apni ek niyti hum khud bana lete hain...
bhtrin andaaz.akhtar khan akela kota rajsthan
इन ढाँचों से कहीं बड़ा है जीवन।
'चाल-चलन','सुन्दर-सुशील-घंरेलू',जैसे, खाँचे,संग अपने ले आती हूँ,उनमें फिट होने की कोशिश में,मैं, जीवन बिताती हूँ,हर नारी की यही दास्तान ...अच्छी प्रस्तुति
कुछ लीक पर, जीवन में कुछ नये रास्ते.
tasweer aapne ekdam kavitaa ke khaanche ki chun kar lagaayi hai...kabhi kavitaa padhte hain...kabhi tasweer dekhte hain....:)dono hi ek doosre ki poorak lag rahi hain...
खांचों में हर कोई जकड़ा हुआ है- अच्छा या बुरा :)
कोई आजाद नहीं है यहाँ पर, घोषित अघोषित खाँचों-साँचों में कसा है जीवन, और ताउम्र इसी जद्दोजहद में जीते हैं सब।हमेशा की तरह खूबसूरत रचना।
सबको इश्वर ने निश्चित खांचों में ही भेजा है..कर्त्तव्य कर्म की राह इन पूर्वनिर्धारित खांचो से मुक्ति द्वार तक ले जाती है..सुन्दर कविता आशुतोष की कलम से....: धर्मनिरपेक्षता, और सेकुलर श्वान : आयतित विचारधारा का भारतीय परिवेश में एक विश्लेषण:
इन खांचों में फिट होने की कोशिश करने के बजाय अपना स्वयं का खांचा बनने का प्रयास होना चाहिए..बहुत सुन्दर और भावमयी प्रस्तुति..
aur gaharaaiyaan ab bakhsh N hasrat mujh ko,kitne saagar to samete hai, ye saaghar meraa...
बहुत सुन्दर और भावमयी प्रस्तुति|धन्यवाद|
सही कहा ...खांचों और सांचों में जीते हैं हम ...इन बने बनाये खांचों से जरा बाहर झाँका तो विभिन्न उपाधियाँ और सर्टिफिकेट इन्तजार कर रहे होते हैं !
bilkul sahi kaha aapne
जैसे भी हो फिट तो होना ही पड़ता है खांचे में.
बहुत खूब ! वैसे खांचे किधर नहीं हैं इधर भी आवारा / लफूट या फिर फर्माबरदार / संस्कारी वगैरह वगैरह !अमूमन खाल और खोल से बाहर की दुनिया के निषेध का चलन हुआ करता है समाज में ! उसकी अपनी भी मजबूरियाँ हो सकती हैं इसके लिए !
अगर खांचे न हो भी तो बिखराव् है हाँ अगर अपने आप तय किये जाय तो व्यवस्थित हो जाय |बहुत बढिया भाव |
apni ek niyti hum khud bana lete hain...
ReplyDeletebhtrin andaaz.akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteइन ढाँचों से कहीं बड़ा है जीवन।
ReplyDelete'चाल-चलन',
ReplyDelete'सुन्दर-सुशील-घंरेलू',
जैसे, खाँचे,
संग अपने ले आती हूँ,
उनमें फिट होने की कोशिश में,
मैं, जीवन बिताती हूँ,
हर नारी की यही दास्तान ...अच्छी प्रस्तुति
कुछ लीक पर, जीवन में कुछ नये रास्ते.
ReplyDeletetasweer aapne ekdam kavitaa ke khaanche ki chun kar lagaayi hai...
ReplyDeletekabhi kavitaa padhte hain...
kabhi tasweer dekhte hain....
:)
dono hi ek doosre ki poorak lag rahi hain...
खांचों में हर कोई जकड़ा हुआ है- अच्छा या बुरा :)
ReplyDeleteकोई आजाद नहीं है यहाँ पर, घोषित अघोषित खाँचों-साँचों में कसा है जीवन, और ताउम्र इसी जद्दोजहद में जीते हैं सब।
ReplyDeleteहमेशा की तरह खूबसूरत रचना।
सबको इश्वर ने निश्चित खांचों में ही भेजा है..कर्त्तव्य कर्म की राह इन पूर्वनिर्धारित खांचो से मुक्ति द्वार तक ले जाती है..
ReplyDeleteसुन्दर कविता
आशुतोष की कलम से....: धर्मनिरपेक्षता, और सेकुलर श्वान : आयतित विचारधारा का भारतीय परिवेश में एक विश्लेषण:
इन खांचों में फिट होने की कोशिश करने के बजाय अपना स्वयं का खांचा बनने का प्रयास होना चाहिए..बहुत सुन्दर और भावमयी प्रस्तुति..
ReplyDeleteaur gaharaaiyaan ab bakhsh N hasrat mujh ko,
ReplyDeletekitne saagar to samete hai, ye saaghar meraa...
बहुत सुन्दर और भावमयी प्रस्तुति|धन्यवाद|
ReplyDeleteसही कहा ...खांचों और सांचों में जीते हैं हम ...इन बने बनाये खांचों से जरा बाहर झाँका तो विभिन्न उपाधियाँ और सर्टिफिकेट इन्तजार कर रहे होते हैं !
ReplyDeletebilkul sahi kaha aapne
ReplyDeleteजैसे भी हो फिट तो होना ही पड़ता है खांचे में.
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteवैसे खांचे किधर नहीं हैं इधर भी आवारा / लफूट या फिर फर्माबरदार / संस्कारी वगैरह वगैरह !
अमूमन खाल और खोल से बाहर की दुनिया के निषेध का चलन हुआ करता है समाज में ! उसकी अपनी भी मजबूरियाँ हो सकती हैं इसके लिए !
अगर खांचे न हो भी तो बिखराव् है हाँ अगर अपने आप तय किये जाय तो व्यवस्थित हो जाय |
ReplyDeleteबहुत बढिया भाव |