Wednesday, April 29, 2015

सिक्कों के फर्श पर तो ये भी फिसल गए ..!

नज़रों की तमाज़त से मेरे ख़्वाब जल गए 
बेशर्म से कुछ सच थे बच के निकल गए 

अँधों के गाँव में अब मनती है दीवाली   
गूँगों की बातेँ सुन-सुन लंगड़े भी चल गए 

पत्थर तराशते थे कभी मोम के थे हाथ   
संग-संग रहे जो संग के संग में ही ढल गए

डरते थे हम कि जाएँ तो जाएँ अब कहाँ 
रस्तों ने बाहें खोल दी, रस्ते निकल गए 

ये तेरा ही असर है या है मेरा ही मिजाज़   
हम थे न ऐसे-वैसे, हम भी बदल गए  

सब कहते हैं हुकूमत, बा-बुलंद चीज़ है 
सिक्कों के फर्श पर तो ये भी फिसल गए 

कल तक उसूलों का भी, बदन गुलाब था 
ख़ुदग़र्ज़ आँच से न जाने कितने गल गए 

ज़िंदा रहेंगे जब तक, ज़िंदा रहेंगे हम 
आगे भी छले जाएँगे, कितने तो छल गए

जो कल गिरी ईमारत, वो मेरी मोहब्बत थी 
यादों के मलबे ढोकर, एहसास छिल गए  

सूरज भी रोयेगा कभी, तुम देखना ज़रूर  
मिसाल-ए-आफ़ताब अजी कितने ढल गए

तमाज़त =आग 
संग-संग =साथ-साथ 
संग=पत्थर 

Very Nice Song.....

मेरा फेस लटक गया.....!


कुछ तो प्यार में गुज़रा, कुछ झगड़े में ही कट गया 
चलो जी अब जैसे-तैसे, अपना टाईम निपट गया 

बच्चे अब कहाँ बच्चे हैंअब मेरी गोद भी छोटी है 
दाढ़ी-मूछें देख-देख, आँचल मेरा सिमट गया  

रात को तुम देर से आते, आते ही फेसबुक पे जाते 
जब फेसबुक सौतन को देखूँ, मेरा फेस लटक गया 

कभी दुनिया यूँ लगती थी, जैसे रेशम का टुकड़ा 
अब रेशम का ये टुकड़ा, टाटों से ही पट गया 

ताना-बाना जोड़-जाड़ कर, चादर एक बनाई थी 
पर चादर का इक धागा, बुनकर से ही कट गया  

धरती का जब सीना फटता, कितनी छाती फटती है 
इतनी सारी मौतें देख, दुनिया से दिल हट गया    

दाना-पानी के मसले में, घर छूटा आँगन छूटा  
माँ-बाप को छोड़ के कोई, अमरीका में सट गया  

  

Tuesday, April 28, 2015

फिर भी कुछ कमी क्यूँ है ...!

आज खुशियाँ थमी क्यूँ है ?
इन आँखों में नमी क्यूँ है ?

जब रखते हो ग़मों का हिसाब 
फाईलों पर धूल जमी क्यूँ है ? 

ख़ुश नज़र आते हो सबको 
फिर दीदों में ग़मी क्यूँ है ?

गर्म तो है मौसम बहुत मगर 
यहाँ ये बर्फ़ जमी क्यूँ है 

धूप में खड़े हो जाने कब से 
फिर चेहरा शबनमी क्यूँ है ?

अच्छे दिन आ गए अब तो 
फिर भी कुछ कमी क्यूँ है ? 



Friday, April 24, 2015

दोहों का दोहन :)

ऐसी वाणी बोलिए, सबका आपा खोये !
राहुल भांजे ऊंट-पटांग, बाकी जनता सोये!!


पंछी करे न चाकरी, अजगर करे न काम !
राहुल बाबा छुट्टी गए करने को आराम !!

साईं इतना दीजिए, भाड़ में कुटुंब समाये !
मैं भूखा ही रहूँ, बाबों की तिजोरी भर जाय !!

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काको लागूँ पाँय !
परीक्षा के हॉल में, छात्र पिस्तौल दिखाय !!

जाति पूछो साधु की, मत पूछो जी ज्ञान !
बस आरक्षण की बात है, मेरा भारत महान !!

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय !
आरक्षण से जो पास हुए, वही पंडित सम होय !!

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय !
कजरी छाप साबुन से, छवि मलिन होय जाय !!

माया मुई और मन मुआ, मरी मरी गया सरीर !
लो आ गए जी अच्छे दिन, मत हो भाई अधीर !!

तन को जोगी सब करें, मन का जो होई सो होई !
आसा, नारायण सम बनिए, बाल न बाँका होई  !!

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात !
निर्भया गई जान से, तो कौन बड़ी है बात  !!

हिन्दू कहें राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना !
जिनको मरना है मरें, नेता भरत खज़ाना !!

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर !
फ्रांस कनाडा जापान की, तभी तो करते सैर !!

बडा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर !
आडवाणी गुसिया गए, राजनाथ कहें हज़ूर !!

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय !
दिग्गी बाबा बुढ़ौती में, अमृता नयनन खोए  !!

जहाँ दया तहाँ धर्म हैं, जहाँ लोभ तहाँ पाप !
इस हमाम में सबै हैं नंगे, अकेला नहीं है आप !!

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब !
अब प्रलय की बाट क्यों, निसदिन प्रलय हो जब !!"


