Saturday, August 31, 2013

मदर टेरेसा की छवि…!


सन्दर्भ – महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति साहित्य (डॉ. इन्नैय्या नरिसेत्ति)
http://blog.sureshchiplunkar.com/2007/12/mother-teresa-crafted-saint.html
also see this link… http://www.slate.com/articles/news_and_politics/fighting_words/2003/10/mommie_dearest.html
एग्नेस गोंक्झा बोज़ाझियू अर्थात मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त 1910 को स्कोप्जे, मेसेडोनिया में हुआ था और बारह वर्ष की आयु में उन्हें अहसास हुआ कि “उन्हें ईश्वर बुला रहा है”। 24 मई 1931 को वे कलकत्ता आईं और फ़िर यहीं की होकर रह गईं। उनके बारे में इस प्रकार की सारी बातें लगभग सभी लोग जानते हैं, लेकिन कुछ ऐसे तथ्य, आँकड़े और लेख हैं जिनसे इस शख्सियत पर सन्देह के बादल गहरे होते जाते हैं। उन पर हमेशा वेटिकन की मदद और मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी की मदद से “धर्म परिवर्तन” का आरोप तो लगता ही रहा है, लेकिन बात कुछ और भी है, जो उन्हें “दया की मूर्ति”, “मानवता की सेविका”, “बेसहारा और गरीबों की मसीहा”… आदि वाली “लार्जर दैन लाईफ़” छवि पर ग्रहण लगाती हैं, और मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकतर आरोप (या कहें कि खुलासे) पश्चिम की प्रेस या ईसाई पत्रकारों आदि ने ही किये हैं, ना कि किसी हिन्दू संगठन ने, जिससे संदेह और भी गहरा हो जाता है (क्योंकि हिन्दू संगठन जो भी बोलते या लिखते हैं उसे तत्काल सांप्रदायिक ठहरा दिये जाने का “रिवाज” है)। बहरहाल, आईये देखें कि क्यों इस प्रकार के “संत” या “चमत्कार” आदि की बातें बेमानी होती हैं (अब ये पढ़ते वक्त यदि आपको हिन्दुओं के बड़े-बड़े और नामी-गिरामी बाबाओं, संतों और प्रवचनकारों की याद आ जाये तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी) –
यह बात तो सभी जानते हैं कि धर्म कोई सा भी हो, धार्मिक गुरु/गुरुआनियाँ/बाबा/सन्त आदि कोई भी हो बगैर “चन्दे” के वे अपना कामकाज नहीं फ़ैला सकते हैं। उनकी मिशनरियाँ, उनके आश्रम, बड़े-बड़े पांडाल, भव्य मन्दिर, मस्जिद और चर्च आदि इसी विशालकाय चन्दे की रकम से बनते हैं। जाहिर है कि जहाँ से अकूत पैसा आता है वह कोई पवित्र या धर्मात्मा व्यक्ति नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जिस जगह ये अकूत पैसा जाता है, वहाँ भी ऐसे ही लोग बसते हैं। आम आदमी को बरगलाने के लिये पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई, धर्म आदि की घुट्टी लगातार पिलाई जाती है, क्योंकि जिस अंतरात्मा के बल पर व्यक्ति का सारा व्यवहार चलता है, उसे दरकिनार कर दिया जाता है। पैसा (यानी चन्दा) कहीं से भी आये, किसी भी प्रकार के व्यक्ति से आये, उसका काम-धंधा कुछ भी हो, इससे लेने वाले “महान” लोगों को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उन्हें इस बात की चिंता कभी नहीं होती कि उनके तथाकथित प्रवचन सुनकर क्या आज तक किसी भी भ्रष्टाचारी या अनैतिक व्यक्ति ने अपना गुनाह कबूल किया है? क्या किसी पापी ने आज तक यह कहा है कि “मेरी यह कमाई मेरे तमाम काले कारनामों की है, और मैं यह सारा पैसा त्यागकर आज से सन्यास लेता हूँ और मुझे मेरे पापों की सजा के तौर पर कड़े परिश्रम वाली जेल में रख दिया जाये..”