नज़रों की तमाज़त से मेरे ख़्वाब जल गए
बेशर्म से कुछ सच थे बच के निकल गए
अँधों के गाँव में अब मनती है दीवाली
गूँगों की बातेँ सुन-सुन लंगड़े भी चल गए
पत्थर तराशते थे कभी मोम के थे हाथ
संग-संग रहे जो संग के संग में ही ढल गए
डरते थे हम कि जाएँ तो जाएँ अब कहाँ
रस्तों ने बाहें खोल दी, रस्ते निकल गए
ये तेरा ही असर है या है मेरा ही मिजाज़
हम थे न ऐसे-वैसे, हम भी बदल गए
सब कहते हैं हुकूमत, बा-बुलंद चीज़ है
सिक्कों के फर्श पर तो ये भी फिसल गए
कल तक उसूलों का भी, बदन गुलाब था
ख़ुदग़र्ज़ आँच से न जाने कितने गल गए
ज़िंदा रहेंगे जब तक, ज़िंदा रहेंगे हम
आगे भी छले जाएँगे, कितने तो छल गए
जो कल गिरी ईमारत, वो मेरी मोहब्बत थी
यादों के मलबे ढोकर, एहसास छिल गए
जो कल गिरी ईमारत, वो मेरी मोहब्बत थी
यादों के मलबे ढोकर, एहसास छिल गए
सूरज भी रोयेगा कभी, तुम देखना ज़रूर
मिसाल-ए-आफ़ताब अजी कितने ढल गए
तमाज़त =आग
संग-संग =साथ-साथ
संग=पत्थर
Very Nice Song.....
Very Nice Song.....
बहुत ही नायब पिरोया आपने शब्दों को, अब तो तेरे ब्लॉग को जानिब आना लगा रहेगा
ReplyDeleteआपका तहे दिल से शुक्रिया।
Deleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (01.05.2015) को (चर्चा अंक-1962)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteआभारी हूँ राजेन्द्र जी।
बहुत सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteसच्ची दी.........कितनी आसानी से इतने नाज़ुक एहसासों को लिख डाला आपने...
बहुत प्यारी पोस्ट.
बहुत दिनों बाद तुम्हें देखकर बहुत ख़ुशी हुई भास्कर।
Deleteख़ुश रहो ।
"डरते थे हम कि जाएँ तो जाएँ अब कहाँ
ReplyDeleteरस्तों ने बाहें खोल दी, रस्ते निकल गए "........बहुत खूबसूरत लगीं ये पंक्तियाँ.......
अभिषेक जी,
Deleteआपने पसंद किया, बहुत शुक्रिया।
बहुत ख़ूब, शब्द और भाव का सुंदर संगम...
ReplyDeleteधन्यवाद हिमकर श्याम जी.…
Deleteये तेरा ही असर है या है मेरा ही मिजाज़
ReplyDeleteहम थे न ऐसे-वैसे, हम भी बदल गए
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ , अच्छी रचना
महेंद्र जी,
Deleteआपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
इसे पढ़ कर मन को शान्ति मिली । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
ReplyDeleteआलोक जी,
Deleteये मेरा सौभाग्य है। आपका धन्यवाद।
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
संजू जी,
ReplyDeleteआपका धन्यवाद