Tuesday, March 1, 2011

'पुरुषोत्तम' ...

एक पुरानी कविता...नए और पुराने पाठकों के लिए :):):)

त्याग दिया वैदेही को
और जंगल में भिजवाया
एक अधम धोबी के कही पर
सीता को वन वन भटकाया
उस दुःख की क्या सीमा होगी
जो जानकी ने पाया
कितनी जल्दी भूल गए तुम
उसने साथ निभाया

उसने साथ निभाया
जब तुम कैकई को खटक रहे थे
दर दर ठोकर खाकर,
वन वन भटक रहे थे

अरे, कौन रोकता उसको
वह रह सकती थी राज-भवन में
इन्कार कर दिया था उसने
तभी तो थी वह अशोक-वन में
कैसे पुरुषोत्तम हो तुम !
क्या साथ निभाया तुमने
जब निभाने की बारी आई
तभी मुँह छुपाया तुमने ?
छोड़ना ही था सीता को
तो खुद छोड़ कर आते
अपने मन की उलझन
एक बार तो उसे बताते !
तुम क्या जानो कितना विशाल
हृदय है स्त्री जाति का
समझ जाती उलझन सीता
अपने प्राणप्रिय पति का

चरणों से ही सही, तुमने
अहल्या का स्पर्श किया था
पर-स्त्री थी अहल्या
क्या यह अन्याय नहीं था ?
तुम स्पर्श करो तो वह 'उद्धार' कहलाता है
कोई और स्पर्श करे तो,
'स्पर्शित' !
अग्नि-परीक्षा पाता है
छल से सीता को छोड़कर पुरुष बने इतराते हो
भगवान् जाने कैसे तुम 'पुरुषोत्तम' कहलाते हो
एक ही प्रार्थना है प्रभु
इस कलियुग में मत आना
गली गली में रावण हैं
मुश्किल है सीता को बचाना
वन उपवन भी नहीं मिलेंगे
कहाँ छोड़ कर आओगे !
क्योंकि, तुम तो बस,
अहल्याओं का उद्धार करोगे
और सीताओं को पाषाण बनाओगे...!

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये....आवाज़ 'अदा' की..

24 comments:

  1. सीता की महानता या राम की विवशता।

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  2. आद. अदा जी,
    बहुत मर्मस्पर्शी कविता है ! दिल को छू गई !
    आभार !

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  3. क्योंकि, तुम तो बस,
    अहल्याओं का उद्धार करोगे
    और सीताओं को पाषाण बनाओगे...!
    अजीब माया है राम की। सुन्दर रचना के लिये बधाई।

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  4. भारत लौट आओ,
    तभी समझ पाओगी,
    राम क्या है, पुरुषोत्तम क्या है
    समझने की उम्र तो विदेश में,
    विधर्मी-अधर्मी देश में गुजारी,
    कैसे समझ पाओगी कि,
    क्या है राम, क्या है नारी ॥

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  5. आपकी बाकी नज्मों से हटकर यह कविता अच्छी लगी. और गाना तो है ही लाजवाब.

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  6. राम की महिमा राम ही जानें.
    उमराव जान का ये गाना अच्छा लगा आपकी आवाज़ में.

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  7. @ प्रवीण जी...
    यही तो मेरा प्रश्न है ..भगवान् राम से...आख़िर ऐसी क्या विवशता थी..?
    आभारी हूँ

    @ ज्ञानचंद जी,
    एक स्त्री हूँ अतः स्त्री कि व्यथा ही समझ पाती हूँ...
    तभी तो लिखा है...
    धन्यवाद..

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  8. @ निर्मला जी,
    राम जी की माया बेशक हम नहीं समझ पाते परन्तु प्रश्न करना भक्त का भी काम है...
    साथ ही माँ सीता के स्वाभिमान को उजागर करना हरएक स्त्री का धर्म..
    आप आईं अच्छा लगा..
    धन्यवाद..

