Thursday, November 15, 2012

यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ..?


मंजू दी, बस देख रहीं थीं, अपने सामने, अस्पताल के बेड पर पड़े, रमेश जीजा जी के निर्जीव शरीर को। छह फीट का इंसान, चार फीट का कैसे हो जाता है ?  वो चेहरा जो कभी, मन मंदिर का देवता था ..आज ....!!! मंजू दी की आँखों में, अजीब सा धुँवा समाने लगा था। पुरानी संदूक से निकले, फटे चीथड़ों सी यादें , आँखों के सामने, लहराने लगीं, पर एक मुट्ठी लम्हा भी वो, समेट नहीं पायीं, जो उनका अपना होता। उनकी आँखों में सूखे सपनों की चुभन, हमेशा की तरह, आज भी उन्हें महसूस हो रही थी। 

मंजू दी को आज, नियमतः रोना चाहिए था, क्योंकि आज वो विधवा हो गयीं हैं,  और यह विधान भी है, लेकिन वो चाह कर भी रो नहीं पा रही थी। अन्दर ही अन्दर वो, आधी कीचड़ में डूब गईं थीं, अगर जो, कहीं वो रो पड़ीं, तो शायद भरभरा कर ढह जायेंगी। कमरे में डॉक्टर, नर्स,  मशीनों को और जाने क्या-क्या, अगड़म-बगड़म समेटने में लगे हुए थे। सबके चेहरों पर, वही रटी-रटाई ख़ामोशी की चादर, चढ़ी हुई थी। कुछ इस्पाती नज़रें, मंजू दी पर, इस आस से टिकी हुई थीं, कि अब उन्हें बुक्का फाड़ के रोना चाहिए। लेकिन उनकी आशा के विपरीत, मंजू दी ने अपना पर्स उठाया, डॉक्टर से कहा कि, बोडी मेरा छोटा भाई ले जाएगा। डॉक्टर ने अपनी तरफ से, उन्हें याद भी दिलाया, मिसेज पाण्डेय आई एम रीअली सॉरी फ़ॉर योर लोस...वी डिड आवर बे ... बीच में ही मंजू दी ने बात काट दी, इट्स ओ . के ....रीअली ...और वो इत्मीनान से बाहर निकल आयीं।

मंजू दी की 30 साल की गृहस्थी में से, 25 साल की गृहस्थी की, कुल जमा पूँजी थी, अविश्वास और धोखा। रमेश पाण्डे, अपने आप में, एक बड़ा ही मशहूर नाम था, उस ज़माने में, ख़ास करके रांची जैसी छोटी जगह के लिए। हैंडसम इतना कि, ग्रीक गॉड पानी भरते नज़र आते थे, उसपर से उनका डॉक्टर होना, मतलब ये कि, एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। अगर जे डॉक्टर नहीं बनते, तो हीरो बन ही जाते, धर्मेन्द्र भी उनसे उन्नीस ही पड़ते। 

मंजू दी मेरी मौसेरी बहन थीं। मेरी मौसी ने, एक चाईनीज डेंटिस्ट से शादी की थी। रांची में पहले सारे डेंटिस्ट चाईनीज ही हुआ करते थे। खैर, मेरे चाईनीज मौसा का क्लिनिक, रांची के बहुत ही मेन इलाके में था/है, और उनका नाम भी बहुत था, इसलिए मेरी मौसी का घर, रांची के गिने-चुने अमीरों में माना जाता था। कालान्तर में मौसी के, दो बच्चे हुए , मंजू दी और प्रदीप भैया। पैसा, पावर, पोजीशन ने, हमेशा ही, हमारे परिवार के बीच एक फासला रखा। ऐसा नहीं था, कि हमारे परिवार के बीच, प्रेम नहीं था, था बिलकुल था, लेकिन कहीं, कोई एक अनकहा सा फासला तो था ही। 

