अब !
मैं पाषाण हो गयी हूँ ।
मेरे फटे वस्त्रों, और टूटे-फूटे अवशेषों ने
अनगिनत घटनाएं झेल लीं।
अब !
जी करता है,
मैं ये मकाँ, हमेशा के लिए छोड़ जाऊं,
मुझसे जुडी हर चीज़,
बस यहीं रच-बस जाए।
कमरों में बिखरे कागजों में, मेरा बचपन,
टूटे बर्तनों में, मेरी जवानी, और
खाली मर्तबानों में, मेरा बुढ़ापा, चस्पा हो जाए,
ठण्ढे चूल्हे सी मेरी उम्मीदें, बुझ चुकीं हैं,
और टूटे लैम्प की पेंदी से,
मेरी उदासियाँ, टपक कर सर-ज़मीं हो गईं।
वो आरामकुर्सी,
जो कोने में पड़ी, ऊँघ रही है,
मेरे हर घुटे हुए सपने के पैबन्द से, पैबस्त है ।
हज़ारों साल बाद,
जब तुम, इस मकान की नींव खोदोगे,
तुम्हें, कुछ गिरी हुई दीवारें मिलेंगीं,
कुछ बर्तन मिलेंगे और मिलेंगे कुछ भांडे ।
मेरी याद का एक-एक टुकड़ा,
तुम्हें वरदान सा लगेगा,
लेकिन ...
लेकिन ...
उनकी त्रासदी, बस इतनी सी होगी,
तुम उनकी भाषा, कभी समझ नहीं पाओगे,
और
फ़जूल के अटकल ही लगाते रह जाओगे ....
फ़जूल के अटकल ही लगाते रह जाओगे ....
वाह! बहुत सुंदर, बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति मंगलवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteकारण और निवारण, दोनों ही स्पष्ट हैं, फिर भी बहस जारी है।
ReplyDeleteइन्हीं अटकलों में हमारी अपनी खोज होती है.
ReplyDeleteबहुत ही उदास कर गयी यह कविता
ReplyDeleteकभी कभी ऐसी ही मनोदशा हो जाती है कि बस पाषाण ही बन कर रह जाएँ
बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक भावनात्मक अभिव्यक्ति @मोहन भागवत जी-अब और बंटवारा नहीं
ReplyDeleteअति सुंदर कृति
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निराशा हावी न हो, हम तो यही आशा रखेंगे।
ReplyDeleteबहुत सुंदर....इन जानकारीपूर्ण पोस्ट के लिए बहुत धन्यवाद.
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