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  9. @ डॉ. श्याम जी,
    आपकी आलोचना सिर-माथे पर...
    परन्तु विदेशी आबो-हवा का इसमें कोई हाथ नहीं...
    प्रश्न तो मेरे देश की माटी में ही जन्म ले चुका था...और ऐसा भी नहीं कि वहाँ रहने वाली स्त्रियाँ ऐसा नहीं सोचतीं ...
    सोचतीं तो सभी हैं परन्तु कहतीं नहीं हैं...या फिर कहतीं भी होंगी..तो लिखती नहीं हैं...
    एक आम स्त्री हूँ और अपने आराध्य से मुझे ये शिकायत है...जो मेरी नज़र में जायज़ है...
    आती ही रहती हूँ भारत और ..ख़ुद को अनोखा कभी नहीं पाती हूँ ना ही औरों को नज़र आती हूँ.....
    इस बार आऊँगी तो आपसे मिलने की इच्छा है...शायद आप को भी महसूस करा पाऊं कि उतनी अधर्मी मैं नहीं...:):)
    आभार..

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  10. @ सोमेश जी,
    सच कहूँ तो मैं ऐसी ही कवितायें लिखने की इच्छा रखती हूँ...और जो मुझे जानते हैं वो ऐसी ही कविताओं से पहचानते हैं...हाँ बीच बीच में मैं कुछ और कह जाती हूँ..
    आपको पसंद आया ...शुक्रिया कबूल कीजिये..

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  11. @ कुँवर जी,
    राम मेरे आराध्य हैं और मैं उनसे अक्सर लडती हूँ...
    ये सही कहा आपने, राम जी की महिमा अपरम्पार है....
    आभारी हूँ...आपको गीत पसंद आया ..

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  12. राम निस्संदेह हमारे आराध्य हैं, लेकिन देवी सीता भी उतनी ही श्रद्धेय। सही कहा आपने, भक्त अपनी शंका और प्रश्न पूछ तो सकता ही है।

    गज़ल जबरदस्त है, आपकी आवाज में बेहद अच्छी लगी।

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  13. सीता का दर्द मन में चुभता है...हमारे महान कवियों/ग्रंथों ने भी केवल राम और अन्य पुरुष चरित्रों को ही महिमा मंडित करने की कोशिश की..सीता,उर्मिला आदि का दर्द समझने की कोशिश नहीं की.
    बहुत सुन्दर रचना जो अंतस को छू जाती है..राम मेरे भी आराध्य हैं पर यह सही है कि भक्त अपनी शंका का समाधान अपने आराध्य से नहीं तो और किस से चाहेगा.

    गज़ल बहुत प्यारी गायी है..

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  14. @ पाठकों से भी मेरा एक प्रश्न है....
    अश्वमेघ यज्ञं के बाद राम जी की परिस्थियाँ या सिद्धांत क्या बदल गए थे जो उन्होंने माँ सीता को वापिस चलने को कहा...जिसे माँ सीता ने सिरे से ख़ारिज़ करके आत्महत्या कर लेना उचित समझा...

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  15. @ का संजय जी...आज बड़े सीधे हमरी बात मान ली आपने....हम तो युद्ध की तैयारी में थे...
    चलिए कोई बात नहीं..फिर कभी सही..
    आपका धन्यवाद...

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  16. @ कैलाश जी,
    ऐसा नहीं है , कैकेयी, उर्मिला इत्यादि पर बड़े-बड़े कवियों ने लिखा है...परन्तु यह भी सत्य है कि अधिकाँश रचनाएँ पुरुष पात्र के महिमा मंडन पर ही हैं ....स्त्रियों की मनस्थिति और भावनाओं पर रचनाएँ कम ही हैं...स्त्री का प्रेयसी के अतिरिक्त भी रूप है..उसकी भावनाएं हैं...इस पर बहुत कम विवेचनाएं की गयीं हैं...नारी हर युग में टेकन फॉर ग्रांटेड रही है...उसकी अपनी पसंद-नापसंद का विचार जब ईश्वर ने नहीं किया तो मानुष की क्या बिसात...
    आप ने मेरी रचना को समझा और पसंद किया...
    मुझे बहुत ख़ुशी हुई..

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  17. हम अधर्मियों से उतना हानि नहीं उठाते हैं जितना अपने स्वयं के भ्रमित जनों से....

    --"उसकी अपनी पसंद-नापसंद का विचार जब ईश्वर ने नहीं किया तो मानुष की क्या बिसात.".. अदा जी ईश्वर ने कब ..व कहां ..कैसे विचार नहीं किया..कैसे पता चला आपको और हमें कैसे पता लगे...

