Friday, December 21, 2012

मुझे 'भोग्या' शब्द से सख्त आपत्ति है....!

अरे ! लड़का जात है, अब ई सब नहीं करेगा तो का करेगा !!
अरे उसका का है ऊ तो लड़का है, तुम लड़की हो तुमको न सोचना है !!
तो का हुआ लड़का है, कौनो मौगी थोड़े ही न है, उसको यही सब सोभा देता है !!

ऐसी बातें तो बहुत आम सुनने को मिलतीं ही रहीं हैं। जिस तरह फ़िल्मी अंदाज़ में ये हादसा हुआ है, एक चलती बस पर, तो कई फिल्में भी याद आ गयी। और ये भी लगा कि, कला के नाम पर वर्षों से इन कला के ठेकेदारों ने क्या-क्या नहीं परोसा है समाज को !! कहते हैं, फिल्में समाज का दर्पण होतीं हैं। और इनमें समाज को बदलने की शक्ति होती है। फिल्में बनाने की भी एक रेसेपी होती है। कहते हैं समाज को जो पसंद आता है, वही फिल्मों में परोसा जाता है। कला के नाम पर, और समाज को बदलने के जज़्बे से ओत-प्रोत फिल्मकार, हर मसाला फिल्म में एक 'रेप' सीन का होना नितांत अनिवार्य बना गए। बिना इस सीन के फिल्म कभी पूरी ही नहीं हो पाती थी/है। और यही सीन उस फिल्म का सबसे अहम् सीन होता था/है। तो मतलब ये हुआ, कि ऐसे सीन लोगों की पसंद होती है, अब 'लोग' में नारियां भी आतीं हैं, और मुझे पूरा विश्वास है, खुद की अस्मिता की ऐसी भद्द-पिटाई हम नारियां तो नहीं ही चाहती होंगी। तो बाकी के 'लोग' कौन बचे जिनकी पसंद को मद्दे नज़र रखते हुए, इसे प्रस्तुत किया जाता है, पुरुष ही न बचे !!!  यही बचे हुए 'लोग' चटखारे ले-ले कर उस सीन की बात करते हैं। कई-कई बार उसी सीन को देखने जाते हैं । फिल्मों में कभी सामूहिक बलात्कार, कभी एकल बलात्कार, मनोरंजन से वंचित पुरुषत्व धारी, बेचारे पुरुषों के लिए श्रेष्ठ मनोरंजन का साधन था और अब भी है। ये सब दिखा कर फिल्म मेकर्स ने, न सिर्फ इस जहालत को मान्यता दी है, बल्कि इसे अंजाम देने के तरह-तरह के गुर भी सिखाये हैं। तो गोया, बलात्कार डिक्लेयर्ड मनोरंजन था और अब भी है। अब फर्क सिर्फ इतना है, 'कौन बनेगा बलात्कारी' की तर्ज़ पर लोग अपना रियालिटी शो बनाते हैं, और इसमें अब बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लेते  हैं।

दिल्ली का सामूहिक बलात्कार कांड इतनी सुर्ख़ियों में सिर्फ इसलिए आया, क्योंकि उस अभागिन के साथ न सिर्फ बलात्कार हुआ, उसके शरीर को भी तहस-नहस कर दिया गया। अगर सिर्फ बलात्कार हुआ होता, या फिर जान भी ले ली जाती, तो ये हादसा भी, दूसरे हादसों की तरह, बड़े आराम से, पुलिस की फ़ाईलों में गुम हो चुका होता। ये तो, पीडिता की चोटें इतनी गंभीर थीं, जितनी गंभीर चोटें देख कर डाक्टर तक सकते में आ गए थे , इसलिए यह मामला जम कर सामने आ गया। वर्ना ये भी किसी गताल-खाता में दफ़न हो चुका  होता और शीला दीक्षित, बयान दे चुकीं होती, 'कहा था न मैंने रात में बाहर मत निकला करो। बात ही नहीं मानतीं हैं आज कल की लडकियां, मुझे देखो मैं तो दिन में भी अकेली नहीं निकलती बाहर। हर वक्त एक जत्था होता है मेरे साथ।'

वैसे भी बलात्कार तो कभी 'रीयल क्राईम' की श्रेणी में आया ही नहीं है। इसे एक घटना से ज्यदा कुछ नहीं समझा जाता है। बलात्कार हुई नारी से, पुलिस, समाज, उसके अपने और बलात्कारी, बस इतनी ही उम्मीद करते हैं, कि वो अपने कपडे झाडे और उठ खड़ी हो और भूल जाए कि कहीं, कभी उसके साथ कुछ भी हुआ है। न वो खुद परेशान हो, न ही दूसरों को परेशान करे। क्योंकि बलात्कार करना कुछ पुरुष अपना  जन्मसिद्ध  अधिकार समझते हैं और बलात्कार होना स्त्री का कर्तव्य। यूँ ही तो स्त्री को 'भोग्या' नहीं कहा गया है। शर्म आती है सोच कर, नारी की बस इतनी ही औकात है ...'भोग्या' अर्थात भोग की वस्तु ...???? मुझे 'भोग्या' शब्द से सख्त आपत्ति है। 

