चलो चमक जाएँ अब सब छोड़-छाड़ के
रख देंगे मुँह अँधेरों का तोड़-ताड़ के
हवा भी ग़र बदनीयत हो तो रोक देंगे हम
बनाएँगे नये आशियाँ कुछ ज़ोड़-जाड़ के
तूफाँ भी बरख़िलाफ़ हो कर लेंगे सामना
रख देंगे सफीनों के पाल मोड़-माड़ के
दामन तहज़ीब का हम थामेंगे तब तक
अस्मत को न छूए न खेले फोड़-फाड़ के
अब न होंगे कमसिन अक़्स कहीं बेआबरू
रख देंगे आईनों को हम तोड़-ताड़ के
आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (18-04-2015) को "कुछ फर्ज निभाना बाकी है" (चर्चा - 1949) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभारी हूँ शास्त्री जी
Deleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआपका हृदय से धन्यवाद सुमन जी।
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteओंकार जी,
Deleteआपने मेरा मान बढ़ाया, आभारी हूँ।
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
संजू जी,
Deleteहौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया।
तूफाँ भी ग़र बरख़िलाफ़ हो करना है सामना
ReplyDeleteरख देंगे सफीनों के पाल मोड़-माड़ के
उत्तम रचना।
अँकुर जी,
Deleteहृदय से आभारी हूँ।
I really enjoyed your blog post
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