। वह कभी ऐसा कहेगा भी नहीं, क्योंकि इन्हीं संतों और महात्माओं ने उसे कह रखा है कि जब तुम अपनी कमाई का कुछ प्रतिशत “नेक” कामों के लिये दान कर दोगे तो तुम्हारे पापों का खाता हल्का हो जायेगा। यानी, बेटा..तू आराम से कालाबाजारी कर, चैन से गरीबों का शोषण कर, जम कर भ्रष्टाचार कर, लेकिन उसमें से कुछ हिस्सा हमारे आश्रम को दान कर… है ना मजेदार धर्म…
बहरहाल बात हो रही थी मदर टेरेसा की, मदर टेरेसा की मृत्यु के समय सुसान शील्ड्स को न्यूयॉर्क बैंक में पचास मिलियन डालर की रकम जमा मिली, सुसान शील्ड्स वही हैं जिन्होंने मदर टेरेसा के साथ सहायक के रूप में नौ साल तक काम किया, सुसान ही चैरिटी में आये हुए दान और चेकों का हिसाब-किताब रखती थीं। जो लाखों रुपया गरीबों और दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था, वह न्यूयॉर्क के बैंक में यूँ ही फ़ालतू पड़ा था।मदर टेरेसा को समूचे विश्व से, कई ज्ञात और अज्ञात स्रोतों से बड़ी-बड़ी धनराशियाँ दान के तौर पर मिलती थीं।
अमेरिका के एक बड़े प्रकाशक रॉबर्ट मैक्सवैल, जिन्होंने कर्मचारियों की भविष्यनिधि फ़ण्ड्स में 450 मिलियन पाउंड का घोटाला किया, ने मदर टेरेसा को 1.25 मिलियन डालर का चन्दा दिया। मदर टेरेसा मैक्सवैल के भूतकाल को जानती थीं। हेटी के तानाशाह जीन क्लाऊड डुवालिये ने मदर टेरेसा को सम्मानित करने बुलाया। मदर टेरेसा कोलकाता से हेटी  सम्मान लेने गईं, और जिस व्यक्ति ने हेटी का भविष्य बिगाड़ कर रख दिया, गरीबों पर जमकर अत्याचार किये और देश को लूटा, टेरेसा ने उसकी “गरीबों को प्यार करने वाला” कहकर तारीफ़ों के पुल बाँधे।
मदर टेरेसा को चार्ल्स कीटिंग से 1.25 मिलियन डालर का चन्दा मिला, ये कीटिंग महाशय वही हैं जिन्होंने “कीटिंग सेविंग्स एन्ड लोन्स” नामक कम्पनी 1980 में बनाई थी और आम जनता और मध्यमवर्ग को लाखों डालर का चूना लगाने के बाद उसे जेल हुई थी। अदालत में सुनवाई के दौरान मदर टेरेसा ने जज से कीटिंग को “माफ़”करने की अपील की थी, उस वक्त जज ने उनसे कहा कि जो पैसा कीटिंग ने गबन किया है क्या वे उसे जनता को लौटा सकती हैं? ताकि निम्न-मध्यमवर्ग के हजारों लोगों को कुछ राहत मिल सके, लेकिन तब वे चुप्पी साध गईं।
ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका Lancet के सम्पादक डॉ.रॉबिन फ़ॉक्स ने 1991 में एक बार मदर के कलकत्ता स्थित चैरिटी अस्पतालों का दौरा किया था। उन्होंने पाया कि बच्चों के लिये साधारण “अनल्जेसिक दवाईयाँ” तक वहाँ उपलब्ध नहीं थीं और न ही “स्टर्लाइज्ड सिरिंज” का उपयोग हो रहा था। जब इस बारे में मदर से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “ये बच्चे सिर्फ़ मेरी प्रार्थना से ही ठीक हो जायेंगे…”
