Tuesday, May 12, 2015

हिन्दू धर्म के 29 ऐसे रहस्य, जो अनसुलझे हैं... भाग ६

संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
भाग ७ 

गरूड़ वाहन : गरूड़ का हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। वे पक्षियों के राजा और भगवान विष्णु के वाहन हैं। भगवान गरूड़ को कश्यप ऋषि और विनीता का पुत्र कहा गया है। विनीता दक्ष कन्या थीं। गरूड़ के बड़े भाई का नाम अरुण है, जो भगवान सूर्य के रथ का सारथी है। पक्षीराज गरूड़ को जीव विज्ञान में लेपटोटाइल्स जावानिकस कहते हैं। यह इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन ऑफ नेचर की रेड लिस्ट यानी विलुप्तप्राय पक्षी की श्रेणी में है। पंचतंत्र में गरूड़ की कई कहानियां हैं।



प्राचीन मंदिरों के द्वार पर एक ओर गरूड़, तो दूसरी ओर हनुमानजी की मूर्ति आवेष्‍ठित की जाती रही है। घर में रखे मंदिर में गरूड़ घंटी और मंदिर के शिखर पर गरूड़ ध्वज होता है। गरूड़ नाम से एक व्रत भी है। गरूड़ नाम से एक पुराण भी है। भगवान गरूड़ को विनायक, गरुत्मत्, तार्क्ष्य, वैनतेय, नागान्तक, विष्णुरथ, खगेश्वर, सुपर्ण और पन्नगाशन नाम से भी जाना जाता है।

अब सवाल यह उठता है कि आखिर क्या कभी पक्षी मानव हुआ करते थे? पुराणों में भगवान गरूड़ के पराक्रम के बारे में कई कथाओं का वर्णन मिलता है। उन्होंने देवताओं से युद्ध करके उनसे अमृत कलश छीन लिया था। उन्होंने भगवान राम को नागपाश से मुक्त कराया था। उन्हें उनकी शक्ति पर बड़ा घमंड हो चला था लेकिन हनुमानजी ने उनका घमंड चूर-चूर कर दिया था।

गरूड़ हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध धर्म में भी महत्वपूर्ण पक्षी माना गया है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार गरूड़ को सुपर्ण (अच्छे पंख वाला) कहा गया है। जातक कथाओं में भी गरूड़ के बारे में कई कहानियां हैं। गुप्त काल के शासकों का प्रतीक चिह्न भी गरूड़ ही था। कर्नाटक के होयसल शासकों का भी प्रतीक गरूड़ था। अमेरिका और इंडोनेशिया का राष्ट्रीय प्रतीक गरूड़ है।
चेन्नई से 60 किलोमीटर दूर एक तीर्थस्थल है जिसे 'पक्षी तीर्थ' कहा जाता है। यह तीर्थस्थल वेदगिरि पर्वत के ऊपर है। कई सदियों से दोपहर के वक्त गरूड़ का जोड़ा सुदूर आकाश से उतर आता है और फिर मंदिर के पुजारी द्वारा दिए गए खाद्यान्न को ग्रहण करके आकाश में लौट जाता है। 
सैकड़ों लोग उनका दर्शन करने के लिए वहां पहले से ही उपस्थित रहते हैं। वहां के पुजारी के मुताबिक सतयुग में ब्रह्मा के 8 मानसपुत्र शिव के शाप से गरूड़ बन गए थे। उनमें से 2 सतयुग के अंत में, 2 त्रेता के अंत में, 2 द्वापर के अंत में शाप से मुक्त हो चुके हैं। कहा जाता है कि अब जो 2 बचे हैं, वे कलयुग के अंत में मुक्त होंगे।

क्या सचमुच कोई स्वर्ण बनाने की विधि है? कहते हैं कि प्राचीन भारत के लोग स्वर्ण बनाने की विधि जानते थे। वे पारद आदि को किसी विशेष मिश्रण में मिलाकर स्वर्ण बना लेते थे, लेकिन क्या यह सच है? यह आज भी एक रहस्य है। कहा तो यह भी जाता है कि हिमालय में पारस नाम का एक सफेद पत्थर पाया जाता है जिसे यदि लोहे से छुआ दो तो वह लोहा स्वर्ण में बदल जाता था। पारे, जड़ी- वनस्पतियों और रसायनों से सोने का निर्माण करने की विधि के बारे में कई ग्रंथों में उल्लेख मिलता है।





प्राचीन भारत में सोना बनाने की एक रहस्यमयी विद्या थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी कारण बगैर किसी 'खनन' के बावजूद भारत के पास अपार मात्रा में सोना था। आखिर यह सोना आया कहां से था? मंदिरों में टनों सोना रखा रहता था। सोने के रथ बनाए जाते थे और प्राचीन राजा-महाराजा स्वर्ण आभूषणों से लदे रहते थे। कहते हैं कि बिहार की सोनगिर गुफा में लाखों टन सोना आज भी रखा हुआ है। 



प्रभुदेवा, व्यलाचार्य, इन्द्रद्युम्न, रत्नघोष, नागार्जुन के बारे में कहा जाता है कि ये पारद से सोना बनाने की विधि जानते थे। कहा जाता है कि नागार्जुन द्वारा लिखित बहुत ही चर्चित ग्रंथ 'रस रत्नाकर' में एक जगह पर रोचक वर्णन है जिसमें शालिवाहन और वट यक्षिणी के बीच हुए संवाद से पता चलता है कि उस काल में सोना बनाया जाता था। 

