बिहार के ही नहीं पूरे देश के पुलिस महकमें में एक नाम स्वर्णाक्षरों में हमेशा लिखा जाएगा, नाम है 'रणधीर प्रसाद वर्मा' जो एक आई. पी.एस थे। रणधीर वर्मा धनबाद के बैंक की डैकती के सुराग का पता लगाने में लगे हुए थे, कहा जाता है, इसी डकैती के लिए कुछ टिप देने के लिए धोखे से उनको बुलाया गया था, और वो अकेले ही चले गए थे, और इसी दौरान उनको घात लगा कर, मारा गया था।
मैं रणधीर भईया के परम प्रिय गुरु, की पुत्री हूँ, उनका स्नेह मुझे हमेशा मिला था। मेरे पिता एक शिक्षक थे, और एक शिक्षक का धर्म, उन्होंने पूरी आस्था से जीवनपर्यंत निभाया। रणधीर भईया उनके बहुत प्रिय छात्र थे। रणधीर भईया अक्सर हमारे घर आया करते थे, मेरे बाबा के साथ बैठ कर घंटों बतियाया करते थे। कहा करते थे मुझसे 'मुन्ना तुम खुशकिस्मत हो, जो सर तुम्हारे पिता हैं, लेकिन मैं तुमसे ज्यादा खुशकिस्मत हूँ क्योंकि वो मेरे गुरु हैं' । उम्र में वो मुझसे बहुत बड़े थे, और मुस्कुराते भी कम थे, इसलिए उनसे डर ही लगता था, जब भी आयें यही पूछते थे, खाली गाना चल रहा है या कुछ पढाई-लिखाई भी होता है। और हम डर कर सकुचा जाते थे। मुझसे वो बहुत कम बोलते थे, लेकिन स्नेह बहुत करते थे।
स्व. रणधीर वर्मा को मरणोपरान्त भारत सरकार ने 'अशोक चक्र' भी दिया है ।
मैं रणधीर भईया के परम प्रिय गुरु, की पुत्री हूँ, उनका स्नेह मुझे हमेशा मिला था। मेरे पिता एक शिक्षक थे, और एक शिक्षक का धर्म, उन्होंने पूरी आस्था से जीवनपर्यंत निभाया। रणधीर भईया उनके बहुत प्रिय छात्र थे। रणधीर भईया अक्सर हमारे घर आया करते थे, मेरे बाबा के साथ बैठ कर घंटों बतियाया करते थे। कहा करते थे मुझसे 'मुन्ना तुम खुशकिस्मत हो, जो सर तुम्हारे पिता हैं, लेकिन मैं तुमसे ज्यादा खुशकिस्मत हूँ क्योंकि वो मेरे गुरु हैं' । उम्र में वो मुझसे बहुत बड़े थे, और मुस्कुराते भी कम थे, इसलिए उनसे डर ही लगता था, जब भी आयें यही पूछते थे, खाली गाना चल रहा है या कुछ पढाई-लिखाई भी होता है। और हम डर कर सकुचा जाते थे। मुझसे वो बहुत कम बोलते थे, लेकिन स्नेह बहुत करते थे।
स्व. रणधीर वर्मा को मरणोपरान्त भारत सरकार ने 'अशोक चक्र' भी दिया है ।
एक दिन रणधीर भईया घर आये और बाबा के पास बैठ गए, कहने लगे 'सर ! मैंने आज तक जीवन में कभी घूस नहीं लिया, इसलिए आपको कभी कुछ दे नहीं पाया, लेकिन आज मैं आपको, घूस देना चाहता हूँ और यह चीज़ मैं सिर्फ आपको ही दे सकता हूँ, क्यूंकि आप से अच्छा कोई दूसरा पात्र मेरी नज़र में नहीं है, इस उपहार के लिए' मैं साथ ही बैठी हुई थी, और मुझे समझ में नहीं आ रहा था, इतने कड़क रणधीर भईया, बाबा को आज घूस दे रहे हैं। ऐसी क्या चीज़ हो सकती है, जो भईया आज बाबा को देने वाले