बांग्लादेश युद्ध के दौरान लगभग साढ़े चार लाख महिलायें बेघरबार हुईं और भागकर कोलकाता आईं, उनमें से अधिकतर के साथ बलात्कार हुआ था। मदर टेरेसा ने उन महिलाओं के गर्भपात का विरोध किया था, और कहा था कि “गर्भपात कैथोलिक परम्पराओं के खिलाफ़ है और इन औरतों की प्रेग्नेन्सी एक “पवित्र आशीर्वाद” है…”। उन्होंने हमेशा गर्भपात और गर्भनिरोधकों का विरोध किया। जब उनसे सवाल किया जाता था कि “क्या ज्यादा बच्चे पैदा होना और गरीबी में कोई सम्बन्ध नहीं है?” तब उनका उत्तर हमेशा गोलमोल ही होता था कि “ईश्वर सभी के लिये कुछ न कुछ देता है, जब वह पशु-पक्षियों को भोजन उपलब्ध करवाता है तो आने वाले बच्चे का खयाल भी वह रखेगा इसलिये गर्भपात और गर्भनिरोधक एक अपराध है” (क्या अजीब थ्योरी है…बच्चे पैदा करते जाओं उन्हें “ईश्वर” पाल लेगा… शायद इसी थ्योरी का पालन करते हुए ज्यादा बच्चों का बाप कहता है कि “ये तो भगवान की देन हैं..”, लेकिन वह मूर्ख नहीं जानता कि यह “भगवान की देन” धरती पर बोझ है और सिकुड़ते संसाधनों में हक मारने वाला एक और मुँह…)
मदर टेरेसा ने इन्दिरा गाँधी की आपातकाल लगाने के लिये तारीफ़ की थी और कहा कि “आपातकाल लगाने से लोग खुश हो गये हैं और बेरोजगारी की समस्या हल हो गई है”। गाँधी परिवार ने उन्हें “भारत रत्न” का सम्मान देकर उनका “ऋण” उतारा। भोपाल गैस त्रासदी भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, जिसमें सरकारी तौर पर 4000 से अधिक लोग मारे गये और लाखों लोग अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए। उस वक्त मदर टेरेसा ताबड़तोड़ कलकत्ता से भोपाल आईं, किसलिये? क्या प्रभावितों की मदद करने? जी नहीं, बल्कि यह अनुरोध करने कि यूनियन कार्बाईड के मैनेजमेंट को माफ़ कर दिया जाना चाहिये। और अन्ततः वही हुआ भी, वारेन एंडरसन ने अपनी बाकी की जिन्दगी अमेरिका में आराम से बिताई, भारत सरकार हमेशा की तरह किसी को सजा दिलवा पाना तो दूर, ठीक से मुकदमा तक नहीं कायम कर पाई। प्रश्न उठता है कि आखिर मदर टेरेसा थीं क्या?
एक और जर्मन पत्रकार वाल्टर व्युलेन्वेबर ने अपनी पत्रिका “स्टर्न” में लिखा है कि अकेले जर्मनी से लगभग तीन मिलियन डालर का चन्दा मदर की मिशनरी को जाता है, और जिस देश में टैक्स चोरी के आरोप में स्टेफ़ी ग्राफ़ के पिता तक को जेल हो जाती है, वहाँ से आये हुए पैसे का आज तक कोई ऑडिट नहीं हुआ कि पैसा कहाँ से आता है, कहाँ जाता है, कैसे खर्च किया जाता है… आदि।
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफ़र हिचेन्स ने 1994 में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डाली गई थी, बाद में यह फ़िल्म ब्रिटेन के चैनल-फ़ोर पर प्रदर्शित हुई और इसने काफ़ी लोकप्रियता अर्जित की। बाद में अपने कोलकाता प्रवास के अनुभव पर उन्होंने एक किताब भी लिखी “हैल्स एन्जेल” (नर्क की परी)। इसमें उन्होंने कहा है कि “कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है, जिन्हें पोप नियंत्रित करते हैं, चैरिटी चलाना, मिशनरियाँ चलाना, धर्म परिवर्तन आदि इनके मुख्य काम हैं…” जाहिर है कि मदर टेरेसा को टेम्पलटन सम्मान, नोबल सम्मान, मानद अमेरिकी नागरिकता जैसे कई सम्मान मिले।
संतत्व गढ़ना –