Thursday, April 23, 2015

इस्लाम में 'चार बीवियों' की चतुराई.....--शीबा असलम फहमी

हाल में ही दारुल उलूम देवबंद ने एक महत्वपूर्ण फतवा दिया है। दारुल उलूम देवबंद ने 13 अप्रैल को दिये गये अपने फतवे में कहा है कि इस्लाम हालांकि एक पत्नी के रहते दूसरी शादी की इजाजत देता है लेकिन मुसलमान ऐसा न करें। दारुल उलूम का कहना है कि भले ही शरीयत हमें ऐसी इजाजत देता है लेकिन भारतीय परंपरा में यह मान्य नहीं हो सकता कि एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी कर ली जाए। ऐसा करने पर दोनों पत्नियों के साथ अन्याय होगा। तो क्या इस्लाम सच में एक से अधिक बीबियों को रखने की इजाजत देता है
इस्लाम के बारे में बहुत सारे मौलानाओं का मत है कि इस्लाम चार बीवियों की इजाज़त देता है। लेकिन हकीकत यह है कि इस्लाम में कहीं से भी चार बीबीयों की इजाजत नहीं है। भारतीय मौलानाओं ने बहुत ही कुटिलपूर्ण तरीके से यह भ्रम फैला रखा है कि इस्लाम में चार बीबीयों की इजाजत है। जो लोग यह तर्क देते हैं कि इस्लाम में चार बीबीयों को रखने की इजाजत है वे समझ लें कि इस्लाम में कहीं भी चार बीवियों का पति होने की इजाजत नहीं है।
साहेबान (मुसलमान हजऱात जऱा ग़ौर फऱमाएँ) इस्लाम में चार बीवियों की इजाज़त नहीं है ! युद्ध आदि उपरान्त के आपातकाल में, यतीमों की देखभाल के लिये, कुछ ख़ास शर्तों के साथ इस्लाम में चार बीवियों तक की इजाज़त है, और यह एक पाबन्दी या रोक है उस समाज पर जो कितनी भी औरतों को हरम में रखा करता था। और यह अरब भूमि के केवल एक शहर मदीना के लिए उहुद युद्ध की हार के बाद, विशेष परिस्थिति में लाया गया विशेष-प्रावधान है, जिसे कुरआन में कभी भी, सभी मुसलमानों के लिए, जायज़ या वांछनीय घोषित नहीं किया गया। और इस विशेष एहकाम को भी चार की गिनती पर रोका गया।
उहुद प्रसंग ये है की मदीना शहर जो की इस्लाम में विश्वास ला चुका था, के मुसलमानों की जंग मक्कावासियों से उहुद नामक घाटी में हुई, इस जंग में मदीनावासियों की हार हुई और 700 मर्दों की जनसँख्या घटकर केवल 400 रह गयी, इस परिस्थिति में यतीमों (शहीदों की बेवा और बच्चे) की ज़िम्मेदारी को समाज पर डालने के लिये इस एक प्रावधान को लाया गया की शहीदों के बच्चे अपनी माओं से अलग हुए बिना सहारा पाएं और उन्हें क़ानूनी सरपरस्ती भी मिले। इस आपातकालीन प्रावधान में भी शर्त थी की जो मुसलमान मर्द एक से अधिक बीवी करे वो एक तो इतना समर्थ हो की सबकी देखभाल कर सके, दूसरे वो सभी पत्नियों को एक सामान समझे, और भेदभाव न करे। लेकिन इसी के साथ कुरआन में साफ़ कहा गया है की यह किसी मर्द के लिये मुमकिन नहीं की वह चारों को बराबर का चाहे, इसलिए तुम्हें आदेश यही है की एक ही करो। स्वयं मुहम्मद साहब ने भी कहा है की ये मुमकिन नहीं की शौहर पत्नियों के बीच भेदभाव ना करे। खुद अपने लिए उन्होंने दुआएं मांगी की उनसे किसी (पत्नी) के प्रति पक्षपात ना हो जाये। इसके बावजूद वे खुद मानते हैं कि उनकी आखरी पत्नी हजऱत आयशा ही उनकी सबसे प्रिय पत्नी थीं।
सउदी अरब के पेट्रो-दौलती शेख़ जिस बेशर्मी से अपने हरम सजाए हैं, और 20-25 तक औलादें पैदा कर रहे हैं उसका असर एशिया-अफ्ऱीका की जाहिल, गऱीब और क़बीलाई मानसिकता पर साफ़ देखा जा सकता है। हद ये है की ये जाहिल लोग यूरोप, अमरीका और कनाडा आदि मुल्कों में मज़दूरी करने जाते हैं तो वहां भी अब ये क़ानूनी मांग करने लगे हैं की उनका कल्चर और धार्मिक परंपरा का पालन करते हुए उन्हें एक से अधिक पत्नी की इजाज़त मिले। संख्याबल के बढऩे के साथ इनके हौसले भी बढ़ रहे हैं। इस सब में सबसे मक्कारीपूर्ण है मुसलमानों की मज़हबी कय़ादत का सहयोग ! मुस्लिम समाज को जाहिल, गऱीब और सभ्यता से बैर रखनेवाली इस परंपरा से वफादारी करने वाला बना कर वे अपनी आधी आबादी को निस्सहाय और अपमानित कर रहे हैं। माना की 95% मुसलमान मर्द एक ही शादी करता है लेकिन इस अपराध को मान्यता देकर सौत की तलवार को तो लटकाए रखा ही गया है। कोई ताज्जुब नहीं की मौलानाओ को पढ़ी-लिखी, आत्म-निर्भर, सत्ता में भागीदार मुस्लिम महिला कितनी खटकती है। जब भारत के इन्साफ पसंद हल्क़े दलित-आदिवास महिलाओं के साथ मुसलमान महिलाओं को भी संसद में आरक्षण की बात कर रहे थे तो ये ख़ुद-परस्त कठमुल्ले इस साज़िश के लिये इकठ्ठा हुए की हमारी औरतें तो संसद में जाएंगी नहीं क्यूंकि वह सत्ता में सिर्फ़ इस्लामी मुल्क में ही शामिल हो सकती हैं। कोई इनसे पूछे की जहाँ सत्ता में अपनी बात बताने के लिये सबसे ज़्यादा भागीदारी की ज़रुरत है वहीँ वे इसे रोक कर उनके प्रतिनिधित्व को कैसे पूरा करेंगे? 62 बरसों में इन कठमुल्लों ने बे-ईमान, मेहेर-ख़ोर, धोकेबाज़ी से दूसरी शादी करने और बात-बे-बात तलाक की तलवार चलानेवाले शौहरों की नकेल कसने के लिये कोई मुहिम नहीं चलाई, अब जब लगा की ख़ुद मुसलमान औरत संसद में बैठकर कहीं क़ानून और क़ायदे की बात ना करने लगे तो लगे इस्लाम-इस्लाम करने। इनसे पूछा जाना चाहिए की भाई अभी तक तो आपको इसी जम्हूरियत से ही सभी कुछ चाहिए था। 
ख़ैर, सवाल ये है की क्या इस्लाम इतना मासूम मज़हब है कि अपनी आधी आबादी को हर समय ग़ुलाम की हैसियत में रखने का इन्तिज़ाम कर के भी वह उनसे एकनिष्ठ समर्पण की उम्मीद कर सकता है? तब, जबकि वह औरत को शिक्षा, रोजग़ार, संपत्ति और कय़ादत से ख़ारिज नहीं करता? कोई भी इंसान शिक्षित, आत्म-निर्भरता, संपत्ति का स्वामी और सत्ता में भागीदार होकर भी तीन सौतों को क्यूँ झेलेगा? ज़ाहिर है पढ़ी लिखी, आत्मनिर्भर, स्वयं-सिद्ध मुसलामन औरतें ये लोग पैदा ही नहीं होने देना चाहते। इस्लाम में- परदे के नाम पर शिक्षा पर रोक, बाल-विवाह को जारी रखने के लिये शारदा एक्ट से परहेज़, निकाह और तलाक के पंजीकरण से परहेज़ जिससे धूर्त पति की नाक में नकेल ना कसी जा सके, चार बीवियों को कुदरती मर्दानी यौन-ज़रुरत बताना और सत्ता में भागीदारी को इस्लाम विरूद्ध बता कर एक महिला विरुद्ध महाद्जाल बुना गया है की एक तरफ से निकले तो दूसरे पायदान पर अटक जाए। मौलाना हजऱात की इन खुली धांधलियों में इस्लाम धर्म की फज़़ीहत तो एक साइड-इफ़ेक्ट है, डाईरेक्ट-इफ़ेक्ट जो इंसानों की ज़िन्दिगी पर पड़ता है उसकी गंभीरता को समझना ज़्यादा ज़रूरी है। मौलानाओं की इन्ही हरकतों की वजह से मुसलमानों में शिक्षा का विकास नहीं हो पा रहा है। आज मुसलमान विश्व के स्तर पर कोई योगदान देने की बात तो दूर, ख़ुद अपने घर-परिवार, ख़ानदान-समाज के मसलों पर भी सही सोच नहीं पैदा कर पा रहा। और मर्द-औरत के रिश्तों में बिगाड़, तनाव, तलाक और हिंसा बढ़ी है। दूसरे मामलों में भी तर्क का नहीं तालिबानीकरण का सहारा लेने का चलन बढ़ रहा है।
