बिना नारी के इस दुनिया की कल्पना नहीं की सकती, लेकिन आज भी समाज में नारी को अपने अधिकार के लिए अथक संघर्ष करना पड़ता है। नारी की स्थिति ऐसी हमेशा से नहीं थी, आदिकाल में नारी ज्यादा स्वतंत्र तथा अपने अधिकारों के प्रति सजग थी..
हमारी पूर्वज नारियों ने, बहुत से ऐसे काम किये हैं, जिनको करने की ताब, आज की नारी में भी नहीं है, जैसे कुंती का बिन ब्याही माँ बनाना, मरियम का कुँवारी माँ बनना, सर्वविदित है।
हमारी पूर्वज नारियों ने, बहुत से ऐसे काम किये हैं, जिनको करने की ताब, आज की नारी में भी नहीं है, जैसे कुंती का बिन ब्याही माँ बनाना, मरियम का कुँवारी माँ बनना, सर्वविदित है।
पुराणों में तथा धर्म पुस्तकों की अनेकोनेक नायिकाओं ने स्वाधिकार का प्रयोग किया है, पुरातनकाल में स्वयंवर का आयोजन ही, अपने आप में 'स्त्री स्वतंत्रता' का प्रतीक है। जिसमें उम्मीदवार पुरुषों को, जुटा कर, अपनी पसंद का जीवन साथी चुनने का अधिकार नारी को था । इसके अलावा, और भी कई ऐसे फैसले हैं, जो इन नारियों ने अपनी इच्छा तथा अपनी भावनाओं को मान देते हुए लिए थे, जैसे, कई पुरुषों से संसर्ग, विवाहेतर सम्बन्ध, स्पर्म डोनर का उपयोग तथा विधवा विवाह की बात भी देखी-पढ़ी जा सकती है । हालांकि इन घटनाओं को हमारा पुरुष प्रधान समाज सीधे-सीधे कबूलना नहीं चाहता, और हमेशा किसी न किसी बहाने का जामा पहना कर ही प्रस्तुत और स्वीकार करता है। आज बात करते हैं ऐसी ही कुछ नारियों की ।
पंचकन्या, वे पाँच कन्याएँ हैं, जिनका भारत के हिन्दू सम्प्रदाय और धर्मग्रंथों में विशिष्ट स्थान है। पुराणों के अनुसार ये पाँच कन्याएँ विवाहित होते हुए भी, पूजा के योग्य मानी गई हैं। इनके स्मरण मात्र से ही सभी पापों का नाश होता है।
अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥
इन पांच कन्याओं का नाम निम्नलिखित हैं :
- अहल्या
- द्रौपदी
- कुंती
- तारा
- मंदोदरी
अहल्या
अहल्या महर्षि गौतम की पत्नी थी। वह अत्यंत ही रूपवती थी। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में देवराज इन्द्र
ने अहल्या से प्रेम निवेदन किया और सानिध्य की इच्छा प्रकट की। यह जानकर कि स्वयं इन्द्र उस पर मुग्ध
हैं, अहल्या, देवराज इन्द्र की आसक्ति से खुश हुई थी और प्रसन्नता पूर्वक इस अनुचित कार्य के लिए तैयार हो गई। लेकिन ऋषि गौतम ने, कुटिया से जाते
हुए इन्द्र को देख लिया और उन्होंने अहल्या को पाषाण बन जाने का शाप दे
दिया। अहल्या का त्याग ऋषि गौतम ने, उसके विवाहेतर सम्बन्ध के कारण किया था, त्रेता युग में श्री राम की चरण-रज से अहिल्या का शापमोचन हुआ। वह पाषाण से पुन: ऋषि-पत्नी हुई।
अब वो पत्थर की बनी थीं या 'पथरा' गयीं थी सोचने वाली बात तो है, और ये भी हो सकता है कि श्री राम ने इस दम्पति के बीच, काउंसिलिंग करके मेल करवाया था, यह भी विवेचना का विषय हो सकता है, लेकिन यह बहुत बड़ा उदहारण है विवाहेतर सम्बन्ध का।
द्रौपदी
कुंती तथा पांडवों ने द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना तो वे लोग भी सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुंचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था तथा एक कुम्हार की कुटिया में रहने लगे। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे। लाक्षागृह
की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का
निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि
निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की
प्रत्यंचा पर चढ़ाकर, दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे, लक्ष्य को
भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा। ब्राह्मणवेश में
पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुंचे। कर्ण
ने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा तो ली थी, किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करने से इनकार कर दिया था, अत: कर्ण द्वारा लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में
पहुंचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय ज़रूर बन गया कि एक ब्राह्मण को क्षत्रीय कन्या क्यों दी गयी है। परन्तु श्री कृष्ण के बीच-बचाव से बात सुलट गयी । जब अर्जुन और भीम
द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुंचे और माता कुंती से यह कहा कि वे लोग 'कुछ' लेकर लाये
हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से ही आदेशा दे दिया कि सभी मिलकर उसे
ग्रहण करो। लेकिन साक्षात् पुत्रवधू को देखकर अपने वचन का मान रखने के लिए कुंती ने
पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। यह वह कथा है जो कही जाती है ।
परन्तु माता कुंती का यह आदेशा कि, जो भी 'वस्तु' तुम लोग लेकर आये हो, आपस में बाँट लो, और एक 'स्त्री' को 'वस्तु' मान कर सबने बाँट लिया ! यह बात गले नहीं उतरती, सबसे बड़ी बात 'व्यक्ति' और 'वस्तु' में फर्क तो होता ही है, मेरे विचार से कारण कुछ और ही होगा।
हो सकता है, वन-वन घूमते हुए पांडवों के लिए विवाह योग्य कन्या पाना कठिन था, कोई अपनी पुत्री देना ही न चाहता हो ऐसे लोगों को जिनका, रहने-खाने का कोई ठिकाना नहीं था, शायद पांच स्त्रियों का भरण पोषण उन हालात में कठिन होता, यह भी हो सकता है, ग्यारह लोगों की भीड़ लेकर अज्ञातवास में रहना दुर्गम होता, कौन जाने माता कुंती के इस निर्णय के पीछे कारण क्या था ?? कारण जो भी रहा हो, इस निर्णय को स्वीकार करने की हिम्मत द्रौपदी ने की थी। पोलिगैमी का ऐसा स्वीकार्य उदाहरण, दूसरा फिर नज़र नहीं आया है। यह बहुत ही बड़ा उदाहरण है 'पोलिगैमी' का..