मदर टेरेसा जब कभी बीमार हुईं, उन्हें बेहतरीन से बेहतरीन कार्पोरेट अस्पताल में भरती किया गया, उन्हें हमेशा महंगा से महंगा इलाज उपलब्ध करवाया गया, हालांकि ये अच्छी बात है, इसका स्वागत किया जाना चाहिये, लेकिन साथ ही यह नहीं भूलना चाहिये कि यही उपचार यदि वे अनाथ और गरीब बच्चों (जिनके नाम पर उन्हें लाखों डालर का चन्दा मिलता रहा) को भी दिलवातीं तो कोई बात होती, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ…एक बार कैंसर से कराहते एक मरीज से उन्होंने कहा कि “तुम्हारा दर्द ठीक वैसा ही है जैसा ईसा मसीह को सूली पर हुआ था, शायद महान मसीह तुम्हें चूम रहे हैं”,,, तब मरीज ने कहा कि “प्रार्थना कीजिये कि जल्दी से ईसा मुझे चूमना बन्द करें…”। टेरेसा की मृत्यु के पश्चात पोप जॉन पॉल को उन्हें “सन्त” घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गई थी, संत घोषित करने के लिये जो पाँच वर्ष का समय (चमत्कार और पवित्र असर के लिये) दरकार होता है, पोप ने उसमें भी ढील दे दी, ऐसा क्यों हुआ पता नहीं।
मोनिका बेसरा की कहानी –
पश्चिम बंगाल की एक क्रिश्चियन आदिवासी महिला जिसका नाम मोनिका बेसरा है, उसे टीबी और पेट में ट्यूमर हो गया था। बेलूरघाट के सरकारी अस्पताल के डॉ. रंजन मुस्ताफ़ उसका इलाज कर रहे थे। उनके इलाज से मोनिका को काफ़ी फ़ायदा हो रहा था और एक बीमारी लगभग ठीक हो गई थी। मोनिका के पति मि. सीको ने इस बात को स्वीकार किया था। वे बेहद गरीब हैं और उनके पाँच बच्चे थे, कैथोलिक ननों ने उनसे सम्पर्क किया, बच्चों की उत्तम शिक्षा-दीक्षा का आश्वासन दिया, उस परिवार को थोड़ी सी जमीन भी दी और ताबड़तोड़ मोनिका का “ब्रेनवॉश” किया गया, जिससे मदर टेरेसा के “चमत्कार” की कहानी दुनिया को बताई जा सके और उन्हें संत घोषित करने में आसानी हो। अचानक एक दिन मोनिका बेसरा ने अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उसका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया। जब एक चैरिटी संस्था ने उस अस्पताल का दौरा कर हकीकत जानना चाही, तो पाया गया कि मोनिका बेसरा से सम्बन्धित सारा रिकॉर्ड गायब हो चुका है (“टाईम” पत्रिका ने इस बात का उल्लेख किया है)।
“संत” घोषित करने की प्रक्रिया में पहली पायदान होती है जो कहलाती है “बीथिफ़िकेशन”, जो कि 19 अक्टूबर 2003 को हो चुका। “संत” घोषित करने की यह परम्परा कैथोलिकों में बहुत पुरानी है, लेकिन आखिर इसी के द्वारा तो वे लोगों का धर्म में विश्वास(?) बरकरार रखते हैं और सबसे बड़ी बात है कि वेटिकन को इतने बड़े खटराग के लिये सतत “धन” की उगाही भी तो जारी रखना होता है….
(मदर टेरेसा की जो “छवि” है, उसे धूमिल करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, इसीलिये इसमें सन्दर्भ सिर्फ़ वही लिये गये हैं जो पश्चिमी लेखकों ने लिखे हैं, क्योंकि भारतीय लेखकों की आलोचना का उल्लेख करने भर से “सांप्रदायिक” घोषित किये जाने का “फ़ैशन” है… इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाना नहीं है, जो कुछ पहले बोला, लिखा जा चुका है उसे ही संकलित किया गया है, मदर टेरेसा द्वारा किया गया सेवाकार्य अपनी जगह है, लेकिन सच यही है कि कोई भी धर्म हो इस प्रकार की “हरकतें” होती रही हैं, होती रहेंगी, जब तक कि आम जनता अपने कर्मों पर विश्वास करने की बजाय बाबाओं, संतों, माताओं, देवियों आदि के चक्करों में पड़ी रहेगी, इसीलिये यह दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया गया है)

