Wednesday, August 21, 2013

बुलंदियों से कुछ मंज़र, साफ़ नज़र नहीं आते हैं ..!

जब तुमने अपने दिल पर इतने, संगे-दर लगाए हैं
हमने भी फिर उनके मुक़ाबिल, कई मंसूबे बनाए हैं

दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ यहाँ, अब सब बेग़रज़ हो गए हैं 
बेलाग लरजती उँगलियों ने, बेख़ौफ़ कलम चलाये हैं

छलक जाने दो तबस्सुम, अपने आरिज़-ओ-लब पर अब 
रौशनी का इक सादा दीया, हम दीद में जलाए हैं

जहाने-फ़िक्र में तुम क्यों बेक़ार, यूँ दुबलाते जाते हो
मसअलों के कोहे-पराँ, हम अपने संग ले आये हैं

बुलंदियों से कुछ मंज़र, कुछ साफ़ नज़र नहीं आते 
इस दश्ते-ग़ुरबत में बुजुर्गों की, दुआयें ही काम आये हैं

क्यूँ खेलते हो सियासत की वो, बेफ़जूल सी बाज़ी 'अदा'
शरारती फ़रिश्तों को ख़ुदा, बेआवाज़ लात लगाए है

संगे-दर = द्वार का पत्थर
तबस्सुम = मुस्कान
आरिज़-ओ-लब  = गाल और होंठ
दीद = आँख
मसअलों = समस्याओं
कोहे-पराँ= भारी पर्वत
दश्ते-ग़ुरबत = परदेस का जंगल
दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ = शब्दों की दौलत

8 comments:

  1. सुन्दर भाव-पूर्ण गरिमा-मय गज़ल । आपको बधाई ।

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  2. छलक जाने दो तबस्सुम, अपने आरिज़-ओ-लब पर अब
    रौशनी का इक सादा दीया, हम दीद में जलाए हैं

    वाह ! वाऽह…! वाऽहऽऽ…!
    :)

    आदरणीया स्वप्न मञ्जूषा जी
    क्या कहूं ? अच्छी रचनाकार की रचना अच्छी ही होनी है...
    लेकिन कहना यह है कि...
    हैं तो आप वही स्वप्न मञ्जूषा शैल अदा ही न !?
    ... .... .....
    पिछली कई पोस्ट खंगालली , आपकी आवाज़ में कुछ सुनने को तरस गये...
    :(



    हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...

    ♥ रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं ! ♥
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. क्या बात है -जैसे एक मजे हुए शायरा की ग़ज़ल हो !

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  4. बुलंदियों से कुछ मंज़र, कुछ साफ़ नज़र नहीं आते
    इस दश्ते-ग़ुरबत में बुजुर्गों की, दुआयें ही काम आये हैं

    बेहतरीन ग़ज़ल किन्तु आवाज़ के बिना अधूरी लगी ऐसा लोग भी कहते हैं

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  5. हे भगवान, कितनी बार अर्थ देखने के लिये ऊपर नीचे करना पड़ा। मेहनत से आया आनन्द के लिये आभार।

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  6. ’शरारती फ़रिश्तों को ख़ुदा, बेआवाज़ लात लगाए है’
    शानदार अभिव्यक्ति,
    बहुत बहुत बधाई।

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  7. बढ़िया ग़ज़ल

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