Friday, December 9, 2011

हम बोलें क्या तुमसे के क्या बात थी





एक पुरानी कविता :


हम बोलें क्या तुमसे के क्या बात थी  
अजी रहने दो बातें बिन बात की


सहर ने शफक  से ठिठोली करी है
शिकायत अंधेरों को इस बात की


खयालों के तूफाँ तो थमने लगे हैं
लहर कोई डूबी थी जज़्बात की


उजालों से ऊँचे हम उड़ने लगे थे 
कहाँ थी ख़बर अपनी औक़ात की


मन सोया जहाँ था वहीँ उठ गया है
शिकन न थी बिस्तर पे कल रात की


मुसलसल वो आया गली में हमारी 
पर नदी बह रही थी इक हालात की


गुबारों से कितने परेशाँ हुए तुम
क्यूँ भूले वो ताज़ी हवा साथ की


'न जी भर के देखा न कुछ बात की'
इसी धुन पर इसे गाने की कोशिश की है..सुन लीजियेगा...



मुसलसल= लगातार
गुबारों=धूल भरी आँधी
सहर=सुबह
शफक =सवेरे की लालिमा