Monday, August 26, 2013

ख़ुदा के ठिकाने कितने हैं ...!

हर इन्सां परदे में है, बिन परदे का कौन भला 
रंग-बिरंगे, मोटे-झीने, परदे न जाने कितने हैं

जाना होगा जिनको उनको, कौन कभी रोक पाया है
जाने वालों को दुनिया में, राह न जाने कितने हैं 

चुल्लू-चुल्लू पानी हम भी, फेंक रहे हैं कश्ती से 
देखने वाले सोच रहे, हम लोग सयाने कितने हैं

डूब गए हम दरिया में, संग खड़े रहे संगी-साथी 
ऐसे में हम क्या सोचे के दोस्त पुराने कितने हैं 

ईमान की बातें क्या करना, देश के रिश्वतखोरों से 
नोट की हर गड्डी में देखो, 'गाँधी' तो न जाने कितने हैं

कभी बसे क़ाबा वो 'अदा', और बसे कभी काशी में 
मोह्ताज़ी को कोई छत न सही, पर ख़ुदा के ठिकाने कितने हैं

Wednesday, August 21, 2013

बुलंदियों से कुछ मंज़र, साफ़ नज़र नहीं आते हैं ..!

जब तुमने अपने दिल पर इतने, संगे-दर लगाए हैं
हमने भी फिर उनके मुक़ाबिल, कई मंसूबे बनाए हैं

दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ यहाँ, अब सब बेग़रज़ हो गए हैं 
बेलाग लरजती उँगलियों ने, बेख़ौफ़ कलम चलाये हैं

छलक जाने दो तबस्सुम, अपने आरिज़-ओ-लब पर अब 
रौशनी का इक सादा दीया, हम दीद में जलाए हैं

जहाने-फ़िक्र में तुम क्यों बेक़ार, यूँ दुबलाते जाते हो
मसअलों के कोहे-पराँ, हम अपने संग ले आये हैं

बुलंदियों से कुछ मंज़र, कुछ साफ़ नज़र नहीं आते 
इस दश्ते-ग़ुरबत में बुजुर्गों की, दुआयें ही काम आये हैं

क्यूँ खेलते हो सियासत की वो, बेफ़जूल सी बाज़ी 'अदा'
शरारती फ़रिश्तों को ख़ुदा, बेआवाज़ लात लगाए है

संगे-दर = द्वार का पत्थर
तबस्सुम = मुस्कान
आरिज़-ओ-लब  = गाल और होंठ
दीद = आँख
मसअलों = समस्याओं
कोहे-पराँ= भारी पर्वत
दश्ते-ग़ुरबत = परदेस का जंगल
दौलते-हर्फ़-ओ-बयाँ = शब्दों की दौलत

Monday, August 19, 2013

होता वो सेकेण्ड बेस्ट ही है...!


एक गाना बहुत पहले सुना करते थे 'कितना आसाँ है कहना भूल जाओ...कितना मुश्किल मगर है भूल जाना '..आज भारतीय समाज में जितनी सकारात्मकता तलाक़ को दी जा रही है, उतना ही कम ध्यान शादी पर दिया जा रहा है । जोड़ों में सहिष्णुता की बहुत कमी होती जा रही है, छोटी-छोटी बातों का सोल्यूशन लोग तलाक़ में ढूँढने लगे हैं...जबकि, अंततोगत्वा ये एक समस्या हो सकती है, समाधान नहीं

कोई भी आपको कभी नहीं बतायेगा, कि तलाक़ में बिखरे हुए जीवन की आवाज़ आपको, आपके जीवन के अंतिम क्षणों तक सुनाई पड़ेगीआपको ये ज़रूर बताया जाएगा, कि यह एक कठिन फैसला होता हैइससे गुज़रना बहुत दुखद अनुभव होता है शायद यह दुनिया के टॉप दुखों में से एक होता है...लेकिन इसका असर कितना गहरा होता है, ये आपको कोई नहीं बतायेगा तलाक़ सिर्फ दो व्यक्तियों के, जुदा होने का नाम नहीं है, इस एक हादसे से दरक जाते हैं, कितने ही आने वाले पल, दिन और साल !