    ----शूर्पणखा पर मेरा लिखा खन्ड-काव्य पढिये...AIBA par...

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  18. अदा जी,
    पहले तो अच्छी कृति के लिए ढेरों बधाइयाँ स्वीकारें.
    ..................................
    अब आप के प्रश्न का उत्तर:
    अदा जी नया हूँ और शायद आप सभी लोगों से कम अनुभवी
    राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है.उन्होंने सीता माता का त्याग क्यों किया ये जग जाहिर है..
    राम सीता के संबंधों का विश्लेषण सिर्फ पति पत्नी या नर नारी तक न देखें ....अगर हम साधक और इश्वर के नजरिये से देखें तो प्रभु ने सीता माता के लिए बहुत कष्ट भी उठाये..तो अगर सीता जैसी साधक ने प्रभु को मर्यादा पुरुषोत्तम साबित करने के लिए त्याग किया तो उचित ही है ये..
    उनकी जिमेदारी अपनी प्रजा के लिए भी बनती है...इसलिए उन्होंने सीता माता के त्याग का निर्णय लिया.
    राम जो उनकी पवित्रता का विश्वास था इसीलिए उन्होंने उनका कहा था की यदि सीता माता अपने सतीत्व साबित कर दें तो वो उन्हें वापस बुला लेंगे...
    मैं यहाँ ये कहना चाहूँगा ये राम की वाणी नहीं थी सिर्फ, ये उनकी प्रजा की वाणी थी..और एक मर्यादा पुरुषोतम के लिए प्रजा भी उतनी ही प्रिय थी जितनी पत्नी या परिवार...
    ये सीता माता का निर्णय था की उन्होंने अपनी माँ(धरती) के गोद में समाने का निर्णय लिया..

    अगर राम ने उस समय ये निर्णय न लिया होता तो आज हम उन्हें किसी और रूप में याद करते रहते...शायद ये की पत्नी के आकर्षण में आ कर प्रजा का त्याग कर दिया...या कुछ और भी.....
    ................................................

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  19. ओह, तो युद्ध की तैयारी थी? अब तो धरी रह गईं न, हा हा हा। आपसे कौन युद्ध करना चाहेगा, पहले तो आप हारेंगी नहीं और अगर हार गईं तो ज्यादा दुख तो हमें ही होगा। इसलिये कोई युद्ध नहीं:))

    आप अपने विचार रखें, हम अपने विचार रखते हैं। विचारों की भिन्नता होना कोई अनहोनी तो नहीं। एक दूसरे के नजरिये जो जानने से कुछ सीखते ही हैं हम। ऊपर ’आशुतोष जी’ का कमेंट अच्छा लगा।

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  20. एक तमन्ना है... आपको पूरा पढने का... कभी वैसी फुर्सत निकाल नहीं पाता, मैं जब भी आपके यहाँ आता हूँ, बहुत अफ़सोस होता है, बहुत पहुंची हुई चीज़ मालुम होती हैं, जैसे आपका हिंदी पर बड़ा अधिकार है, जैसे बातों की बड़ी धनी हैं, आपके पास पर्याप्त शब्द भंडार है... जैसे बहुत अच्छा लिखने की बहुत काबिलियत भी है. जैसे कई घटनाओं की/धर्म की/परम्पराओं की अच्छी जानकारी है.

    आप बहुत हैं, बहुत हो सकती हैं. मैं जब भी आया मुत्तासिर हुआ... शुक्रिया.

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  21. @ आशुतोष,
    अच्छा लगा तुम्हारा यहाँ आना...युवा हो और राम-भक्त भी बहुत ख़ुशी हुई..
    एक बात से इत्तेफाक नहीं रखूंगी...जहाँ विश्वास होता है वहाँ सबूत की आवश्यकता नहीं होती....
    ख़ुश रहो..

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  22. @ सागर जी,
    मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार की अति साधारण स्त्री हूँ...ये तो आपलोगों का बड़प्पन है..
    इससे ज्यादा कुछ है नहीं मेरे पास कहने को...
    आपका धन्यवाद..

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