सभ्य, शिक्षित और जागरूक समाजों ने इस मामले में एक साफ़ और ठोस फैसला लेने में अपने धर्म ग्रंथो, पंडित-पादरियों और परंपरा आदि कि रुकावटों को ठोकर से उड़ा दिया। ख़ुद मुसलमानों ने भी अपने फ़ायदे के आगे, वक़्त की ज़रुरत के हिसाब से बैंकिंग, शेयर बाज़ार, आदि से लाभ कमाने को नई व्याख्या द्वारा जायज़ घोषित कर दिया। यही नहीं महकमाती ज़रुरत को देखते हुए जानदार मखलूक (इंसान की भी) कि फोटो उतारना, सफऱ में चुस्त कपड़ों में, ना-महरम और बे-पर्दा नाजऩीनो से ख़िदमत लेना, मोबाइल से एस एम् एस के ज़रिये बीवी को तलाक दे कर चम्पत हो जाना, फ़ोन पर निकाह करना, शादी से पहले होनेवाली बीवी की खूबसूरती की पड़ताल करना, बे-शर्मी से मेहेर हज़म कर जाना, भारतीय उपमहाद्वीप में तो दहेज़ मांगना, ज़ात-पात, ऊंच-नीच जैसी सभी आधुनिक रीतियाँ-कुरीतियाँ डंके की चोट पर अपना ली हैं। लेकिन देश/ दुनिया के कानून के मुताबिक़ एक पत्नी प्रथा को इस्लाम के नाम पर लगातार धता बता रहा है। इस गंभीर अराजकता पर ख़ुद मुसलमान औरतों को समझ और हिम्मत पैदा करना ज़रूरी है क्योंकी वे इस्लाम के नाम पर सरासर बेवक़ूफ़ बनाई जा रही हैं। 
इस्लाम एक से ज़्याद: बीवी की इजाज़त देता ही नहीं। आपातकाल के दौरान हर समाज अपने नियम कुछ ना कुछ ढीले करता ही है, लेकिन हालात सामान्य होते ही उन विशेष प्रावधानों को ज़ब्त कर लिया जाता है, ये सारी दुनिया का नियम है। इसी के साथ ये भी जानना ज़रूरी है कि कुरआन कहीं पर भी मर्दों को शारीरिक सुख के लिये एक से अधिक पत्नी की इजाज़त नहीं देता। अब सवाल ये उठता है की मुसलमान आलिम क्या कुरआन को सही पढ़ नहीं पाते, या फिर शारीरिक हवस के आगे मजबूर हो कर कुरआन को झुट्लाते रहे हैं? सारी दुनिया में अमीर और अय्याश मुसलमान इस्लाम के नाम पर एक से ज़्यादा शादियाँ, बिना किसी नैतिक, सामाजिक, क़ानूनी और धार्मिक दबाव के कर रहा है। हालाँकि ऐसा करने की आर्थिक स्थिति अधिसंख्य की नहीं है, लेकिन फिर भी कुल मिला कर आए दिन कि ऐसी ख़बरों ने माहौल ऐसा ही पैदा किया है कि अमीर, औसत और गऱीब, किसी भी दर्जे का मुसलमान एक पत्नी के जीते जी उसकी सौत लाने में हिचकिचाता नहीं। वो बड़े आराम से कह देता है कि हमारे यहाँ तो इसकी इजाज़त है। यही नहीं, वो इस ग़लत काम को सुन्नत भी कह डालता है, क्यूंकि मुहम्मद साहब ने एक से अधिक शादियाँ कि थीं। 
आरक्षण से लेकर इंसाफ़ तक! तो फिर इस मामले में जम्हूरियत में ऐब क्यूँ निकल आया? अगर ये इस आशंका से पीडि़त हैं की इलेक्शन-विलेक्शन में हमारी औरतों को ग़ैर मर्दों के बीच जाना पड़ेगा जहाँ वे सुरक्षित नहीं, तो इसमें कोई बड़ा मसला नहीं, हमारी औरतों का हमारे मर्द साथ दें। लेकिन सवाल यह है कि आंकड़े बताते हैं कि हिन्दू हो या मुसलमान या सिख या इसाई, औरतों की इज्ज़त पर हाथ तो ज़्यादातर अपने ही डालते हैं। दूसरे ये कि मुस्लिम देशों में जो बलात्कार होते हैं वे क्या इम्पोर्टेड बलात्कारियों द्वारा किये जाते हैं? मुसलमान मर्द ना हुआ फ़रिश्ता हो गया और वो भी एक ऐसा फ़रिश्ता जिसे एक तरफ तो चार-चार औरतों कि महती आवश्यकता पड़ रही है अपनी कामुकता को साधने के लिये दूसरी तरफ़ उसी की हिफ़ाज़त में औरत सुरक्षित है। इसका मतलब सामने से तो यही निकल रहा है कि हम हमारी औरतों के साथ कुछ भी करें, दूसरा ना करे बस यही देखना है। इस मामले में हिन्दू मर्द भी उतने ही बड़े जियाले हैं। उनका ध्यान भी बस इस तरफ़ है कि हमारी लड़कियों को कोई शाहरुख़ खान, आमिर खान, ज़हीर खान, इमरान खान आदि बेवक़ूफ़ ना बना पाएं, वे ख़ुद चाहें तंदूर काण्ड करें या घासलेट काण्ड, मट्टू काण्ड करें या खैरलांजी। लेकिन बेचारे हिन्दू मर्दों के पास इस्लाम को बचाने जैसे बहाने नहीं हैं (बजरंगियों, हिन्दू-वाहिनियों आदि को छोडक़र) इसलिए उन्हें भारतीय संस्कृति कि बेपनाह फि़क्र सताए रहती है। 
इस्लाम में चार शादियों की इजाज़तकी धांधली उस ही बड़ी साज़िश का हिस्सा है जो मौलाना अशरफ़ अली थानवी मार्का व्यभिचार को धर्म के अंधे विश्वासों से जायज़ ठैराती है। लेकिन यदि किसी कूढ़-मघज़ को अब भी यह अपराध इस्लाम के नाम पर करना है तो इस्लाम की सही व्याख्या करने से परहेज़ नहीं, ना ही इस्लाम के इतर देश के क़ानून को सर्वोपरि मानने से। आखिर सवाल आधी आबादी के आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास का है। ऐसी शादियों में पैदा होनेवाली औलादों के मानसिक संतुलन और स्वास्थ्य का है, एक कमाने और ज़्यादा खानेवालों की उपस्थिति से पैदा हुई गऱीबी, अशिक्षा और अवसाद का है। इस दुनिया के अभावों-अपमानों से निजात के तौर पर, ‘उस दुनियाके ऐश और सम्मान की उम्मीद पर खुदकश होने को तैयार नौनिहालों की इस दुनिया में वापसी का है। इसलिए इन अहम् मसलों को मुल्लाओं पर छोडऩा खतरनाक होगा, अक़ल से काम लीजिये, साफ़ और ठोस एक्दाम के ज़रिये समाज को कबीलाई मानसिकता से उबारिये। वरना जिस युद्ध जैसे आपातकालके लिए चार-शादी की ना-पसंद वयवस्था करनी पड़ी थी वो पूरी इंसानियत का स्थाइकाल बन जाएगा। तालिबानों की व्यवस्था इस ओर क़दम बढ़ा ही चुकी है। लगातार युद्ध के आपातकाल में जीना मुसलमान की नियति कब तक बना रहेगा?


