प्रस्तुत है एक संस्मरण ...
उनके फिर से निक़ाह करने की खबर सुन कर मैं हैरान हो गयी थी। अभी महीने भर पहले ही तो उनकी बीवी का इंतकाल हुआ था। फिर भी, हमने सोचा चलो उम्र ज्यादा हो जाए, तो इंसान को साथी की और भी ज्यादा ज़रुरत होती है। अपने भविष्य के बारे में ही सोचा होगा शायद उन्होंने, फिर हमें क्या, उनका जीवन, जो मर्ज़ी हो सो करें। हम तो वैसे भी, किसी के फटे में पाँव नहीं डालते।
खैर, बात आई गयी और वो जनाब एक बार फिर, किसी के शौहर हो ही गए। एक दिन हमारे घर भी पधार गए, मय बीवी। उनसे या उनकी बीवी से मिलकर, कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई थी मुझे, क्योंकि आये दिन, उनकी माँ या बच्चों से उनकी नयी नवेली और उनकी 'तारीफ़ सुनती ही रहती थी। मेरे घर भी आये तो 'दो जिस्म एक जान' की तर्ज़ पर ही बैठे रहे दोनों। मुझे तो वैसे भी बहुत चिपक कर बैठनेवाले जोड़ों से कोफ़्त ही होती है, आखिर मेरे घर में, मेरे बच्चे हैं और उनके सामने कोई अपनी नयी-नवेली बीवी को गोद में बिठा ले, अरे कहाँ हज़म होगा मुझे। अब आप इस बात के लिए मुझे, 'मैंने कभी नहीं किया, नहीं कर सकती, न करुँगी ' सोचने वाली उज्जड गँवार समझें या फिर हिन्दुस्तानी संस्कारों का घाल-मेल, आपकी मर्ज़ी। लेकिन झेलाता नहीं है हमसे। हम तो वैसे भी 'महा अनरोमैंटिक' का तमगा पा चुके हैं, बहुते पहिले ।
बातें होतीं रहीं, यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ की, आख़िर मैंने भी पूछ ही लिया, भाई साहब कहाँ मिल गयी आपको 'नगमा जी'? उन्होंने जो जवाब दिया, सुन कर मुझे उबकाई ही आ गयी। कहने लगे ... अरे सपना बहिन ! जिस दिन 'नर्गिस' फौत हुई थी, उस दिन बड़े सारे लोग आये थे, घर पर। ये भी आई थी, मेरी खालू की बेटी के साथ। तभी मैंने देखा था इसे। 'नर्गिस की मिटटी' के पास, ये भी रो रही थी, मुझे इसकी आँसू भरी आँखें, इतनी खूबसूरत लगीं थीं, कि क्या बताऊँ। मैं तो बस, इसे ही देखता रह गया, उसी वक्त आशिक हो गया था इसका। और उस दिन के बाद, मैंने इसका पीछा नहीं छोड़ा।
जिस तरह छाती ठोंक कर उन्होंने ये बात कही, मेरे कानों में झनझनाहट हो गयी थी। मैं सोचने को मजबूर हो गई, ये इंसान है या कोई खुजरैल कुत्ता, मरदूये ने अपनी मरी हुई बीवी की मिटटी तक उठने का इंतज़ार नहीं किया था, और बिना वक्त गँवाए, बिना बीवी की लाश उठवाये आशिक हो गया, किसी और का ? बड़ा जब्बर कलेजा पाया है बन्दे ने। एक कहावत है डायन भी सात घर छोड़ देती है, लेकिन इस जिन्न ने सात घंटे भी इंतज़ार नहीं किये।
अब सोचती हूँ अच्छा हुआ नर्गिस मर गयी .....वर्ना कहीं ये मर गया होता और नर्गिस ने किसी पर आँख गड़ा दी होती तो क्या होता !!!!
हाँ नहीं तो !!
एक और संस्मरण अगली बार ...
एक और संस्मरण अगली बार ...
भगवान् करे अब नगमा जी को किसी की आंसू भरी आँखें पसंद आ जाए!
ReplyDeleteअज़ब गज़ब लोंग हैं !
ऐसा ही हो...!!
Deleteआमीन !
सबको उनका संसार मुबारक..
ReplyDeleteजी प्रवीण जी,
Deleteसर्वे भवन्तु सुखीनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात्
शायद जायसवाल का भाई हैं
ReplyDeleteमनु जी,
Deleteमाफ़ कीजियेगा ज़ुबान आज थोड़ी तल्ख़ है मेरी, जी जर गया है एकदम से...
जायसवाल के भाईयों की कमी नहीं है यहाँ..बस बहनें पीछे रह जातीं हैं...
काहे से कि सभ्यता-संस्कृति का टोकरा जो होता है उनके सर पर...
आभार
(:
ReplyDeletepranam.