मंजू दी, उन दिनों मास्टर्स कर रहीं थीं। पता नहीं क्यूँ, अचानक उनके बाल बहुत गिरने लगे। सारे घरेलू नुस्खे आजमा लिए गए, लेकिन कुछ कारगर नहीं हुआ। हार कर उन्होंने डॉक्टर के पास जाना ही, उचित समझा। खैर, किसी ने नाम बता दिया, डॉक्टर रमेश पाण्डे, बहुत अच्छे हैं ऐसी बातों के लिए। बस मंजू दी पहुँच गई उनको दिखाने। डॉक्टर रमेश की दवा का असर हुआ या नहीं, ये तो मालूम नहीं, लेकिन, डॉक्टर रमेश का असर ज़रूर हुआ था। फिर, जैसा कि होता है, ख्वाहिशों, सपनों ने, हकीक़त के मुखौटे पहन लिए। शिद्दत ने, मुद्दत की मियाद कम कर दी और एक दिन, मंजू दी, मिसेज पाण्डे बन गयीं। मैं छोटी थी, लेकिन गयी थी उनकी शादी में, बाल मंजू दी के, कम ही दिखे थे मुझे, लेकिन चेहरे पर खुशियों का अम्बार लगा हुआ था। मौसी भी फूली नहीं समा रही थी, सबकुछ पिक्चर परफेक्ट लग रहा था।

थोड़े ही दिनों में, डॉ. रमेश, जो अब मेरे जीजा जी भी थे, ने अपना क्लिनिक, मौसी के क्लिनिक में शिफ्ट कर लिया, जगह के बदलते और एक नामी क्लिनिक में जगह मिलते ही, रमेश जीजाजी की प्रैक्टिस चमचमा गई। मंजू दी, की ज़िन्दगी बड़े सुकून से बीतने लगी, और इसी बीच उनकी, 2 बेटियाँ भी हो गयीं। 

अब, प्रदीप भैया (मंजू दी के छोटे भाई) की भी शादी हो गयी। घर में जब, नयी बहु आई, तो हिस्से की बात भी हुई, वो क्लिनिक जिस में, रमेश जीजाजी ने, अपनी प्रैक्टिस चला रखी थी, अब प्रदीप भैया को भी चाहिए थी, क्योंकि प्रदीप भैया भी डेंटिस्ट थे। यहीं से खटराग शुरू हो गया।  रमेश जीजाजी, जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे और प्रदीप भैया उनको देने को तैयार नहीं थे । मंजू दी, इनदोनो के बीच पिस रही थी। आखिर दीदी ने, जीजाजी से कह ही दिया, मेरे छोटे भाई का हक मैं नहीं मार सकती, आपको ये जगह छोडनी होगी। फ़ोकट की जगह छोड़ना, नयी जगह ढूंढना, फिर से क्लाएंट बनाना, उतना आसान नहीं था। फिर जीवन का स्तर भी तो बहुत ऊंचा था, वहाँ से नीचे उतरना भी कब किसे मंज़ूर होता है ! लेकिन, उसे मेंटेन करना भी मुश्किल था। 

खैर, रमेश जीजाजी ने, दूसरी जगह अपना क्लिनिक खोला, लेकिन वो बात नहीं बनी, वजह अब क्या थी, ये नहीं मालूम। किस्मत ने साथ नहीं दिया, या वो मेहनत से क़तरा  गए, पता नहीं, लेकिन, कुल मिला कर बात ये हुई, कि उनकी प्रैक्टिस लगभग ठप्प हो गयी। किसी के पास कुछ न हो, तो उसे उतना बुरा नहीं लगता है, संतोष कर लेता है इंसान, कि चलो जी, हमारे पास तो है ही नहीं। लेकिन अगर किसी को, सब कुछ मिल जाए और फिर छिन जाए, तो उसे झेल पाना उतना आसान नहीं होता। कुछ ऐसी ही हालत, रमेश जीजाजी की भी हो गयी थी, और इसी बात के लिए, एक तरह से उन्होंने दीदी को, सज़ा देना शुरू कर दिया। वो अपने क्लिनिक जाते ही नहीं, घर का ख़र्चा चलाना मुहाल हो गया, दीदी को हार कर नौकरी करनी पड़ी। ख़ैर, जैसे-तैसे मंजू दी ने सब सम्हाल लिया। देखते-देखते पांच साल बीत गए। रमेश जीजाजी ने, घर के लिए कुछ भी सोचना बंद कर दिया था, उनको हमेशा यही लगता कि, उनको, उनका हक नहीं मिला। 