पर पर....:)



सुनो !
अभी रुको !
अब मुझे जाना है :(
पर रुको न, थोड़ी देर,
पर मैं जा रही हूँ
पर.…
पर मैं चलती हूँ
पर… ओके बाय
उसके बाद 
मेरी पर, पर
उसकी पर ने
ऐसा पर मारा कि
मेरे पर बिखर गए
और उसके पर निकल आये
हमदोनों के 'पर'
कितने जुदा थे :)

Wednesday, April 22, 2015

क्षमा वीरस्य भूषणम......!

ईश्वर ने इंसान को बहुत सारी अच्छाइयों से नवाज़ा है। उन अच्छाइयों में एक अच्छाई है 'क्षमा'। किसी को किसी की भूल के लिए क्षमा करना और उस व्यक्ति को आत्मग्लानि से मुक्ति दिलाना एक बहुत बड़ा परोपकार है । 'क्षमा' इंसान का अनमोल व सर्वौतम गुण है, क्षमाशील व्यक्ति हमेशा संतोषी, वीर, धेर्यशील, सहनशील तथा विवेकशील होता है। यह व्यक्ति हमेशा शांतिप्रिय तथा मानसिक रूप से संतोषी होता है। वह हमेशा दूसरो का भला करने में विश्वास रखता है। क्षमा करने की प्रक्रिया में क्षमा करने वाला, क्षमा पाने वाले से कहीं अधिक सुख पाता है। छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी ग़लती को किसी भी हाल में,  समय में वापिस जाकर ठीक नहीं किया जा सकता । लेकिन वर्तमान में उसे सही करने के लिए 'क्षमा' से बड़ा ना कोई शास्त्र है ना ही कोई शस्त्र । अगर आप किसी की भूल को माफ़ करते हैं तो उस व्यक्ति की तो आप सहायता करते ही हैं, साथ ही साथ आप अपनी भी सहायता करते हैं। 

'क्षमा' कहने में छोटा सा शब्द है लेकिन असल ज़िन्दगी में इसका बहुत बड़ा महत्व है, 'क्षमा' शब्द बेशक़ छोटा सा है लेकिन किसी के सामने इसका उच्चारण करना बहुत कठिन है। क्षमा करना ओर क्षमा माँगना दोनों ही जीवन के मार्ग में महत्वपूर्ण है। क्षमा मांगने वाला मनुष्य अपने मन के अन्दर के अंहकार का विनाश करके दूसरे इंसान से अपनी गलती की क्षमा याचना करता है, क्षमा देने वाला व्यक्ति भी अपने अंहकार से मुक्त होकर क्षमा मांगने वाले व्यक्ति को माफ़ करता है, इससे दोनों के मन के अन्दर अंहकार का नाश होता है, क्षमा से बहुत हद तक मानव जीवन में अंहकार रुपी अवगुण को ख़त्म किया जा सकता है । 

