Monday, November 19, 2012

इक कली, जिस गली में बलि चढ़ गयी, वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे....

ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते, हम बनाते रहे, फिर मिटाते रहे 
थी वहीँ वो खड़ी इक हंसीं ज़िन्दगी, हम उससे मगर दूर जाते रहे 

रात रोई थी मिल के गले चाँद से, और अँधेरे, अँधेरा बढ़ाते रहे 
आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब, दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे 

बिखरे-बिखरे थे मेरे, वो सब फासले, हम करीने से उनको सजाते रहे 
अब समेटेंगे हम अपनी नज़दीकियाँ, दूरियों को गले से लगाते रहे 

वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे, और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं 
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे, बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे

कोई भूखा मरा मंदिर के द्वार पर, लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कली, जिस गली में बलि चढ़ गयी, वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे


और अब एक गीत ...इसे गाया है किशोर कुमार ने...लेकिन फिलहाल मैं गा रही हूँ...हाँ नहीं तो...!!
अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो (थोड़ा सा अलग करने की कोशिश की है...लगता है मिस फायर हो गया है :):) )

5 comments:

  1. मार्मिक ||
    सटीक प्रस्तुति ||

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  2. गहरा, यही विडम्बना है हमारी...

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  3. अदा जी इस रचना के लिए कहने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है... अद्भुत भाव

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  4. अब समेटेंगे हम अपनी नज़दीकियाँ,...waaah

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  5. सुबह-सुबह गाना सुनना बहुत अच्छा लगा।

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