ख़रामा-खरामा ज़िन्दगी, मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही थी, और मंजू दी अपने स्याह-सफ़ेद बेजान रिश्ते में रंग भरने की भरपूर कोशिश करती रही।  ये कोशिश शायद रंग भी ले आती, अगर उस दिन अप्रत्याशित रिश्तों का बम, अपने रिश्तों पर न फूटता। 

वो एक आम सी सुबह थी, मंजू दी हर दिन की तरह, सारे घर के काम निपटाने में लगी हुई थी, उसे ऑफिस भी तो भागना था। सुबह के आठ बजे थे, कॉल बेल  बजने की आवाज़ से ही, मंजू दी झुंझला गयी, कौन है ... का जवाब, जब नहीं ही मिला तो, उन्होंने दरवाज़ा खोल ही दिया। सामने एक औरत और उसके साथ 3 जवान लडकियां खड़ीं थीं, उन्हें लगा शायद कुछ बेचने, या चंदा माँगने आयीं हैं, झट से मना करके वो वापिस मुड़ी। जी हमें डॉ . रमेश पाण्डे जी से  मिलना है, एक लड़की ने कहा। अच्छा ! क्या काम है उनसे ? आपलोग क्लिनिक में क्यूँ नहीं जातीं, वो घर पर मरीजों को नहीं देखते हैं। जी हम मरीज नहीं हैं, ये मेरी माँ  हैं, थोड़ी अधेड़ उम्र की महिला की तरफ उस लड़की ने इशारा किया और हम तीनों बहनें हैं। डॉ . रमेश हमारे पिता हैं। क्याआआ ??? मंजू दी इतने जोर से चीखी, कि वो चारों भी एक बार को सहम गयीं। अब मंजू दी, आपे से बाहर हो गयीं, क्या समझती हो तुमलोग खुद को, किसी के घर पर आकर, कुछ भी अनाप-शनाप बक जाओगी। मंजू दी की आवाज़, बहुत तेज़ होती जा रही थी। शोर सुन कर रमेश जीजाजी भी आ गए, चारों स्त्रियों को देख कर, वो सकते में आ गए, उनकी चोर नज़रों ने,  इस बात की पुष्टि कर दी, कि वो चारों सच कह रहीं थीं। जीजाजी ने उनका सामान, जो उस दिन घर के अन्दर पहुँचाया, फिर कभी वो सामान बाहर नहीं आया । 

पथराना किसे कहते हैं, वो हमने तब ही देखा था। उस दिन दरवाज़े से कुछ, अनजाने, अनचाहे, अनबूझे रिश्ते अन्दर आये और, भरोसा, विश्वास, यकीन, जैसे भाव बाहर चले गए और साथ में चली गयी मंजू दी के होंठों की मुस्कान। रिश्तों की गर्माहट अब पूरी तरह ठंडी हो गयी थी। उसकी जगह शुरू हो गया, नित नए तजुर्बों का घाल-मेल, और नए ढर्रे से, पुराने रिश्तों को घसीटती हुई ज़िन्दगी। इत्ता बड़ा धोखा दिया था, रमेश जीजाजी ने। अपनी पहली शादी की बात, उन्होंने कभी नहीं बताई थी मंजू दी को, उसपर से 3 जवान लडकियां ? 