अक्सर देखती हूँ, जब भी किसी बलात्कारी को मौत की सजा या जननांग काटने की सज़ा, की बात की जाती है, कुछ लोग फुर्ती से इन बातों को, अमानवीय, अनुचित और न जाने क्या क्या कह कर जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं । ऐसी फटाफट दलील का मकसद समझ में नहीं आता है। हाँ ! मन में एक संदेह ज़रूर सिर  उठता है, शायद उनको भी उनके अपने करम याद आ जाते होंगे, और एक भय भी घर कर जाता होगा, कहीं कल उनकी भी पोल-पट्टी न खुले और उनका भी जुलुस न निकले। वर्ना ये समझना भला कितना मुश्किल हो सकता है , कि बलात्कार करना क़त्ल करने के बराबर है। क्योंकि इस दुष्कर्म से गुजरी हुई नारी, हर दिन मरती है। एक हत्या, जब एक बार की जाती है, तो मुज़रिम बहुत बड़ी सज़ा का हक़दार हो जाता है, लेकिन जब कोई हत्यारा, हर दिन हत्या करता हो, तो उसकी सज़ा क्या होनी चाहिए, आप ख़ुद ही निर्धारित  कर लीजिये !

11 comments:

  1. .बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति फाँसी : पूर्ण समाधान नहीं

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  2. समाज कभी पुरूष प्रधान होता है तो कभी स्‍त्री प्रधान.... समानता का अभाव ही शायद इस प्रकार की मानसि‍क वृत्‍ति‍यों को जन्‍म देता है

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    1. काजल जी,
      स्त्री प्रधान समाज ?? आप किस युग की बात कर रहे हैं ?
      पिछले 2012 वर्षों में तो स्त्री-प्रधान समाज तथाकथित सभ्य दुनिया में तो नज़र नहीं आया है ....जंगल-उंगल में शायद होगा ऐसा समाज।
      पुरुषों ने बहुत साल तक राज कर के समाज की भद्द पीट ली, अब स्त्री-पुरुष बराबरी की धरातल पर आ जायें, तभी कल्याण होगा।
      आप आईडिया बहुत अच्छा देते हैं :)

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  3. सबका दोष बराबर दिखता,
    किससे सीखा, किससे पाया,
    साहस यह सब करने का,
    लाज न आयी, दया न आयी,
    सबका दोष बराबर दिखता।

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  4. एक कहावत है,"When the rape is inevitable, enjoy it " इसका निहितार्थ चाहे जो हो पर इसे बनाने वाले और इसका प्रयोग करने वालों की मानसिकता वैसी ही होगी, जैसा तुमने पोस्ट में वर्णित किया है।

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    1. this is told to all woman who learn self defense because this way they can save the brutal attack as that happened in delhi

      this is the first lesson in saving oneself from criminal assualt

      just clarifying

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  5. जब भी किसी बलात्कारी को मौत की सजा या जननांग काटने की सज़ा, की बात की जाती है, कुछ लोग फुर्ती से इन बातों को, अमानवीय, अनुचित और न जाने क्या क्या कह कर जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं । ऐसी फटाफट दलील का मकसद समझ में नहीं आता है। ....


    ..


    इन्हें ज़िंदा छोड़ने का मतलब है इन्ही के द्वारा और नए काण्ड को अंजाम देने की अपने हाथों शुरुआत करना ...

    मुझे यकीन है की ये काण्ड भी इन लोगों के लिए पहला नहीं रहा होगा .....

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  6. अदा
    भोग्या , पूरक इत्यादि सब शब्द भ्रान्ति हैं क्युकी ये केवल और केवल स्त्री को पुरुष की कामवासना की तृप्ति का साधन मानते हैं . विरोध करिये आपत्ति करिये , हम सब कर रहे हैं पर बदल कुछ नहीं रहा क्युकी जब सामाजिक बहिष्कार की बात होती हैं तो पुरुष को कोई ना कोई स्त्री अपने आँचल की छाव देती हैं और उसकी गलतियों की माफ़ करने की बात करती हैं . माँ , बहिन दोस्त पत्नी सब अपने रिश्ते के पुरुष को बचाती हैं इसलिये वो दूसरी स्त्री का दमन कर के भी पाक दामन बना रहता हैं