अंहकारी मनुष्य प्रायः क्षमा शब्द से बहुत दूर होता है, इसलिए आवश्यकता है हृदय से अपनी गलती मानकर दिल से माफ़ी माँगना और भूलकर भी उसे फिर ना दोहराना । याद रखें कि क्षमा मांगने वाला और क्षमा देने वाला दोनों ही बड़े महान माने जाते है लेकिन क्षमा करने वाला क्षमा मांगने वाले से हमेशा बड़ा होता है। जिसने भी अपनी गलती मानकर क्षमा की भावना को सीख लिया वह भी संसार में बहुत ही महान और वीर माना जाता है, कहा भी गया है “क्षमा वीरस्य भूषणम" अर्थात “क्षमा वीरो का आभूषण होता है।“ 'क्षमादान' संसार में सबसे बड़ा दान माना जाता है ।   

जैसा कि मैंने पहले भी कहा है और यह एक कटु सत्य है कि क्षमा माँगने या क्षमा करने के लिए व्यक्ति को अपने अहम् से ऊपर उठ कर सोचना पड़ता है और यह एक कठिन काम है ।ऐसा सत्कर्म एक सहनशील व्यक्ति ही कर सकता है । कभी आपने इस बात पर ध्यान दिया है कि अपनी रोज़ की ज़िन्दगी में हम कितनों को क्षमा करते हैं और कितनों से क्षमा पाते हैं ।कितना आसान है किसी से एक शब्द sorry कह कर आगे निकल जाना और बदले में अपने आप ही ये सोच लेना कि उस व्यक्ति ने हमे माफ़ भी कर दिया होगा । लेकिन सच्चे हृदय से क्षमा माँगने की बात ही कुछ और है, ऐसा करने से सही मायने में मन को शान्ति मिलती है। सोचिये ज़रा क्या होता अगर हमारे माता-पिता हमारी भूलों के लिए हमें क्षमा नहीं करते? क्या हो अगर ईश्वर  हमें  हमारे अपराधों के लिए क्षमा करना छोड़ दे?  इसलिए अगर हम किसी को क्षमा नहीं कर सकते तो हमें भी ईश्वर से अपने लिए माफ़ी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए ।अगर क्षमा नाम की भावना इस संसार में ना हो तो कोई किसी से कभी प्रेम ही नहीं कर पायेगा…'क्षमा बिना प्रेम के संभव नहीं है और प्रेम बिना क्षमा के हो ही नहीं सकता । 

एक खुशमिजाज़ इन्सान अधिक देर तक दूसरों को भी नाख़ुश नहीं देख सकता। अगर आप सकारात्मक व्यक्तित्व के मालिक हैं तो आप अपने आस-पास भी सकारात्मकता ही फैलायेंगे. कहते हैं "Idiots neither forgive, nor forget. Naive forgive and forget, but a true Wise Man forgives, but NEVER forgets." मूर्ख व्यक्ति ना क्षमा करते हैं न भूलते हैं, भोले-भाले लोग क्षमा भी कर देते हैं और भूल भी जाते हैं, लेकिन एक बुद्धिमान व्यक्ति क्षमा कर देता है पर भूलता नहीं है” लाफ़ा मारना, गाली देना, हमेशा नकारात्मक बातें कहना, सबसे आसान काम है, लेकिन माफ़ करना बहुत हिम्मत का काम है ।
इसलिए अगर आप अपनी रोज़ की ज़िन्दगी में अपने अपराधियों को क्षमा करते हैं तो ये आप का अनजाने में उनपर किया गया सबसे बड़ा उपकार होता है ।   
कहा भी गया  है - गलती करना इंसानी फ़ितरत है लेकिन माफ़ करना ईश्वरीय गुण है। 
माफ़ करना अँधेरे कमरे में रौशनी करने जैसा होता है, जिसकी रौशनी में माफ़ी मांगने वाला और माफ़ करने वाला दोनों एक दूसरे को और करीब से जान पाते हैं। माफ़ करके आप किसी को एक मौका देते हैं अपनी अच्छाइयों को साबित करने का ।  

क्षमा करने और क्षमा माँगने का जब भी कोई सुअवसर मिले उसका सदुपयोग करना चाहिए, क्योंकि क्या मालूम फिर यह मौका मिले ना मिले। इसीलिए तो कहा जाता है कि मरने वाले को हमेशा क्षमा कर देना चाहिए। शायद इसलिए कि उस इंसान को फिर कभी माफ़ी मांगने का मौका नहीं मिलेगा या इसलिए कि आपको फिर उसे कभी माफ़ करने का मौका न मिले।
हम किसी ज़िन्दगी की सूखी ज़मीन पर माफ़ी की दो-चार बूंदों की बारिश कर पायें तो हो सकता है कि उस सूखी ज़मीन पर आशाओं, और मुस्कुराहटों के फूल खिल उठें.
इसलिए ज़िन्दगी में रुठिये, मनाइए, शिकवे-शिक़ायत, प्यार, प्रीत, मोहब्बत जम के कीजिये और थोड़ी सी जगह 'माफ़ी' के लिए भी रखिये। 

Friday, April 17, 2015

आ भी जाओ.....!


चलो चमक जाएँ अब सब छोड़-छाड़ के 
रख देंगे मुँह अँधेरों का तोड़-ताड़ के 

हवा भी ग़र बदनीयत हो तो रोक देंगे हम       
बनाएँगे नये आशियाँ कुछ ज़ोड़-जाड़ के 

तूफाँ भी बरख़िलाफ़ हो कर लेंगे सामना  
रख देंगे सफीनों के पाल मोड़-माड़ के 

दामन तहज़ीब का हम थामेंगे तब तक  
अस्मत को न छूए न खेले फोड़-फाड़ के

अब न होंगे कमसिन अक़्स कहीं बेआबरू 
रख देंगे आईनों को हम तोड़-ताड़ के



Saturday, April 11, 2015

ए मैंने क़सम ली !!