जब-जब भी आप देखेंगे अपने दोस्तों, माँ-बाप, रिश्तेदारों को, शादी की साल गिरह मनाते, कहीं न कहीं आपके अन्दर कुछ न कुछ टूटेगा,  जब आप ये देखेंगे कि आपके माँ-बाप ने ५० साल या ६० साल अपना विवाहित जीवन जीया है, आपके मन में एक अपराध-बोध तो आ ही जाएगा। शादी से समाज में एक सम्मान तो मिलता ही है, बच्चों में सुरक्षा की भावना बनी रहती है, तलाक़ के साथ सबसे पहले आप, अपने बच्चों का विश्वास खो देते हैं, उनका विश्वास उसी दम टूट जाता है.. आपके बच्चे आपको, निडर और साहसी देखना चाहते हैं, एक हारा हुआ इंसान नहीं, और तलाक़ भगोड़ों का काम है, यह कमज़ोरी की निशानी है, जीवन की परेशानियों से भागने का नाम तलाक़ है, और ऐसा व्यक्ति कभी भी मज़बूत नहीं माना जाएगा, न ही अनुकरणीय...

दूसरी तरफ, तलाक से बच्चे, सिर्फ माँ-बाप नहीं खोतेवो खो देते हैं, घर, परिवार, पारिवारिक जीवन की निरंतरता, अपने जन्म से लेकर उस समय तक की जीवन यात्रा वो खोते है अपना आराम और अपनी सुरक्षादरअसल, तलाक़ के बाद आप अपने बच्चों को वो सुरक्षा दे ही नहीं पाते, जो आपको, अपने माता-पिता से, बिना किसी शर्त के मिली होती हैऔर जिसके लिए आप अपने माता-पिता के प्रति कृतज्ञं रहते हैं, सारी उम्र !

विवाह कितना भी अपूर्ण हो, पूर्णता का अहसास कराता है। विवाह में, सिर्फ अच्छे पलों को तलाशना स्वार्थ होगा....क्योंकि जीवन ही खट्टे-मीठे अनुभवों का मिश्रण है और शादी जीवन का ही हिस्सा है। आप अपने बच्चों का जन्मदिन मनाते हैं, उनका Graduation , उनकी उपलब्धियां, अपनी निराशाएं, अपनी सफलताएं, बच्चों की शादी, और अनगिनत उतार-चढ़ाव जीवन के कुछ अच्छे लम्हें और कुछ बुरे वक्त, अपने साथी के साथ एन्जॉय करते हैं, या साथ-साथ भुगत लेते हैं। जिसकी अपनी ही एक संतुष्टि होती है। 

सुखी दाम्पत्य जीवन, सिर्फ हर तरह के सुख-साधन का होना नहीं होतावो निर्भर करता है एक दूसरे के प्रति विश्वास, निस्वार्थ प्रेम और एक दूसरे की ख़ुशी के लिए त्याग करने में
हर तलाक़ को देखने के बाद मेरा विश्वास,  विवाह पर और बढ़ जाता है, क्योंकि आज तक मैंने किसी भी तलाक़ में, जीवन की परेशानियों का जवाब नहीं पायानहीं देखा तलाक़ के बाद, किसी भी आँगन में  सच्ची ख़ुशी को हाँ ये ज़रूर देखा है, जुदा होने का फैसला सिर्फ दो इंसानों का होता है, लेकिन तबाह कई जिंदगियां होतीं हैं विडंबना, ये भी होती है, कि हम किसी को अपनी ज़िन्दगी से निकाल कर सोचते हैं, वो चला/चली  गया/गयी, लेकिन ऐसा होता नहीं है वो कभी नहीं जाता/जाती,  सिर्फ यादें धुंधली हो जातीं हैं, वो कभी मिटती नहीं हैं

एक बात और, तलाक़ के बाद अगर आप फिर से घर बसाते हैं, आपका साथी कितना भी परफेक्ट हो, होता वो सेकेण्ड बेस्ट ही है...!

