Wednesday, November 30, 2011

डायरी के पन्ने...




कल रात मैं ग्यारह बजे ही सो गया था शायद, 
अब जो आदमी रात दो-तीन बजे तक, अपने चाँद का दीदार करने को बैठा रहता है... 
उसे एकदम से नींद भी कैसे आती भला? 
अब तुम्हें कैसे कहता कि..मत जाओ..अपने हुनर की नुमाईश करने... 
इतनाSSSS बोझ तुम्हारे कन्धों पर ? 
थोड़ा सा रिलैक्सेशन तो मिलना चाहिये ना हर किसी को...बीच बीच में,
लेकिन... तुम्हें तो बस कुछ साबित करना है, 
सो चली गयी तुम...   
फ़िर मैं बैठकर करता भी क्या, चला गया बिस्तर में, 
भगवान से दिन भर के गुनाहों की माफ़ी माँगी रोज की तरह,
और फ़िर आँखें मींचकर तुम्हारा तसव्वुर करता रहा... 
मोबाईल में कैद तुम्हारी आवाज़ में, तुम्हारे गाये गीत... कम से कम घंटा भर सुनता रहा... 
कानों के रास्ते तुम्हें अपने पोर-पोर में पैबस्त होते महसूस कर रहा था मैं... 
और तुम ऐसे धीरे-धीरे, हौले-हौले लेकिन मजबूती से पैर धरती हुई.... 
मेरे तन बदन में उतर रही थी... 
जैसे घटा पर्वतों पर उतर रही हो...
जैसे रेगिस्तान की रातों में रेत पर...चाँदनी की चादर बिछ रही हो...आहिस्ता-आहिस्ता... 
या सर्दियों में कच्चे आँगन में गुनगुनी धूप...अपनी हुकूमत फ़ैला रही हो, 
तुम दूर हो लेकिन छा जाती हो मेरे दिल-ओ-दिमाग पर... 
एक सुरूर की तरह...
हर लम्हा छाई रहती हो और मुझे मदहोश किये रहती हो....
तुम्हारी आवाज जैसे शहद में  डूबी हुई... 
प्रेम में पगी हुई... 
विश्वास से सनी हुई... 
मुझे बांध लेती है... बेसुध कर देती है   

जानती हो ! 
तुम मेरी आदत बनती जा रही हो... बल्कि बन गई हो...
मेरी जरूरत हो गई हो तुम...
जैसे जीने के लिये सांस चाहिये...बिल्कुल वैसी ही... या फिर उससे भी ज्यादा....



Saturday, November 19, 2011

आना होगा तुझको 'दुश्मन', तब दुश्मन भी आ जाते हैं ..





सपनों के ये शहर क्यूँ मुझको, इतने ख़्वाब दिखाते हैं
बात के तेरे सात समुंदर, मुझे डुबोते-उतराते हैं 


रात गए जब तेरे ख़्वाब, मेरी आँखों में इठलाते हैं
तेरे प्यार की चादर ले, हम तेरी आबरू बन जाते हैं 


अब जाना है तुझको जाकर, कहाँ तुझे पहचानते थे  
तुम बन गए हो मेरा आईना, हम चेहरा बन जाते हैं 


क्या जाने अब कौन सा लम्हा,और कहाँ पर आखरी हो 
आना होगा तुझको 'दुश्मन', तब दुश्मन भी आ जाते हैं


कहने को तो बात बहुत है, कितनी और क्या-क्या कहें 
वफ़ा का दामन थाम के रखना, हम 'अदा' फरमाते हैं....