चित्रपट    : तेरे मेरे सपने
संगीतकार  :  सचिन देव बर्मन
गीतकार   :  नीरज  
गायक    :  लता, किशोर कुमार

आवाज़ इस पोस्ट पर......संतोष शैल और स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' की.…







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कि: हे मैं ने क़सम ली
ल: ली
कि: हे तूने क़सम ली
ल: ली
कि: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

कि: साँस तेरी मदिर मदिर जैसे रजनी गंधा
प्यार तेरा मधुर मधुर चाँदनी की गंगा
ल: hm hm साँस तेरी मदिर मदिर जैसे रजनी गंधा
प्यार तेरा मधुर मधुर चाँदनी की गंगा
नहीं होंगे जुदा
कि: नहीं होंगे जुदा
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
मैं ने क़सम ली
कि: ली
ल: हे तूने क़सम ली
कि: ली
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

ल: पा के कभी, खोया तुझे, खो के कभी पाया
जनम जनम, तेरे लिये, बदली हमने काया
कि: पा के कभी, खोया तुझे, खो के कभी पाया
जनम जनम, तेरे लिये, बदली हमने काया
नहीं होंगे जुदा
ल: नहीं होंगे जुदा
कि: नहीं होंगे जुदा हम...
मैं ने क़सम ली
ल: ली
कि: हे तूने क़सम ली
ल: ली
कि: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली

कि: एक तन है, एक मन है, एक प्राण अपने
एक रंग, एक रूप, तेरे मेरे सपने
ल: एक तन है, एक मन है, एक प्रण अपने
एक रंग, एक रूप, तेरे मेरे सपने
नहीं होंगे जुदा
कि: नहीं होंगे जुदा
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
मैं ने क़सम ली
कि: ली
ल: हे तूने क़सम ली
कि: ली
ल: नहीं होंगे जुदा हम...
कि/ल: हे मैं ने क़सम ली








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Thursday, April 9, 2015

बोन चाईना के बर्तनों का बहिष्कार करें.... गाय-बैल की हड्डियों से बने सामान को त्यागें........!

सावधान !!
जिस 'बोन चाईना' के बर्तन को आप बहुत शौक़ से और बड़ी क़ीमत दे कर ख़रीद लाये हैं, क्या वो सचमुच इस लायक़ है कि आप उसका इस्तेमाल भोजन करने के लिए करें ????
ये पढ़िये https://www.facebook.com/pardeepsons/posts/1486165781641945

बोन चाइना-
बचपन मे मैं भी और लोगों की तरह यही समझती थी कि एक तरह की खास क्राकरी जो सफेद, पतली और अच्छी कलाकारी से बनाई जाती है, बोन चाइना कहलाती है।
बाद में मुझे पता चला कि इस पर लिखे शब्द बोन का वास्तव में सम्बंध बोन (हड्डी) से ही है।

बोन चाइना एक खास तरीके का पॉर्सिलेन है जिसे ब्रिटेन में विकसित किया गया और इस उत्पाद को बनाने में गाय-बैल की हड्डीयो का प्रयोग मुख्य तौर पर किया जाता है।

इसके प्रयोग से सफेदी और पारदर्शिता मिलती है।
बोन चाइना इसलिए महंगा होती है क्योंकि इसके उत्पादन के लिए सैकड़ों टन गाय-बैलो की हड्डियों की जरुरत होती है, जिन्हें कसाईखानों मे से जुटाया जाता है।
इसके बाद इन गाय-बैलो की हड्डियों को उबाला जाता है, साफ किया जाता है और जलाकर इसकी राख प्राप्त की जाती है।

बिना गाय-बैलो की हड्डियों की राख के चाइना कभी भी बोन चाइना नहीं कहलाता है।

जानवरों की हड्डी से चिपका हुआ मांस और चिपचिपापन अलग कर दिया जाता है।
इस चरण में प्राप्त चिपचिपे गोंद को अन्य इस्तेमाल के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है।
शेष बची हुई गाय-बैल की हड्डीयो को १००० सेल्सियस तापमान पर गर्म किया जाता है, जिससे इसमें उपस्थित सारा कार्बनिक पदार्थ जल जाता है।
इसके बाद इसमें पानी और अन्य आवश्यक पदार्थ मिलाकर गर्म किया जाता है और कप, प्लेट तथा अन्य क्राकरी बना ली जाती है।

इन तरह बोन चाइना अस्तित्व में आता है।

५० प्रतिशत हड्डियों की राख २६ प्रतिशत चीनी मिट्टी और बाकी चाइना स्टोन। खास बात यह है कि बोन चाइना जितना ज्यादा महंगा होगा, उसमें हड्डियों की राख की मात्रा भी उतनी ही अधिक होगी।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या शाकाहारी लोगों को बोन चाइना का इस्तेमाल करना चाहिए?

या फिर सिर्फ शाकाहारी ही क्यों, क्या किसी को भी बोन चाइना का इस्तेमाल करना चाहिये?
कुछ लोग इस मामले में कुछ तर्क देते है की जानवरों को उनकी हड्डियों के लिए नहीं मारा जाता, हड्डियां तो उनको मारने के बाद प्राप्त हुआ एक उप-उत्पाद है।

लेकिन भारत के मामले में यह कुछ अलग है।

भारत में गाय-बैल को उनके मांस के लिए नहीं मारा जाता क्योंकि उनकी मांस खाने वालों की संख्या काफी कम है।
उन्हें दरअसल उनकी चमड़ी और हड्डियों के मारा जाता है।
भारत में दुनिया की सबसे बड़ी चमड़ी मंडी है और यहां ज्यादातर गाय-बैल के चमड़े का ही प्रयोग किया जाता है।
देखा जाए तो वर्क बनाने का पूरा उद्योग ही गाय को सिर्फ उसकी आंत के लिए मौत के घाट उतार देता है।
आप भले ही गाय-बैलो को नहीं मारते, लेकिन आप या आपका परिवार बोन चाइना का सामान खरीदने के साथ ही उन हत्याओं के साझीदार हो जाते है।
बोन चाइना सैट की परम्परा बहुत पुरानी है और इसके लिये गाय-बैलो को लम्बे समय से मौत के घाट उतारा जा रहा हैं।

यह सच है, लेकिन आप इस बुरे काम को रोक सकते हैं।

इसके लिए सिर्फ आपको यह काम करना है कि आप बोन चाइना की मांग करना बंद कर दें।
क्योकि अगर बाजार मे इनकी मांग नही होगी तो उत्पादन कम जायेगा और बिना मांग के उत्पादन अपने आप ही खत्म हो जायेगा।
मित्रों त्योहारो की इस मौसम मे शपथ ले की चांदी वर्क से सजी मिठाईया, चमड़े का जुता-चप्पल, पर्श-बैल्ट, लैदर जाकेट इत्यादि ऐसा कोई सामान नही खरीदेंगे जिससे गौहत्या को बढ़ावा मिलता हो।
मित्रों इस बार त्योहारो बोन चाईना के कप-प्लेट, ड़िनर सैट जैसी ना वस्तुओ ना तो किसी को उपहार मे दे और ना हि ऐसी वस्तु उपहार मे ले।


साबूदाना- शाकाहारी है या मांसाहारी ?

