कुछ तो प्यार में गुज़रा, कुछ झगड़े में ही कट गया
चलो जी अब जैसे-तैसे, अपना टाईम निपट गया
बच्चे अब कहाँ बच्चे हैं, अब मेरी गोद भी छोटी है
दाढ़ी-मूछें देख-देख, आँचल मेरा सिमट गया
रात को तुम देर से आते, आते ही फेसबुक पे जाते
जब फेसबुक सौतन को देखूँ, मेरा फेस लटक गया
कभी दुनिया यूँ लगती थी, जैसे रेशम का टुकड़ा
अब रेशम का ये टुकड़ा, टाटों से ही पट गया
ताना-बाना जोड़-जाड़ कर, चादर एक बनाई थी
पर चादर का इक धागा, बुनकर से ही कट गया
धरती का जब सीना फटता, कितनी छाती फटती है
इतनी सारी मौतें देख, दुनिया से दिल हट गया
दाना-पानी के मसले में, घर छूटा आँगन छूटा
माँ-बाप को छोड़ के कोई, अमरीका में सट गया
aha dedee
ReplyDeleteधन्यवाद गिरीश जी.।
Deletebadhiya ...
ReplyDeleteहृदय से आभार शारदा जी.....!
Deleteबच्चे अब कहाँ बच्चे हैं, अब मेरी गोद भी छोटी है
ReplyDeleteदाढ़ी-मूछें देख-देख, आँचल मेरा सिमट गया
...लाज़वाब ...अंतस की व्यथा का बहुत भावपूर्ण चित्रण...
जी हाँ कैलाश जी, ऐसा ही है कुछ।
Deleteआभारी हूँ।
सुंदर रचना
ReplyDeleteविम्मी जी,
Deleteसर्वप्रथम आपका स्वागत है..
प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ।