सियासत की वो, बेफ़जूल सी बाज़ी 'अदा'
शरारती फ़रिश्तों को ख़ुदा, बेआवाज़ लात लगाए है
संगे-दर = द्वार का पत्थर
तबस्सुम = मुस्कान
आरिज़-ओ-लब = गाल और होंठ
दीद = आँख
मसअलों = समस्याओं
कोहे-पराँ= भारी पर्वत
दश्ते-ग़ुरबत = परदेस का जंगल
दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ = शब्दों की दौलत
हमने भी फिर उनके मुक़ाबिल, कई मंसूबे बनाए हैं
दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ यहाँ, अब सब बेग़रज़ हो गए हैं
बेलाग लरजती उँगलियों ने, बेख़ौफ़ कलम चलाये हैं
छलक जाने दो तबस्सुम, अपने आरिज़-ओ-लब पर अब
रौशनी का इक सादा दीया, हम दीद में जलाए हैं
जहाने-फ़िक्र में तुम क्यों बेक़ार, यूँ दुबलाते जाते हो
मसअलों के कोहे-पराँ, हम अपने संग ले आये हैं
बुलंदियों से कुछ मंज़र, कुछ साफ़ नज़र नहीं आते
इस दश्ते-ग़ुरबत में बुजुर्गों की, दुआयें ही काम आये हैं
क्यूँ खेलते हो सियासत की वो, बेफ़जूल सी बाज़ी 'अदा'
शरारती फ़रिश्तों को ख़ुदा, बेआवाज़ लात लगाए है
संगे-दर = द्वार का पत्थर
तबस्सुम = मुस्कान
आरिज़-ओ-लब = गाल और होंठ
दीद = आँख
मसअलों = समस्याओं
कोहे-पराँ= भारी पर्वत
दश्ते-ग़ुरबत = परदेस का जंगल
दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ = शब्दों की दौलत
सुन्दर भाव-पूर्ण गरिमा-मय गज़ल । आपको बधाई ।
ReplyDeleteअति सुन्दर भावपूर्ण ग़ज़ल
ReplyDeletelatest post नेताजी फ़िक्र ना करो!
latest post नेता उवाच !!!
छलक जाने दो तबस्सुम, अपने आरिज़-ओ-लब पर अब
रौशनी का इक सादा दीया, हम दीद में जलाए हैं
वाह ! वाऽह…! वाऽहऽऽ…!
:)
आदरणीया स्वप्न मञ्जूषा जी
क्या कहूं ? अच्छी रचनाकार की रचना अच्छी ही होनी है...
लेकिन कहना यह है कि...
हैं तो आप वही स्वप्न मञ्जूषा शैल अदा ही न !?
... .... .....
पिछली कई पोस्ट खंगालली , आपकी आवाज़ में कुछ सुनने को तरस गये...
:(
❣हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...❣
♥ रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं ! ♥
-राजेन्द्र स्वर्णकार
क्या बात है -जैसे एक मजे हुए शायरा की ग़ज़ल हो !
ReplyDeleteबुलंदियों से कुछ मंज़र, कुछ साफ़ नज़र नहीं आते
ReplyDeleteइस दश्ते-ग़ुरबत में बुजुर्गों की, दुआयें ही काम आये हैं
बेहतरीन ग़ज़ल किन्तु आवाज़ के बिना अधूरी लगी ऐसा लोग भी कहते हैं
हे भगवान, कितनी बार अर्थ देखने के लिये ऊपर नीचे करना पड़ा। मेहनत से आया आनन्द के लिये आभार।
ReplyDelete’शरारती फ़रिश्तों को ख़ुदा, बेआवाज़ लात लगाए है’
ReplyDeleteशानदार अभिव्यक्ति,
बहुत बहुत बधाई।
बढ़िया ग़ज़ल
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