परन्तु माता कुंती का यह आदेशा कि, जो भी 'वस्तु' तुम लोग लेकर आये हो, आपस में बाँट लो, और एक 'स्त्री' को 'वस्तु' मान कर सबने बाँट लिया ! यह बात गले नहीं उतरती, सबसे बड़ी बात 'व्यक्ति' और 'वस्तु' में फर्क तो होता ही है, मेरे विचार से कारण कुछ और ही होगा।
हो सकता है, वन-वन घूमते हुए पांडवों के लिए विवाह योग्य कन्या पाना कठिन था, कोई अपनी पुत्री देना ही न चाहता हो ऐसे लोगों को जिनका, रहने-खाने का कोई ठिकाना नहीं था, शायद पांच स्त्रियों का भरण पोषण उन हालात में कठिन होता, यह भी हो सकता है, ग्यारह लोगों की भीड़ लेकर अज्ञातवास में रहना दुर्गम होता, कौन जाने माता कुंती के इस निर्णय के पीछे कारण क्या था ?? कारण जो भी रहा हो, इस निर्णय को स्वीकार करने की हिम्मत द्रौपदी ने की थी। पोलिगैमी का ऐसा स्वीकार्य उदाहरण, दूसरा फिर नज़र नहीं आया है। यह बहुत ही बड़ा उदाहरण है 'पोलिगैमी' का..
द्रौपदी ने पांच पांडवों से पांच पुत्रों की प्राप्ति की। उनके पुत्रों का नाम क्रमश:
- प्रतिविंध्य (युधिष्ठिर पुत्र),
- श्रुतसोम (भीम पुत्र),
- श्रुतकर्मा (अर्जुन पुत्र),
- शतानीक (नकुल पुत्र),
- श्रुतसेन (सहदेव पुत्र) रखे गये ।
कुंती
पृथा (कुंती) महाराज शूरसेन की बेटी और वसुदेव की बहन थीं। शूरसेन के
ममेरे भाई कुंतिभोज ने पृथा को माँगकर अपने यहाँ रखा। इससे उनका नाम
'कुंती' पड़ गया। पृथा को दुर्वासा ऋषि
ने एक मंत्र बतला दिया था जिसके द्वारा वे किसी देवता का आवाहन करके उससे
संतान प्राप्त कर सकती थीं। विवाह से पूर्व ही कुंती ने इस मन्त्र का उपयोग, सूर्य देवता का आवाहन करके किया, यह भी हो सकता है किसी पुरुष के सान्निध्य से जिनका नाम सूर्य था, एक पुत्र रत्न प्राप्त किया था, जिसका नाम कर्ण रखा गया, परन्तु विवाह पूर्व की गयी इस भूल से प्राप्त पुत्र को कुंती अपना न सकीं, फलतः कर्ण का उन्हें त्याग करना पड़ा। कर्ण का लालन-पालन एक सूत अर्थात सारथि के घर पर हुआ, फलतः वो सूत-पुत्र ही कहलाये ।
समय आने पर स्वयंवर-सभा में कुंती ने हस्तिनापुर नरेश पाण्डु को
जयमाला पहनाकर पति रूप में स्वीकार कर लिया।
महर्षि दुर्वासा का वरदान
कहा जाता है कि, राजा पाण्डु ने शिकार करते हुए, मैथुन-रत मृग की हत्या की थी, और मरते हुए मृग ने श्राप दिया था, कि जब भी राजा पाण्डु रति-क्रीड़ा करेंगे उनकी मृत्यु अवश्यम्भावी होगी, पाण्डु के शापित हो जाने से, जब उन्हें संतान उत्पन्न करने की रोक
हो गई, तब कुंती ने महर्षि दुर्वासा के वरदान के बारे में नरेश पाण्डु को बताया। यह सुनने से
महाराज पाण्डु को सहारा मिल गया। उनकी अनुमति पाकर कुंती ने धर्मराज के
द्वारा युधिष्ठिर को, वायु के द्वारा भीमसेन को और इन्द्र के द्वारा अर्जुन को उत्पन्न किया। परन्तु सोचने वाली बात यह भी है, अगर मंत्रोच्चारण से ही कर्ण का जन्म हुआ था, तो उसे त्यागना कहाँ तक उचित था ??? और इसकी आवश्यकता भी क्या थी?? बाद में माद्री जो कुंती की सौत थी, को उसी मन्त्र से दो पुत्र प्राप्त हुए, नकुल और सहदेव, पिता अश्विनी कुमार थे। क्या इसे हम 'स्पर्म डोनर' के अंतर्गत कह सकते हैं ??? क्या पता आज जिस वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग हो रहा है, उस ज़माने भी रही होगी। आख़िर विज्ञान तब भी बहुत विकसित था।