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    1. रचना जी,
      'पूरक' तो बहुत सही शब्द है ..स्त्री-पुरुष एक-दुसरे के पूरक हैं, जब ऐसा कहा जाता है तो कम से कम 50-50, 40-60, 90-10, 10-90 कुछ तो contribution नज़र आता है स्त्री का। लेकिन भोग्या ?? मेरे हिसाब से तो यह बहुत ही निकृष्ट शब्द है। भोग का अर्थ खाना भी होता है। इस शब्द को आगे लिए चलती हूँ, पुरुष को भोगी माना जाता है और स्त्री को भोग्या ????? what a shame !!! एकदम disgusting है ये।

      आपकी बातों से आंशिक रूप से सहमत हूँ। ऐसा सिर्फ उन केसेस में होता है, जो छुपे रह जाते हैं। बल्कि उनके छुपाये जाने में, स्त्रियों का भी हाथ होता है। लेकिन जो रेप केस सामने आते हैं, उनका हश्र ये होता है कि अधिकतर रेपिस्ट हमारे सिस्टम का फायदा उठा कर बच निकलते हैं। हमारे देश का कानून ही इतना लचर और दुरूह है कि इस में कोई पड़ना ही नहीं चाहता। जो पड़ जाते हैं वो इसके दांव-पेंच में ही सर फोड़ते रहते हैं और उनको न्याय नहीं मिल पाता। सबसे पहली ज़रुरत है न्यायपालिका में सुधार लाने की। अगर ऐसे हादसों की पुष्टि हो जाती है और रेपिस्ट पकड़ा जाता है तो कानूनी कार्यवाही अविलम्ब होनी चाहिए। कठोर से कठोर दंड का प्रावधान होना चाहिए। कुछ महीने, या कुछ साल सुधार गृह जैसी जगह में भेजने से काम नहीं चलेगा। बहुत सीवियर पनिशमेंट की ज़रुरत है। ताकि खौफ़ खाएं लोग ऐसी हरक़त के अंजाम से । स्कूल, कोलेजेस में, सड़कों पर, पुब्लिक प्लेसेज में, ओफ़िसेस में इसके अंजाम के पोस्टर्स लगने चाहिए। बच्चों को जब सेक्स की शिक्षा दी जा रही है स्कूल्ज में तो , सेक्स के दुरूपयोग की भी शिक्षा मिलनी चाहिए। अभी सरकार को बहुत अच्छा मौका ( मौका कहना बहुत गलत है लेकिन यहाँ कह रही हूँ ) मिला है, यही समय है कि कुछ ठोस कदम उठाये जाएँ।

      रेप विक्टिम के प्रति भी समाज के नज़रिए में बदलाव आना चाहिए। इस बदलाव के बिना भी काम नहीं चलेगा। रेप विक्टिम नारी और भी ज्यादा vulnerable होती है। वो खुद व्यक्तिगत रूप से होती ही है सामजिक रूप से भी होती है। सच पूछिए तो सामाजिक बहिष्कार रेप हुई नारी का ही होता है, रेप करने वाले का नहीं। यही मूल समस्या है और इसे हर हाल में बदलना होगा। समाज परिवार ऐसे हास्दों से गुजरी नारियों को सहज रूप में ले, उनको अपनाए, उन्हें किसी हाल में भी कम न आँका जाए। उनको बार-बार इस दुर्घटना से जोड़ा न जाए।

      पुरुषों को अपनी मानसिकता, अपनी नैतिकता के बारे में आकलन करना होगा। अधिकतर पुरुष रेप को बहुत सहज लेते हैं। बल्कि कई जगहों में तो रेप करना मर्दानगी की निशानी मानी जाती है। उनको अपनी सोच बदलनी होगी, तभी कुछ हो सकता है, वर्ना तो हम सभी हमेशा की तरह चीख पुकार करेंगे और एक नए हादसे का इंतज़ार करेंगे।

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  7. मानसिकता एक वही तो चीज़ है जो हमारे समाज की कभी बदलती नहीं ....यहाँ लड़कियों को सिखाया जाता है की रात को बहार मत जाओ,ऐसे कपडे मत पहनो ,ये मत करो वो मत करो तुम्हारी सुरक्षा के लिए अच्छा है ...पर कभी लडको को ये क्यूँ नहीं सिखाते की लड़की भी इन्सान है और आदरणीय है ....कोई भोग की वस्तु नहीं ......क्यूँ उन्हें नहीं सिखाते की रेप करना गलत है ......

    और कभी कोई लड़की इस हवानियत का शिकार भी हो जाये तो भी दोषी वही मानी जाती है ..............और पुलिस और समाज उसे ही चरित्रहीन साबित करने की मुहीम में जुट जाते है ........... ऐसी मानसिकता वाले समाज में ..... लडकियों की सुरक्षा और पीड़िताओं को इन्साफ मिलने की कितनी उम्मीद की जा सकती है

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  8. यह शब्द आपत्ति के ही काबिल है।

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