Tuesday, December 20, 2011

सचमुच काली बन जाऊँगी...!




क्या फर्क पड़ता है 
आज फिर कौन आया है;
किसके हाथों ने उसे
कहाँ कहाँ सहलाया है,
उसे सिर्फ़ याद आते हैं
वो छोटे-छोटे हाथ-पाँव;
जिनकी छुवन से
वो तृप्त हो जाती है,
स्वयं को सम्पूर्ण पाती है|
उसे तो बस जल्दी घर जाना है 
अच्छा सा खाना पकाना है,
सामने बिठा कर उनको आज  
भर पेट खिलाना है ,
और फिर गोद में लेकर
छाती से चिपका कर 
लोरी सुनाना है ,
फिलहाल....
यह जो लदी हुई लाश है,
ये हटे तो,
वो निजात पाएगी,
पैसे मिल जायेंगे तो
साबुन खरीद कर लाएगी 
और खूब 
रगड़-रगड़ कर नहाएगी,
अपनी अपवित्रता को 
नाली में बहाएगी,
फिर सामने जो देवी का मंदिर है
वहाँ जायेगी,
माँ से आँखें मिलाएगी 
कहेगी माँ से ...
तुम तो बस यूँ हीं ...
देखती रहो यहीं से बैठ कर !
कुछ मत करो....
शुक्र है !
मैं... तुम नहीं हूँ 
लेकिन तुमसे अच्छी ही हूँ
जिन्हें जन्म दिया है 
उन्हें पाल कर दिखाउंगी
देह है मेरे पास 
वही बेच कर लाऊँगी,   
मेरे बच्चों को किसी ने
आँख उठा कर भी देखा 
तो ... 
बिना एक पल गँवाए 
सचमुच काली बन जाऊँगी...!