स्वच्छता की सनक ,
और गंदगी से घृणा,
का सिद्धांत लिए
हर दिन,
अंतस, ताज़े धुले तौलिये में
लिपट जाता था ..
कुछ पल का जो खुलापन आता है बीच में,
वो कभी अखर जाता ,
और कभी मैं देखती ही नहीं उधर ,
लेकिन देख रही हूँ ,
मुझे भी आदत होती जा रही है,
काव्य और कलाओं में घिसटती हुई
गन्दगी को , निर्विकार भाव से देखने की |
विडंबना तो है,
लेकिन,
अब गन्दगी से घृणा नहीं होती,
धीरे-धीरे वो अपना असर खो रही है..
शायद,
उसने, नापसंदगी का दर्ज़ा पा लिया है..
बड़ा सूक्ष्म सा अंतर है ,
घृणा और नापसंदगी में |
सोचती हूँ,
जब गन्दगी से दो-चार होना ही है ,
तो फिर घृणा क्यों, नापसंदगी क्यों नहीं ?
आख़िर, कभी-कभी ,
बिन धुले तौलिये से भी,
बेमन ही सही,
हम बदन पोंछ ही लेते हैं ..
और अब एक और गीत..आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे....आवाज़ 'अदा' की..