एक  लेख पढ़ा था यहाँ पर http://naukri-recruitment-result.blogspot.in/2015/02/news-sabdana.html सोचा आपके साथ साझा कर लूँ।  
साबूदाना- शाकाहारी है या मांसाहारी ?

आइये देखते हैं आपके पंसदीदा साबूदाना बनाने के तरीके को। यह तो हम सभी जानते हैं कि साबूदाना व्रत में खाया जाने वाला एक शुद्ध खाद्य माना जाता है, पर क्या हम जानते हैं कि साबूदाना बनता कैसे है?
आमतौर पर साबूदाना शाकाहार कहा जाता है और व्रत, उपवास में इसका बहुतायत में प्रयोग होता है, लेकिन शाकाहार होने के बावजूद भी साबूदाना पवित्र नहीं है। अब आपके मन में यह प्रश्न भी उठा होगा कि भला यह कैसे हो सकता है? 
आइए देखते हैं साबूदाने की हकीक़त को, फिर आप खुद ही निश्चय कर सकते हैं कि आखिर साबूदाना शाकाहारी है या मांसाहारी।
साबूदाना किसी पेड़ पर नहीं उगत। यह कासावा या टैपियोका नामक कंद से बनाया जाता है। कासावा वैसे तो दक्षिण अमेरिकी पौधा है, लेकिन अब भारत में यह तमिलनाडु,केरल, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में भी बड़े पैमाने पर उगाया जाता है। केरल में इस पौधे को ‘कप्पा’ कहा जाता है। इस पौधे की जड़ को काट कर साबूदाना बनाया जाता है जो शकरकंदी की तरह होती है। इस कंद में भरपूर मात्रा में स्टार्च होता है। यह सच है कि साबूदाना टैपियोका  कसावा के गूदे से बनाया जाता है, परंतु इसकी निर्माण विधि इतनी अपवित्र है कि इसे किसी भी सूरत में शाकाहार एवं स्वास्थ्यप्रद नहीं कहा जा सकता। 

तमिलनाडु प्रदेश में सालेम से कोयम्बटूर जाते समय रास्ते में साबूदाने की बहुत सी फैक्ट्रियाँ पड़ती हैं, यहाँ पर फैक्ट्रियों के आस-पास भयंकर बदबू ने हमारा स्वागत किया।

तब हमने जाना साबूदाने कि सच्चाई को। साबूदाना विशेष प्रकार की जड़ों से बनता है। यह जड़ केरला में होती है। इन फैक्ट्रियों के मालिक साबूदाने को बहुत ज्यादा मात्रा में खरीद कर उसका गूदा बनाकर उसे 40 फीट से 25 फीट के बड़े गड्ढे में डाल देते हैं, सड़ने के लिए। महीनों तक साबूदाना वहाँ सड़ता रहता है।

साबूदाना बनाने के लिए सबसे पहले कसावा को खुले मैदान में पानी से भरी बड़ी-बड़ी कुंडियों में डाला जाता है और रसायनों की सहायता से उन्हें लंबे समय तक गलाया-सड़ाया जाता है। इस प्रकार सड़ने से तैयार हुआ गूदा महीनों तक खुले आसमान के नीचे पड़ा रहता है। रात में कुंडियों को गर्मी देने के लिए उनके आस-पास बड़े-बड़े बल्ब जलाए जाते हैं। इससे बल्ब के आस-पास उड़ने वाले कई छोटे-मोटे जहरीले जीव भी इन कुंडियों में गिर कर मर जाते हैं। 

ये गड्ढे खुले में हैं और हजारों टन सड़ते हुए साबूदाने पर बड़ी-बड़ी लाइट्स से हजारों कीड़े मकोड़े गिरते हैं। फैक्ट्री के मजदूर इन साबूदाने के गड्ढो में पानी डालते रहते हैं, इसकी वजह से इसमें सफेद रंग के कीट पैदा हो जाते हैं। यह सड़ने का, कीड़े-मकोड़े गिरने का और सफेद कीट पैदा होेने का कार्य 5-6 महीनों तक चलता रहता है। 

दूसरी ओर इस गूदे में पानी डाला जाता है, जिससे उसमें सफेद रंग के करोड़ों लंबे कृमि पैदा हो जाते हैं। इसके बाद इस गूदे को मजदूरों के पैरों तले रौंदा जाता है। आज-कल कई जगह मशीनों से भी मसला जाता है। इस प्रक्रिया में गूदे में गिरे हुए कीट-पतंग तथा सफेद कृमि भी उसी में समा जाते हैं। यह प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती है। पूरी प्रक्रिया होने के बाद जो स्टार्च प्राप्त होता है उसे धूप में सुखाया जाता है। धूप में वाष्पीकरण के बाद जब इस स्टार्च में से पानी उड़ जाता है तो यह गाढ़ा यानी लेईनुमा हो जाता है। इसके बाद इसे मशीनों की सहायता से इसे छन्नियों पर डालकर महीन गोलियों में तब्दील किया जाता है। यह प्रक्रिया ठीक वैसे ही होती है, जैसे बेसन की बूंदी छानी जाती है 

इन गोलियों के सख्त बनने के बाद इन्हें नारियल का तेल लगी कढ़ाही में भूना जाता है और अंत में गर्म हवा से सुखाया जाता है। 

फिर मशीनों से इस कीड़े-मकोड़े युक्त गुदे को छोटा-छोटा गोल आकार देकर इसे पाॅलिश किया जाता है 