हाँ नहीं तो..!!

Saturday, August 17, 2013

फिर भी बनाऊँगी मैं, एक नशेमन हवाओं में........

मेरे इश्क़ का ज़ुनून, रक़्स करता है इन फिज़ाओं में,
तेरे फ़रेब कुचलते हैं मुझे, मेरे दर्द की छाँव में
हर साँस से उलझती है मेरी, हर लम्हा ज़िन्दगी की, 
लिपटती जाती है हर रोज़, उम्र की ज़ंजीर पाँव में
अब ये पागलपन मेरा, बरामद करवाएगा मुझे,
कब तक छुपूँगी मैं कहो, सदियों की गुफाओं में 
आंधियाँ मुझसे अब भी, हर दुश्मनी निभातीं हैं,
फिर भी बनाऊँगी मैं, इक नशेमन हवाओं में...!

रक्स=नृत्य
नशेमन=घोंसला

Thursday, August 15, 2013

आधी रात का सवेरा !

वन्दे मातरम् !!
 


दिल्ली ने !
अतीत के 
अनगिनत उत्सव देखे हैं,
चक्रवर्ती सम्राटों के राजतिलक देखे हैं,
शत्रुओं की पराजय देखी,
विजय का विलास देखा,
अपूर्व उल्लास देखा,
परन्तु...
एक घड़ी ऐसी भी आई 
जब...
सूर्योदय और सूर्यास्त का 
अंतर मिटते देखा,
बड़े-बड़े महोत्सवों 
और महान पर्वों को 
फीका पड़ते देखा,
उस रात... 
मतवारे, दिल्ली की सड़कों पर झूम रहे थे,
कितने ही सपने, 
लाखों रंग लिए
बूढी आँखों में घूम रहे थे,
दिल्ली की धमनियों में 
स्वतंत्रता
यूँ अवतरित हुई थी,
जैसे...
धरती पर 
स्वर्ग से गंगोत्री उतर आई हो,
आधी रात को तीन लाख ने
सुर मिलाया था,
'जन-गण-मन', 'वन्दे मातरम्' 
का जयघोष लगाया था,
पहली बार...
'शस्य-श्यामला'
'बहुबल-धारिणी'
'रिपुदल-वारिणी'
शब्दों ने...
स्वयं ही पुकार कर
अपना सही अर्थ
इस दुनिया को बताया था,
ललित लय में 
हिलते हुए वो अनगिनत सिर,
क्या सोच रहे थे 
ये इतिहास में नहीं लिखा गया, 
मगर वो तारीख़ 
दर्ज हो गयी आने वाली 
अनगिनत शताब्दियों के लिए,
जब...
आधी रात के सवेरे ने
१५ अगस्त १९४७ को,
आँख खुलते ही
सलामी दी थी
नवीन, अभूतपूर्व 
तिरंगे को,
जयघोष के नाद से 
जनसमूह की नाड़ियाँ,
युद्धगान से धमक उठीं,
माँ भारती ने अपनी बाहें फैला दी
अपने बच्चों के लिए, 
क्योंकि अब !
कोई बंधन नहीं था...!
जय हिंद...!!



सभी चित्र गूगल से साभार...

Tuesday, August 13, 2013

कुछ भी...!

कुछ ठहरे लम्हों ने 
फिर पत्थर उठाये हैं
बे-पैरहन यादों पर
जम कर चलायें हैं 

शब्-ए-खामोशी से 
थोड़ी आवाज़ चुरा  
हौसले की इक नई धुन
नजदीकियों ने गाये हैं

अब कैसी तक़ल्लुफ़  
तराश लिया बुत मैंने 
नज़रों से टूटते तारों ने  
सज़दे में सिर झुकाए हैं 

होंगे कभी उस फ़लक पर 
या फिर गर्दिश के पार
फ़ेर कर मुँह आफ़ताब से 

अब हम चाँद बुझाये हैं 

उम्मीद के सामने 
ख़ामोश है 'अदा'
रोनी सी सूरत लिए 
हाथ हम हिलाए हैं 

(बे-पैरहन : बिना कपडों के)
(गर्दिश : 
दुर्भाग्य)
(
फ़लक : आसमान )

Sunday, August 11, 2013

सोचते रहते हैं हम ...!