हैं। बाबा के चेहरे पर भी उत्सुकता परिलक्षित हो रही थी। रणधीर भईया ने धीरे से अपनी जेब से एक खूबसूरत सा बक्सा निकाला और खोल कर सामने रख दिया। उस बक्से में एक पारकर पेन था। बाबा बहुत खुश हुए। पेन देते हुए भईया ने कहा था बाबा को 'सर मेरी नज़र में इस कलम को आपके हाथ से बेहतर हाथ, दूसरा नहीं मिल सकता है। इसे आप मेरी गुरु दक्षिणा समझिएगा और इससे जो भी आप लिखेंगे उसे मैं आपका आशीर्वाद समझूंगा और सर यह उपहार मेरी अपनी मेहनत की कमाई से लिया है मैंने, जिसकी शिक्षा मुझे आपने हमेशा दी है। मेरे हाथों में तो अब कलम शोभती ही नहीं, इन हाथों को तो अब बस इसकी आदत हो गयी है, कहते हुए उन्होंने होल्स्टर से पिस्तौल निकाल लिया था और बड़े प्रेम से उसे देखने लगे । इतना खूबसूरत उपहार पाकर मेरे बाबा का चेहरा ख़ुशी से दमक उठा था। आज भी वो कलम मेरे बाबा की आलमारी में सुरक्षित है। ऐसे थे मेरे रणधीर भईया।
मेरी शादी का दिन था, रणधीर भईया ने मुझसे वादा किया था मैं ज़रूर आऊंगा, मुझे मालूम था वो बहुत व्यस्त हैं, लेकिन मन में एक विश्वास था, कि ये हो ही नहीं सकता भईया न आयें, मुझे याद है, वो अपने पूरे दल-बल के साथ आये थे, सिर्फ एक घंटे के लिए, आकर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा था, कहा था 'मुन्ना ! बस इतना याद रखना, तुम वीरेंदर नाथ कुँवर
की बेटी हो और रणधीर वर्मा की बहन', मैंने झुक कर पाँव छू लिए थे उनके ।
उनकी आँखों में एक आदेश था और मेरी आखों में एक वादा। भूल नहीं पाती हूँ वो
दिन।
मैं तो बाहर गयी नहीं थी देखने, लेकिन लोग बताते हैं, घर के बहार 5-6 पुलिस की जीप खड़ी थी और 20-25 पुलिस वाले बारातियों
को खाना परोस रहे थे, रणधीर भईया भी बारातियों को पूछ-पूछ कर खाना खिला रहे
थे। इतनी पुलिस देख कर, एक बार को लोग घबरा ही गए थे, लेकिन सारे पुलिस वालों
के हाथ में पूरी-कचौड़ी देख कर आश्वस्त हो गए। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक सोच लिया था,
ज़रूर दुल्हन ने शादी से
इनकार कर दिया होगा (जस्ट किडिंग )।
मुझे ये भी बताया था लोगों ने, रणधीर भईया ने सिर्फ मिठाई खाई थी और बाकि पुलिस वालों को भी सिर्फ मिठाई ही दिलवायी, किसी को खाना खाने नहीं दिया, न ही खुद खाए। कह दिया, इस समय मैं डयूटी पर हूँ, मेरी बहन की शादी है, इसलिए मिठाई तो खाना ही है। एक भाई का फ़र्ज़ पूरा करके, बाबा के पाँव छू कर, दुल्हे को आशीर्वाद देकर रणधीर भईया चले गए। यह सब लिखते हुए भी मुझे सब याद आ रहा है।
मेरी शादी के, कुछ साल बाद ही,रणधीर भईया शहीद हो गए।
अब गुरु-शिष्य की ऐसी परिपाटी कहाँ मिलती है देखने को। और अब कहाँ मिलते हैं, ऐसे भारत के लाल, ऐसे भाई, ऐसे शिष्य और ऐसे पुलिस वाले।