Wednesday, September 11, 2013

मेरी ज़ुल्फ़ अब, परेशाँ नहीं होती...



मेरी ज़ुल्फ़ अब, परेशाँ नहीं होती
ये निगाहें अब, निगेहबां नहीं होती

बे-परवाह गुज़र रहे, मेरे शाम-ओ-सहर 
हाले-दिल देख अब जाँ, हल्कां नहीं होती

गिरा कर क़हर, सोचता था मर जाऊँगी 
दिल बह गया मोम बन, जीस्त वीराँ नहीं होती  

खताओं की आदत है मुझे, तुम भी आदत कर लो 
मेरी नासिह भी अब, नादाँ नहीं होती

दर्द-ए-इलाज-ए-दिल, मैंने पा लिया है 
मुस्कुरातीं हैं खामोशियाँ, वो फुगाँ नहीं होती

जलतीं हैं बहारें 'अदा' और राख हुईं जातीं है 
रूह-ए-चमन में फिर भी, ख़िज़ाँ नहीं होती

फुगाँ = संकट में रोना
नासिह = सलाहकार, उपदेशक

13 comments:

  1. गिरा कर क़हर, सोचता था मर जाऊँगी
    दिल बह गया मोम बन, जीस्त वीराँ नहीं होती

    खूब कही

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  2. गिरा कर क़हर,(सोचता)था मर जाऊँगी (के बजाय) (सोचती) कर लीजिए।

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    1. विकेश जी, फ़िर ’ताना’ भाव\रस सूख जायेगा :)

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  3. शानदार है जी एकदम।

    दर्द-ए-इलाज-ए-दिल पर आपने फ़रमा दिया, ईलाजे-दर्द-ए-दिल पर किसी शायर का एक शेर याद आ गया -
    ईलाज-ए-दर्दे दिल तुमसे, मसीहा हो नहीं सकता,
    तुम अच्छा कर नहीं सकते,मैं अच्छा हो नहीं सकता।

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  4. जलतीं हैं बहारें 'अदा' और राख हुईं जातीं है
    रूह-ए-चमन में फिर भी, खीजाँ नहीं होती

    आपकी अदा वाह बहुत खुबसूरत

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  5. बहुत खूब..बड़ी मेहनत पड़ जाती है समझने में।

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  6. खताओं की आदत है मुझे, तुम भी आदत कर लो
    मेरी नासिह भी अब, नादाँ नहीं होती

    दर्द-ए-इलाज-ए-दिल, मैंने पा लिया है
    मुस्कुरातीं हैं खामोशियाँ, वो फुगाँ नहीं होती

    जलतीं हैं बहारें 'अदा' और राख हुईं जातीं है
    रूह-ए-चमन में फिर भी, खीजाँ नहीं होती

    बेह्तरीन अभिव्यक्ति …!!गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें.
    कभी यहाँ भी पधारें।
    सादर मदन

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  7. सुंदर गज़ल। साथ में यदि मुश्किल उर्दू शब्दों के अर्थ भी दें तो अच्छा होगा।

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  8. खूबसूरत ग़ज़ल

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