बिस्तर, चादर
और कुछ चेहरे,
खींच कर चादर
अपनी आँखों पर
ख़ुद को बुला लेती हूँ
ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी
और ख्यालों से
दोस्ती
जिनके हाथ थामते ही
तैर जाते हैं
कागज़ी पैरहन में
भीगे हुए से, कुछ रिश्ते
रंग उनके
बिलकुल साफ़ नज़र
आते हैं,
तब मैं औंधे मुँह
तकिये पर न जाने कितने
हर्फ़ उकेर देती हूँ
जो सुबह की
रौशनी में
धब्बे से बन जाते हैं....