(अगले एक महीने तक, ब्लॉग पर आती-जाती रहूंगी। इस वक्त कनाडा से दूर (ब्रसेल्स में) हूँ और भारत के करीब, बस कुछ ही घंटों में भारत पहुँच जाऊँगी )
ऐसा क्यों होता है, किसी भी सफ़र में जब, ख़ामोशी की दीवार टूटती है तो, बीच का अटपटापन बाकी नहीं रहता। बातें, मौसम, देश की राजनीति से होती हुई, व्यक्तिगत बातों तक आ जातीं हैं। बातों के प्रवाह में, गजब की गति आ जाती है। सहयात्री की फ़िक्र तक हो जाती है, उसका साथ यूँ लगता है, जैसे अब कभी छूटने वाला ही नहीं है, लेकिन मंजिल पर पहुँचते ही, रास्ते यूँ जुदा हो जाते हैं, जैसे कभी मिले ही नहीं। फिर कभी उस सहयात्री का, न ख़याल सताता है, न ही चेहरा याद रह जाता है। लेकिन इस बार मेरे लिए ये सफ़र, थोडा अलग सा, थोडा हट कर था, कुछ अनूठा ही था ।
ऐसा क्यों होता है, किसी भी सफ़र में जब, ख़ामोशी की दीवार टूटती है तो, बीच का अटपटापन बाकी नहीं रहता। बातें, मौसम, देश की राजनीति से होती हुई, व्यक्तिगत बातों तक आ जातीं हैं। बातों के प्रवाह में, गजब की गति आ जाती है। सहयात्री की फ़िक्र तक हो जाती है, उसका साथ यूँ लगता है, जैसे अब कभी छूटने वाला ही नहीं है, लेकिन मंजिल पर पहुँचते ही, रास्ते यूँ जुदा हो जाते हैं, जैसे कभी मिले ही नहीं। फिर कभी उस सहयात्री का, न ख़याल सताता है, न ही चेहरा याद रह जाता है। लेकिन इस बार मेरे लिए ये सफ़र, थोडा अलग सा, थोडा हट कर था, कुछ अनूठा ही था ।
आज भी राँची से भुवनेश्वर का सफ़र तय करना था, ट्रेन से। अपने नियत समय, रात 8.30 बजे तपस्विनी, राँची के प्लैटफार्म पर धड़धड़ाती हुई आई और इंसानी रेले, इस रेल में समाते चले गए। मैं भी इसी रेले का हिस्सा बना, पहुँच ही गया अपने लिए, आवन्टित स्थान पर। बर्थ देखकर ही मन बुझ गया। मुझे कभी भी बीच वाली बर्थ पसंद नहीं आती है, लेकिन आज मेरी किस्मत में, बीच वाली बर्थ ही लिखी थी। खुद को कोसा, दूसरी ट्रेन लेनी चाहिए थी। लेकिन तुरंत ही मन को समझा लिया, इस ट्रेन में सफ़र करने की, सबसे बड़ी सहूलियत ये है, कि ये रात 8.30 बजे राँची से चलती है और सुबह 7.30 भुवनेश्वर पहुँच जाती है। रात भर का सफ़र बहुत आसान है, बस चद्दर तानो और सुत जाओ, फिर अल-सुबह, यानि मुंह अँधेरे, जब उठो तो खुद को भुवनेश्वर में पाओ। प्रीटी ईजी हुमम :)
बर्थ पर चादर बिछा लिया, तकिया भूरे लिफ़ाफ़े से निकाल कर, नियत जगह पर रख लिया, लैपटॉप सिर की तरफ ही रखा, क्या भरोसा बाबा, कब किसकी नियत ख़राब हो जाए। कम्बल ठीक से ओढ़ लेने के बाद, मैंने अपने अडोस-पड़ोस का मुआयना किया। मेरी सामने वाली बर्थ पर कोई था, जो नींद के हवाले हो चुका था। नीचे वाली बर्थ पर एक महिला, किताब में नज़रें गडाए लेटी हुई थी। उसे देख कर, घुटती हुई बीच वाली बर्थ पर मुझे, अपने फेफड़ों में ताज़ी हवा का अहसास हुआ। हालांकि वो ऐसी नहीं थी, कि उसे देखते ही कोई मर-मिटे, लेकिन ऐसी भी नहीं थी, कि उसे अनदेखा किया जाए।