Khush Raho Baalak :)
Deleteकुत्ता यह खुजरैल है, है आश्विन का मास ।
ReplyDeleteऐसे जीवों से हुआ, कल्चर सत्यानाश ।
कल्चर सत्यानाश, ताश का है यह छक्का ।
ढूँढे बेगम हुकुम, धूर्त है बेहद पक्का ।
बाढ़ी है तादाद, बाढ़ते कुक्कुरमुत्ता ।
बधिया कर दो राम, नस्ल रोको यह कुत्ता ।।
jaane dijiye naa....!!
ReplyDeletejaane hi diya hai, kaun sa....!
Deleteवाकई जब्बर कलेजा पाया है बन्दे ने
ReplyDeleteजी हाँ इतना जब्बर कि पत्थर, पानी कहलाये..
Delete''अच्छा हुआ नर्गिस मर गई '' एक बेहतरीन कहानी नहीं सच्ची अनुभूति . बाकी बातें बुरी लगती हैं या नहीं लेकिन बेशर्मी ने सभी सही गलत को गलत ठहरा दिया . संस्मरण ने आदमी के ज़मीर और नियत पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया ?
ReplyDeleteजी हाँ आपकी बात से सहमत होते हुए कुछ और भी कहना चाहूँगी..
Deleteसंस्मरण ने आदमी के ज़मीर और नियत पर सिर्फ़ प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है, विश्वास की नींव पर भी ठोकर मारा है
सिर्फ़ एक इन्सान की ऐसी ओछी हरकत कितनो को कटघरे में लाकर खड़ा कर देती है...
पत्नियां इस मामले में बहुत सनकी होतीं हैं, दूसरी औरत तो उन्हें मरने के बाद भी मंज़ूर नहीं होता...
फिर ये तो असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है..दुश्मन के साथ भी कोई ऐसा नहीं करता, वो कैसा इन्सान होगा जो अपनी मृतक पत्नी की लाश के सामने ऐसा कर सकता है..
उसे इन्सान कहना इंसानियत को गाली देना है..
बहुत सुंदर लिखा है
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteये संस्मरण नहीं हमारे दौर का एक सच है .इस तरह के किरदार मैं ने आपने सबने देखे हैं .अच्छा हुआ नरगिश मर गई .नर्गिशी आँखें इसे आज भी पसंद हैं .
ReplyDeleteवीरेन्द्र जी,
Deleteआँखें नरगिसी हों या नग्माई, उनको फ़िरते भी देर नहीं लगती..
धन्यवाद
बलिहारी जाऊं चने पर, जो मरोड़ देत उठाय
ReplyDeleteरचना,रेचना और चना विकार से निजात दिलाय
:)
@ ये इंसान है या कोई खुजरैल कुत्ता,
ReplyDeleteपता नहीं बेचारे कुत्ते कब तक खामोश रहेंगे.... ऐसे वैसे और न जाने कैसे कैसे से उनकी तुलना कर दी जाती है. :)
दीपक जी,
Deleteआपको बड़ी तकलीफ हो गई ऐसा लगता है...
ऐसे खुजरैल कुत्ते, धर्म, मर्म और शर्म से ज्यादा कर्म पर यकीन करते हैं....इस कुत्ते ने बिना वक्त गवाएं अपना कर्म कर दिया ...फिर भी आपको ये ख़ामोश नज़र आ रहा है...
मैं तो ऐसे-वैसों की तुलना ना जाने कैसों-कैसों से कर देती, शुक्र मनाइए ये ब्लॉग है, वरना.....
आपकी सहानुभूति देख कर भौचक हूँ मैं !!!!!!!
अरे भाई खुजरैल कुत्तों की तरफ से भी सोचो... इन लोगों से तुलना करके उनके दिल पर क्या बीतती होगी...
Deleteशायद में समझा नहीं पाया...
दीपक जी,
Deleteक्षमा चाहती हूँ, मैंने वाकई आपके कमेन्ट को ग़लत समझा था...
फिर एक बार सॉरी..
'अदा'
सच कहा है इस जिन्न ने तो कहना चाहिए खुज्रैल जिन्न ने तो सात घंटे भी नहीं छोड़े कैसे कैसे लोग हैं इस दुनिया में ---बहुत अच्छी लगी पोस्ट अगली का इन्तजार
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद राजेश जी..
Deleteबहुत जल्द हाज़िर होती हूँ एक और संस्मरण के साथ..
आपका आभार
Aapka dhanywaad Ravikar ji..!
ReplyDeleteधन्यवाद
ReplyDeleteभाई साहब तो खैर जिन्दगी को भरपूर तरीके से जीने वाले हुये ही, भाभीजी(नई वाली) भी तो कुछ कम जिन्दादिल नहीं। बनी रहे जोड़ी, हम तो यही दुआ करेंगे।
ReplyDeleteहम तो वैसे भी, किसी के फ़टे में टाँग नहीं डालते। हाँ नहीं तो!!
(:(:(:
ReplyDeletepranam.