Friday, June 1, 2012

बिन धुले तौलिये....


स्वच्छता की सनक ,
और गंदगी से घृणा, 
का सिद्धांत लिए
हर दिन, 
अंतस, ताज़े धुले तौलिये में 
लिपट जाता था ..
कुछ पल का जो खुलापन आता है बीच में,
वो कभी अखर जाता ,
और कभी मैं देखती ही नहीं उधर ,
लेकिन देख रही हूँ , 
मुझे भी आदत होती जा रही है,  
काव्य और कलाओं में घिसटती हुई  
गन्दगी को , निर्विकार भाव से देखने की |
विडंबना तो है, 
लेकिन, 
अब गन्दगी से घृणा नहीं होती,
धीरे-धीरे वो अपना असर खो रही है..
शायद,
उसने, नापसंदगी का दर्ज़ा पा लिया है.. 
बड़ा सूक्ष्म सा अंतर है ,
घृणा और नापसंदगी में |
सोचती हूँ, 
जब गन्दगी से दो-चार होना ही है , 
तो फिर घृणा क्यों, नापसंदगी क्यों नहीं ?
आख़िर, कभी-कभी ,
बिन धुले तौलिये से भी, 
बेमन ही सही, 
हम बदन पोंछ ही लेते हैं ..

और अब एक और गीत..आपकी नज़रों ने समझा प्यार के काबिल मुझे....आवाज़ 'अदा' की..