शायद मेरे घूरने का अहसास उसे हुआ था, उसने नज़रें उठा कर मुझे देख ही लिया। नज़रें मिलते ही मैंने, अभिवादन किया और मुस्कुरा दिया। बदले में उसने भी, एक प्यारी सी मुस्कान उछाल दी मेरी ओर । मेरे लिए ये बड़ा अप्रत्याशित था, लेकिन मन कूद गया था, मन मांगी मुराद जो मिली थी। चलो कम से कम, ये बोरिंग सा सफ़र, अब उतनी बोरिंग नहीं होगी । मैं बीच-बीच में उसे, ऊपर लेट कर देखता रहा, और अपनी नयन क्षुधा बुझाता रहा। फिर न जाने कब, मेरी आँख लग गयी। पटरियों पर ट्रेन के दौड़ते पहिये, लगातार लोरी सुना रहे थे और पूरे डब्बे में नींद पसरती चली गई।
मेरी नींद अचानक खुल गयी, लगा जैसे बहुत देर से, ट्रेन की खटर-खटर की आवाज़ नहीं आ रही है। यात्रियों से पूछने पर मालूम हुआ, ट्रेन तीन घंटे से किसी जंगल में रुकी हुई है। राजधानी आज लेट है और जब-तक वो नहीं निकल जाती, हमें जाने की इजाज़त नहीं है।
खिड़की के बाहर घुप्प अँधेरा पसरा हुआ था, और महीन बारिश के छीटें, जुगनुओं से चमक रहे थे। डब्बे के अन्दर रूई से बादल उतर आये थे, जिससे अन्दर सर्दी और बढ़ गयी थी। ये रेलवे अधिकारी, पता नहीं क्यों, वातानुकूलित कक्ष को, इतना ठंडा कर देते हैं कि ठण्ड के मारे गुस्सा आ जाता है। एक परिचारक पास से ही गुजर रहा था, उससे कहा मैंने, यार बहुत ठंडा कर दिया है तुम लोगों ने, थोडा कम करो भाई। साब ! रेगुलेटर ख़राब है, कम नहीं हो सकता है। कहिये तो, एक और कम्बल दे सकता हूँ। कौन सी नयी बात है, हमेशा ही रेगुलेटर काम नहीं करता, चल यार वही दे दे। कम्बल मिल जाने से थोड़ी रहत मिली और मैं फिर नींद के आगोश में चला गया।
सुबह पौ फट रही थी और मेरी नींद भी खुल गई। खिडकियों पर कोहरे के भाप, अभी भी छाये हुए थे लेकिन निचली बर्थ पर तो, उजाला ही उजाला था। बिना हाथ-मुंह धोये हुए, अलसाई आँखें कितनी खूबसूरत लगतीं हैं। मैं खुद से ही बाज़ी लगा रहा था, मानना पड़ेगा, बड़ी खूबसूरत आँखें हैं, कोई भी इन में झाँक कर बेहोश हो जाए और ओपन हार्ट सर्जरी करवा ले। हम दोनों की नज़रें फिर मिली, मैंने गुड मोर्निंग कहा और नीचे उतरने का उपक्रम करने लगा। मुझे नीचे आता देख, उसने अपने बर्थ से चादर हटा दिया और मेरे लिए जगह बना दी। उधर सूरज की किरणे नज़र आने लगीं थी और मेरे दिमाग में भी आशा की किरणें सर उठाने लगीं थीं।