संवाद इस प्रकार है कि शालिवाहन यक्षिणी से कहता है- 'हे देवी, मैंने ये स्वर्ण और रत्न तुझ पर निछावर किए, अब मुझे आदेश दो।' शालिवाहन की बात सुनकर यक्षिणी कहती है- 'मैं तुझसे प्रसन्न हूं। मैं तुझे वे विधियां बताऊंगी जिनको मांडव्य ने सिद्ध किया है। मैं तुम्हें ऐसे-ऐसे योग बताऊंगी जिनसे सिद्ध किए हुए पारे से तांबा और सीसा जैसी धातुएं सोने में बदल जाती हैं।'
एक किस्से के बारे में भी खूब चर्चा ‍की जाती है कि विक्रमादित्य के राज्य में रहने वाले 'व्याडि' नामक एक व्यक्ति ने सोना बनाने की विधा जानने के लिए अपनी सारी जिंदगी बर्बाद कर दी थी। ऐसा ही एक किस्सा तारबीज और हेमबीज का भी है। कहा जाता है कि ये वे पदार्थ हैं जिनसे कीमियागर लोग सामान्य पदार्थों से चांदी और सोने का निर्माण कर लिया करते थे। इस विद्या को 'हेमवती विद्या' के नाम से भी जाना जाता है।

वर्तमान युग में कहा जाता है कि पंजाब के कृष्‍णपालजी शर्मा को पारद से सोना बनाने की विधि याद थी। इसका उल्लेख 6 नवंबर सन् 1983 के 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में मिलता है। पत्रिका के अनुसार सन् 1942 में पंजाब के कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में पारे के द्वारा लगभग 100 तोला सोना बनाकर रख दिया था। कहते हैं कि उस समय वहां पर महात्मा गांधी, उनके सचिव महादेव भाई देसाई और युगल किशोर बिड़ला आदि उपस्थित थे। इस घटना का वर्णन बिड़ला मंदिर में लगे शिलालेख से भी मिलता है। हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है, यह हम नहीं जानते। (एजेंसियां)

क्या ये चमत्कारिक जड़ी-बूटियां होती हैं? सिद्धि देने वाली जड़ी-बूटी : गुलतुरा (दिव्यता के लिए), तापसद्रुम (भूतादि ग्रह निवारक), शल (दरिद्रतानाशक), भोजपत्र (ग्रह बाधाएं निवारक), विष्णुकांता (शत्रुनाशक), मंगल्य (तांत्रिक क्रियानाशक), गुल्बास (दिव्यता प्रदानकर्ता), जीवक (ऐश्वर्यदायिनी), गोरोचन (वशीकरण), गुग्गल (चामंडु सिद्धि), अगस्त (पितृदोषनाशक), अपमार्ग (बाजीकरण), आंधीझाड़ा (भस्मक रोग भूख-प्यासनाशक), श्वेत अपराजिता (दरिद्रानाशक), हत्था जोड़ी (वशीकरण), समोवल्ली (मृत्यनाशक), शिलाजीत (नपुंसकतानाशक), अश्‍वगंधा (वीर्यवर्धक) आदि।


somavalli
बांदा (चुम्बकीय शक्ति प्रदाता), श्‍वेत और काली गुंजा (भूत पिशाचनाशक), उटकटारी (राजयोग दाता), मयूर शिका (दुष्टात्मानाशक) और काली हल्दी (तांत्रिक प्रयोग हेतु) आदि ऐसी अनेक जड़ी-बूटियां हैं, जो व्यक्ति के सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन को साधने में महत्वपूर्ण मानी गई हैं। हालांकि इसी तरह की अन्य कई हजारों जड़ी-बूटियों का रहस्य बरकरार है।



तिब्बत का यमद्वार : प्राचीनकाल में तिब्बत को त्रिविष्टप कहते थे। यह अखंड भारत का ही हिस्सा हुआ करता था। तिब्बत को चीन ने अपने कब्जे में ले रखा है। तिब्बत में दारचेन से 30 मिनट की दूरी पर है यह यम का द्वार।

यम का द्वार पवित्र कैलाश पर्वत के रास्ते में पड़ता है। इसकी परिक्रमा करने के बाद ही कैलाश यात्रा शुरू होती है। हिन्दू मान्यता के अनुसार इसे मृत्यु के देवता यमराज के घर का प्रवेश द्वार माना जाता है। यह कैलाश पर्वत की परिक्रमा यात्रा के शुरुआती प्वॉइंट पर है। तिब्बती लोग इसे चोरटेन कांग नग्यी के नाम से जानते हैं जिसका मतलब होता है- दो पैर वाले स्तूप।

ऐसा कहा जाता है कि यहां रात में रुकने वाला जीवित नहीं रह पाता। ऐसी कई घटनाएं हो भी चुकी हैं, लेकिन इसके पीछे के कारणों का खुलासा आज तक नहीं हो पाया है। साथ ही यह मंदिरनुमा द्वार किसने और कब बनाया? इसका कोई प्रमाण नहीं है। ढेरों शोध हुए, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल सका।

कहते हैं कि द्वार के इस ओर संसार है, तो उस पार मोक्षधाम। बौद्ध लामा लोग यहां आकर प्राणांत होने को मोक्ष-प्राप्ति मानते हैं इसलिए बीमार लामा अंतिम इच्छा के रूप में यहां जाते हैं और प्राण त्यागते हैं। 
क्रमशः.... 

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