ज़िन्दगी कैसे बसर हो, सोचते रहते हैं हम 
परेशानी कुछ कमतर हो, सोचते रहते हैं हम 

मीलों बिछी तन्हाई, जो करवट लिए हुए है 
ख़त्म अब ये सफ़र हो, सोचते रहते हैं हम 

गुम गया है वो कहीं या उसने भुला दिया है 
बस उसको मेरी खबर हो, सोचते रहते हैं हम 


वफ़ा की देगची में, हज़ारों इंतज़ार उबल रहे हैं 
अब यहीं मेरा गुज़र हो, सोचते रहते हैं हम

तेरी ऊँचाइयों तक, मेरे हाथ कहाँ पहुंचेंगे 
बस तुझपर मेरी नज़र हो, सोचते रहते हैं हम 

मत कर शुरू नई कहानी ''अदा', रहने दे वर्क पुराने 
तू लौटा अपने घर हो, सोचते रहते हैं हम

Saturday, August 10, 2013

परेशान कर दिया है, इस वकील के सवालों ने......



शुमार थे कभी उनके, रानाई-ए-ख़यालों में
अब देखते हैं ख़ुद को हम, तारीख़ के हवालों में

गुज़री बड़ी मुश्किल से, कल रात जो गुज़री है  
टीस भी थी इंतहाँ, तेरे दिए हुए छालों में 

बातों का सिलसिला था, निकली बहस की नोकें 
फिर उलझते गए हम, कुछ बेतुके सवालों में

सागर का क्या क़सूर, वो चुपचाप ही पड़ा था
उसको डुबो दिया मिलके, चंद मौज के उछालो ने 

हूँ गूंगी मैं तो क्या 'अदा', इल्ज़ाम गाली का है 
परेशान कर दिया है, इस वकील के सवालों ने

कुछ होंठ सूखे हुए थे, और थे कुछ प्यासे हलक 
पर गुम गईं कई ज़िंदगियाँ, साक़ी तेरे हालों में

रानाई-ए-ख़यालों=कोमल अहसास
साक़ी=शराब बाँटने वाली
हाला=शराब की प्याली


Tuesday, August 6, 2013

हो जाएगा नव-निर्माण हमारे मन के वृन्दावन का...!


विष वृक्ष की तरह फैलते 
इस डाह में,
भर दो अणु अस्त्रों की आग,
जिसकी लपट से 
झुलसे चेहरों को,
अपनी असलियत पर आने दो,
गलाने पर जो तुले हैं
हमारी अस्मिता-तरु को,
उन सांप्रदायिक डालियों को काट डालो।
ख़ूब लड़ें हम आओ मिलकर,
मगर टूटने की बात न करें 
हो जाने दो हाहाकार,
बस एक बार,
कर लो हर फसाद,
बह जाने दो हर मवाद,
द्वेष की काली काई निकल जाने दो,
उज्जवल स्फटिक पथ बन जाने दो,
आलोकित हो जाएगा
रास्ता उत्थान का,
फिर हो जाएगा नव-निर्माण 
हमारे मन के वृन्दावन का...

Sunday, August 4, 2013

तेरे इंतज़ार का ये, कमाल हुआ है ...!

जीतने का हुनर, हम भूलने लगे 
हारने का भी न कोई, मलाल हुआ है

कत्ल हुआ है कहीं, अफवाह सुनी थी
मालूम हुआ, मेरा दिल हलाल हुआ है 

पत्थरों के ढेर लग गए थे भीड़ में
काँच के दिलों से, कुछ ज़लाल हुआ है

जाँ निकल गयी बस, आँखों के रास्ते 
तेरे इंतज़ार का ये, कमाल हुआ है 

क़रीब थे 'अदा' मगर इक फासला तो था
इस एहतियात पर भी अब, सवाल हुआ है


 ज़लाल=गुस्ताखी,ग़लती,भूल