मैं उसकी बर्थ पर बैठ चुका था, अपना परिचय दिया मैंने और बदले में उसने तपाक से, बड़ी ही गर्मजोशी से हाथ बढाया और पटुता से कहा 'नमिता फ्रॉम रांची'। उसका इस बेबाकी से हाथ बढ़ा देना, मैं सकते में आ गया था, ख़ुद को सम्हालते हुए, हौले से मैंने उसका हाथ थाम लिया। मंत्रमुग्ध सा मैं उसे देखता रहा और उसका स्पर्श सोख लिया मैंने। उसकी नर्म-गर्म हथेली और मेरे हाथों में उतर आया ठंडा पसीना, मेरे बदन में चींटियाँ रेंग गयीं थीं। उसकी बोलती हुई आँखें, उन आँखों का पैनापन, और उन आँखों की प्रयासहीन अभिव्यक्ति, उस घुटे हुए वातावरण में ताज़गी का बयार थी।
उसका मुझे देख कर मुस्कुराना, मुझे अपने बर्थ पर बैठने के लिए जगह देना, अपना नाम बताना और मुझसे हाथ मिलाना, इस बात की चुगली खा रहे थे, कि वो मुझसे बहुत इम्प्रेस्ड थी। इस ख्याल से ही मन, शरीर तपने लगे थे। मैंने छुपी नज़रों से, अनुमान लगाना शुरू कर दिया था, शायद इसकी उम्र तीस होगी। गोल चेहरा, छोटी सी नाक, आखें तो बस नीला समुन्दर। आज मुझे पहली बार, अपने बाल नहीं रंगने का अफ़सोस हुआ था। फिर दिल को तसल्ली दे दी थी, शायद कुछ महिलाएं बालों में सफेदी पसंद करती हैं।
मैंने पूछ ही लिया 'कहाँ जा रही हो ? उसके चमकीले सफ़ेद दाँत, और सुडौल होंठों पर मेरी नज़र टिक गयी, 'मेरे हसबैंड छह महीने से भुवनेश्वर में हैं, एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में, उनके पास ही जा रही हूँ।' 'हसबैंड' ! ये शब्द मुझे हथौड़े की तरह लगा था। जी हाँ, देखिये न उनको अकेले रहना पड़ रहा है, पूरे छह महीने हो गए हैं। मैं हर महीने जाती हूँ उनके पास। उनका भी दिल कहाँ लगता है, हमारे बिना। लव मैरेज है न हमारी। दरअसल हम कॉलेज में साथ-साथ थे। सोचा तो नहीं था मैंने, कि कभी ऐसा भी होगा, लेकिन हो ही गया। जिस दिन मैं वापिस आती हूँ, बेचारे मेरे वो, उसी दिन से मेरा इंतज़ार करना शुरू कर देते हैं। ......... वो बोलती जा रही थी और मेरा जबड़ा लटकता जा रहा था। कहीं अन्दर, दिल के अन्दर ट्विन टावर में से एक टावर ढहता जा रहा था। मेरी आवाज़ बहुत मुश्किल से निकल रही थी। लेकिन बात तो आगे भी बढानी थी, पुछा था मैंने 'कब लौट रही हो रांची ?' उसने उतनी ही अदा से कहा ,'बस दो दिन में, मेरे बच्चों के एक्जाम्स हैं, मेरा बड़ा बेटा एम् .ए कर रहा है और बिटिया फिजिक्स आनर्स। इतने बड़े हो गए हैं, लेकिन मैं न रहूँ तो कोई काम नहीं होता उनसे। मेरा बेटा तो हमेशा कहता है, मोम यू आर दी कूलेस्ट मोम इन दी होल वर्ल्ड। ' ऐसा कहते हुए उसकी चमकीली आँखों में गज़ब का संतोष था। मेरे अन्दर दूसरा ट्विन टावर भी ढह गया था।
खिड़की के बाहर, दूर-दूर तक फैली हुईं पर्वतमालाएँ, निद्रामग्न तपस्विनी सी लग रहीं थीं, और उनके नीचे बसे हुए शहर, कितने बौने !!