तारा
तारा प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण के अनुसार बालि की पत्नी व सुषेण की पुत्री थी। रावण की भरी सभा अपना पैर गाड़ने वाला अंगद तारा का ही पुत्र था। रामायण में श्रीराम ने बालि का वध किया था । बालि की मृत्यु के उपरांत तारा का विवाह बालि के छोटे भाई सुग्रीव से हुआ था। यह उदाहरण है, विधवा-विवाह का । तारा पंचकन्याओं में से एक है।
एक और उदाहरण मिलता है ऐसे ही विवाह का और वह है मंदोदरी का विवाह ।
मंदोदरी
मंदोदरी रामकथा-काव्यों में मन्दोदरी का चरित्र वर्णित हुआ है।इसके पिता का नाम मयासुर था तथा माता रम्भा नामक अप्सरा थी। मन्दोदरी का विवाह रावण से हुआ था तथा इससे रावण के इन्द्रजित नामक पुत्र भी उत्पन्न हुआ था।
मंदोदरी ही एक अकेली थी जिसने महाबली रावण का खुल कर विरोध किया था, जिस कारण सीता को अशोकवन में रखा गया था, यहाँ तक भी कहा जाता है सीता मंदोदरी की पुत्री थी, जिसका जन्म किसी ऋषि के संसर्ग से हुआ था, हो सकता है, यह कुछ हद तक सच भी हो, शायद यही कारण हो रावण, ईर्ष्या या क्रोधवश सीता को राजा जनक के खेत में फेंक आया था। रावण की मृत्यु के पश्चात, मंदोदरी का विवाह विभीषण से हुआ था । मंदोदरी पंचकन्याओं में से एक थी।
ये पाँचों स्त्रियाँ इसलिए पूज्य हैं क्योंकि ये समय से बहुत आगे थीं, इन्होने अपने अधिकार का सदुपयोग किया, इन्होने वही किया जो इन्हें उचित लगा।
ठीक वैसे ही ईसा मसीह की माँ, मरियम ने न सिर्फ कुँवारी माँ बन कर दिखा दिया, बल्कि अपने पुत्र को भगवान् का सबसे प्रिय बेटा भी साबित करवा दिया ।
पुरुष समाज ने न जाने कितनी ही किंवदंतियों का सहारा लेकर, इन स्त्रियों द्वारा उठाये गए कदमों को खूबसूरत मोड़ देने की कोशिश की है, लेकिन सत्य की कसौटी और तर्क की अग्नि में तप कर जो एक खरी सी बात, सामने आती है, वो सिर्फ इतनी ही है, कि पुरुष प्रधान समाज के मुँह पर इन पाचों स्त्रियों के तमाचों की आवाज़ आज तक गूँज रही है, इतना ही नहीं, इनके आगे आज भी पुरुष वर्ग नतमस्तक है और जब तक यह धरती रहेगी पुरुषों का सिर इनके सामने झुका ही रहेगा ।
हो सकता है मेरी बातों से, बहुतों को इत्तेफाक ना हो, हो सकता है मुझे कोपभाजन भी बनना पड़े, लेकिन चीज़ों को तार्किक नज़र से देखना मेरी आदत है, जब कोई बात कोई सेन्स न करे तो मैं उसमें सेन्स ढूँढने की कोशिश करती हूँ। आप मेरी बातों का जवाब, असहमति, आपत्ति, सहमती, सबकुछ सलीके से दीजिये आपका स्वागत है, बाकी फ़ालतू बातें मेरे पोस्ट पर, या मेरे ब्लॉग पर नहीं सुनी जायेंगी।
आज से मैं अपना कमेन्ट बॉक्स खोल रही हूँ, और इसका सारा श्रेय देना चाहूंगी अनूप शुक्ला जी को, जिनका मैं बहुत सम्मान करती हूँ।
(कुछ समस्या है, कमेन्ट बॉक्स नज़र नहीं आ रहा है ..मैं इसपर काम कर रही हूँ, क्षमाप्रार्थी हूँ )
हाँ नहीं तो !!