मुतमा-इन ज़िन्दगी से, कुछ ऐसे हुए जाते हैं
क़िस्मत के फटे चीथड़े, बेबस हो सीये जाते हैं
तेरा वजूद होगा, मेरे लिए भी लाज़िम
नामालूम सी ज़िन्दगी से, तन्हाई पिए जाते हैं
बर्क-ए-नज़र कितनी, गिरतीं रहीं हैं सर पर
बेअसर सर को अब तो, बा-असर किये जाते हैं
इक आरज़ू तो है ही, इक बहार खुल के आये
इस एक ऐतमाद पर, हम गुज़र किये जाते हैं
ग़र दुआ भी देंगे तुमको, तो कितनी दुआयें देंगे
साँसों के साथ उम्र भी, अब नज़र किये जाते हैं
हम वो नदी हैं जिसके, किनारे ग़ुमगश्ता हो गए
उन किनारों की ख़ोज में हम लहर लिए जाते हैं
हमको क्या पड़ी 'अदा', बहारें आये-जाएँ
मौसम-ए-रूह की हम, बस क़दर किये जाते हैं
मुतमा-इन = संतुष्ट
बर्क़-ए-नज़र = नज़रों की बिजलियाँ
ऐतमाद = विश्वास
लाज़िम = महत्वपूर्ण, आवश्यक
ग़ुमगश्ता=खोया हुआ
Aapka abhaar Shastri Ji !
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन संसद पर हमला, हम और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteअति सुन्दर!
ReplyDeleteबहुत उम्दा ग़ज़ल !
ReplyDeleteनई पोस्ट भाव -मछलियाँ
new post हाइगा -जानवर
मौसम-ए-रूह गजब है।
ReplyDeleteग़र दुआ भी देंगे तुमको, तो कितनी दुआयें देंगे
ReplyDeleteसाँसों के साथ उम्र भी, अब नज़र किये जाते हैं
...... आज तो आपकी गज़ल पढ़ कर आपका शेर आपकी ही नज़र :)
KHUBASURAT LAFZ AUR BEHATARIN AIHASAAS LIYE JAHIN GAZAL
ReplyDeleteहमको क्या पड़ी 'अदा', बहारें आये-जाएँ
ReplyDeleteमौसम-ए-रूह की हम, बस क़दर किये जाते हैं
क़द्र के बदले में कद्र जरूर मिलता है...यानी बहारों की कद्र की जाए तो बहारें भी आकर कद्र करेंगी...:)
सुन्दर ग़ज़ल
बहुत खूब, सीखना हुआ जा रहा है
ReplyDeleteआज नहीं तो कल, हर क्रिया की प्रतिक्रिया और हर कर्म का फ़ल मिलना है। रश्मि जी की बात का समर्थन करते हुये हम भी कहते हैं कि कदर किये जाईये, किये जाईये :)
ReplyDeleteसुन्दर
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