अब शुरू हो गयी, कभी न ख़त्म होने वाली, जिम्मेदारियों की दौड़। मंजू दी पर, अपनी दो बेटियों की जिम्मेदारी के अलावे, रमेश जीजाजी की 3 और बेटियों की जिम्मेदारी भी आ गयी। जद्दो-जहद की हर आंधी को चीरती हुई, मंजू दी आगे बढ़तीं गयीं, उन्होंने रमेश जीजाजी की, लड़कियों की शादी की, अपनी बच्चियों का पढाया-लिखाया, उनको अपने पैरों पर खड़ा किया। इसी बीच रमेश जीजा जी बीमार हो गए, उनकी तीमारदारी में भी, कभी कोई कमी नहीं की, मंजू दी ने। 

आज जीजाजी अपने जीवन की, आखरी घड़ियाँ गिन रहे थे अस्पताल में, और मंजू दी बैठीं थीं उनके सामने, उनकी आँखों में आँखें डाल कर, पूछ रहीं थीं उनसे, मैंने तो तुमसे माँगा था, हंसी-ख़ुशी का एक छोटा सा घोंसला, और तुमने मुझे थमा दिए, काले-पीले रंगों में लिथड़े कई अनचाहे रिश्ते । आखिर क्यों किया तुमने ऐसा ?   क्या जवाब देते जीजाजी, खैरात की ज़िन्दगी की मियाद पूरी हो चुकी थी और पाबन्दियाँ ख़त्म। और मैं सोचती रह गयी, यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ???

(पात्रों के नाम बदल दिए हैं ...)

10 comments:

  1. क्या चाहते हैं और क्या मिलता है जीवन में, सदा ही यह समझना रोचक होता है।

    ReplyDelete
  2. ओह!! बहुत ही दर्दनाक कथा .

    ज़िन्दगी कैसे कैसे रंग दिखाती है, जीवन में इतने सारे रंग भरकर नियति फिर उसे ताउम्र इरेजर से मिटाने की कोशिश करती रहती है . पर मंजू दी जैसी स्त्री है कि टूटती नहीं
    इतने सारे ठोकर खाकर, सारे सपने धूल में मिल जाने पर भी हौसला नहीं खोती . और एक उनके पति पहले तो खुद दो दो स्त्रियों को धोखा दिया और फिर जरा सा मन मुआफिक न होने पर सारा हौसला खोकर खुद बोझ बन बैठे।
    पता नहीं ईश्वर ऐसा अन्याय क्यूँ करता है या फिर जांच परख कर उनकी कश्ती को ही तूफ़ान में डाल देता है, जिनपर भरोसा होता है कि वे इसे सही सलामत निकाल ले जायेंगे .

    ReplyDelete
  3. 1950-1970 के बीच में ऐसी अनेक घटी घटना कहानी का रूप ले कर धर्मयुग से लेकर सरिता इत्यादि में कालांतर छपती रही हैं . तब पिता का नाम एक अनिवार्यता थी कानून इस लिये लोग पिता को / पति को सहेजते और दुलराते थे और औरत के लिये पति का परमेश्वर होना सत्य था , और ध्यान रहे परमेश्वर गलती नहीं करते . उस दौरान तमाम हिंदी फिल्मो का सेंटर पॉइंट भी यही होता था , एक अशोक कुमार की बहुत चर्चित फिल्म भी हैं यही कथा हैं कमोवेश .

    इस कहानी को आगे ले जाए , 5 लड़कियों के ऊपर इस सब का क्या असर हुआ , क्या बदलाव आया उनमे , उनमे से कितनी हेमा मालिनी की तरह विवाहित पुरुष से विवाह करके अलग रही या शिल्पा शेट्टी की तरह विवाहित पुरुष के तलाक लेने के बाद ही शादी की बहुत संभावनाए हैं अदा , उन 5 बहनों की कहानी में

    ReplyDelete
  4. जिन्दगी एक पहेली है या फ़िर साँप-सीढ़ी का खेल, मंज़िल तक पहुँचते पहुंचते एक ठोकर ऐसी लगती है कि सब स्वाहा..

    ReplyDelete
  5. अच्छी कहानी... वाकई भरोसा टूट जाये तो कुछ बचता नहीं गम करने को

    ReplyDelete