इतना सब होने के बाद अंतिम उत्पाद के रूप में हमारे सामने आता है मोतियों जैसा साबूदाना।  बाद में इन्हें आकार, चमक और सफेदी के आधार पर अलग-अलग छांट लिया जाता है और बाजार में पहुंचा दिया जाता है, परंतु इस चमक के पीछे कितनी अपवित्रता छिपी है वह तो अब आप जान ही चुके होंगे।

आप लोगों की बातों में आकर साबूदाने को शुद्ध ना समझें। साबूदाना बनाने का यह तरीका सौ प्रतीषत सत्य है। इस वजह से बहुत से लोगों ने साबूदाना खाना छोड़ दिया है।

तो चलिये उपवास के दिनों में (उपवास करें न करें यह अलग बात है) साबूदाने की स्वादिष्ट खिचड़ी या खीर या बर्फी खाते हुए साबूदाने की निर्माण प्रक्रिया को याद कीजिए कि क्या साबूदाना एक खद्य पदार्थ है। ये छोटे-छोटे मोती की तरह सफेद और गोल होते हैं। यह सैगो पाम नामक पेड़ के तने के गूदे से बनता है। सागो, ताड़ की तरह का एक पौधा होता है। ये मूलरूप से पूर्वी अफ्रीका का पौधा है। पकने के बाद यह अपादर्शी से हल्का पारदर्शी, नर्म और स्पंजी हो जाता है।

भारत में इसका उपयोग अधिकतर पापड़, खीर और खिचड़ी बनाने में होता है। सूप और अन्य चीजों को गाढ़ा करने के लिए भी इसका  उपयोग होता है। भारत में साबूदाने का उत्पादन सबसे पहले तमिलनाडु के सेलम में हुआ था। लगभग 1943-44 में भारत में इसका उत्पादन एक कुटीर उद्योग के रूप में हुआ था। इसमें पहले टैपियाका की जड़ों को मसल कर उसके दूध को छानकर उसे जमने देते थे, फिर उसकी छोटी-छोटी गोलियां बनाकर सेंक लेते थे। टैपियाका के उत्पादन में भारत अग्रिम देशों में है। लगभग 700 इकाइयां सेलम में स्थित हैं। साबूदाने में कार्बोहाइड्रेट की प्रमुखता होती है और इसमें कुछ मात्रा में कैल्शियम व विटामिन सी भी होता है।

साबूदाना की कई किस्में बाजार में उपलब्ध हैं। उनके बनाने की गुणवत्ता अलग होने पर उनके नाम बदल और गुण बदल जाते हैं अन्यथा यह एक ही प्रकार का होता है, आरारोट भी इसी का एक उत्पाद है

जब आपको साबूदाना का सत्य पता चल गया है, तो इसे खाकर अपना जीवन दूषित ना करें। कृपया इस पोस्ट को समस्त सधर्मी बंधुओं के साथ शेयर करके उनका व्रत और त्यौहार अशुद्ध होने से बचाएँ

Friday, April 3, 2015

This is definitely NOT a solution for women empowerment in India....






दीपिका ने जितने भी अपने चॉइस गिनवाये हैं, अधिकतर बड़ी ही सुपरफ़्लुएस सी चॉइसेस हैं। उनकी चॉइस कपड़ों की चॉइस से शुरू होती है और खत्म होती है फ्री सेक्स, समलैंगिगता और एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स की वकालत करते हुए। कम से कम ये चॉइसेस एक आम हिन्दुस्तानी औरत/ लड़की की चॉइस नहीं हैं, न ही उस विडिओ में एक भी आम हिन्दुस्तानी लड़की/औरत नज़र आई है।  ये सारे चॉइस ब्रांडेड कपडे पहनी हुई उन महिलाओं की हैं जो अपनी चॉइसस के सामने दूसरों की चॉइसेस को घुटने टिकवा कर मानतीं हैं।   

हाँ अगर दीपिका ये कहतीं कि हर हिन्दुस्तानी लड़की/औरत को स्वावलंबन की चॉइस मिलनी चाहिए, पढ़ाई-लिखाई की चॉइस मिलनी चाहिए, कुछ बनने की चॉइस मिलनी चाहिए, ससुराल में बेटी बन कर रहने की चॉइस मिलनी चाहिए, दहेज़ जैसी प्रथा का समूल नाश कर देने की चॉइस मिलनी चाहिए,  तो शायद हर महिला इस विडिओ से ख़ुद को रिलेट कर पाती। फिलहाल तो ये विडिओ 'चॉइस ऑफ़ हाऊ टू यूस वूमन्स ओन बॉडी' बन कर रह गई है । 

एक सामान्य घर की महिला, गाँव की महिला या एक मजदूर महिला के लिए ये प्रॉयरिटी कहाँ है भई कि वो शादी के पहले किसके साथ सोये या शादी के बाद कहाँ रात बसर करे , वो बच्चे पैदा करे या ना करे और फिर यहाँ-वहाँ सोने से वीमेन को एम्पॉवरमेंट कैसे मिल पायेगा, इस बात पर  दीपिका जी विशेष रूप से प्रकाश डालने का कष्ट करतीं तो अच्छा होता । ????  

इस विडिओ को देख कर ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वोग मैगज़ीन वालों की दुनिया शरीर से शुरू होती है और शरीर पर ही खत्म हो जाती है। हिन्दुस्तान एक अलग तरह का देश है , यहाँ की समस्याओं  पर बात करने का बीड़ा जब वोग ने उठाया था तो उन्हें यहाँ की दुनिया को भी अच्छी तरह से देख-समझ लेना चाहिए था। मेरे हिसाब से ये फिल्म हिन्दुस्तान के सामाजिक परिवेश और हिन्दुस्तानी औरत की ज़रुरत को बिना समझे-बुझे बनाई गई है और इसका कोई विशेष असर भी होने वाला नहीं है क्योंकि जिस आधी आबादी के लिए ये बनी है, उस आधी आबादी की आधी आबादी को, बात समझ में ही नहीं आएगी और बाकी की आधी आबादी की बची-खुची समझ पर भी पत्थर पड़ जायेंगे। इसलिए बेटियों-बहनों से गुज़ारिश है कि इस विडिओ को सीरियसली लेने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि This is definitely NOT a solution for women empowerment in India.