Friday, May 27, 2011

कब आओगे...! (आँखों देखी)



बात उन दिनों की है जब मैं मुंबई में थी....एक Television Production कंपनी में Assistant Producer के पद पर काम कर रही थी...कम्पनी का नाम S.M.Isa Production था....हमलोग scandinavian Televison के लिए दो Documentaries बना रहे थे...

एक Documentary थी मुंबई के मछुआरों पर और दूसरी मुंबई के फिल्म स्टार्स की निजी जिंदगी पर...अर्थात स्टूडियो के बाहर उनकी ज़िन्दगी कैसे बीतती है....मैं मुंबई सेंट्रल के करीब ही Salvation Army Girls Hostel में रहती थी...मेरा ऑफिस जुहू में था, मैं रोज़ local trains में सफ़र करती थी..

उन दिनों सिर्फ मुंबई के मछेरों की ही शूटिंग चल रही थी...फिल्म स्टार्स की फिल्म की स्क्रिप्ट कर काम हो रहा था....दिन भर हमलोग मछेरों की बस्ती में ही घुसे रहते....कितने राज और कितनी बातों का खुलासा होता रहा, ये बता नहीं सकती ....

ज्यादातर मछेरे सिर्फ मछेरे नहीं थे.....मछली पकड़ने के साथ-साथ तस्करी का भी धंधा इनके काम में शुमार था...हर बार हम हैरान हो जाते थे, जब इन मछेरों की झुग्गियों में, हमें दुनिया का हर वो सामान मिल जाता था, जिसकी कल्पना बड़े-बड़े मकानों में रहने वाले भी नहीं कर सकते थे...सोना, इलेक्ट्रोनिक्स, कीमती पत्थर, चरस गांजा, यहाँ तक कि ख़ूबसूरत विदेशी गाड़ियाँ भी, इन्हीं झुग्गियों के अन्दर देख कर हम चकित रह जाते थे....कितना वैभव है इन झुग्गियों में इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता है...इस तरह की तस्करी में दुबई जैसे अमीर देश का पूरा हाथ होता है...सोचने वाली बात ये है कि यह वही देश है, जहाँ शरिया कानून की बंदिश है...

खैर...मछुवारों की फिल्म की समाप्ति के बाद हमलोगों ने दूसरी फिल्म 'रियल स्टार' जो कि फिल्म स्टार्स के निजी जीवन पर आधारित थी...पर काम करना शुरू किया..इसके लिए हम लोग फिल्म studios , फिल्मिस्तान, महबूब स्टूडियो, आर. के. स्टूडियो, नटराज, जेमिनी, क़माल अमरोही स्टूडियो इत्यादि में ही जाया करते थे...जहां फिल्म स्टार्स शूटिंग किया करते थे....और क्योंकि यह फिल्म विदेशी टेलीविजन के लिए बन रही थी, इस लिए स्टार्स भी हमसे बात करने और हमें समय देने में कोई कोताही नहीं करते थे ...

अँधेरी में कई फिल्म स्टडियो हैं और मुझे अक्सर लौटने में काफी रात हो जाया करती थी ....इसलिए मैंने सोचा ...अँधेरी में ही अगर कोई जगह मिल जाए, रहने के लिए तो बेहतर होगा....मैंने ऐसी जगह की तलाश शुरू कर दी और मुझे एक जगह मिल ही गयी...

ज़िया लोबो...नाम था उस गोवन महिला का, वो अँधेरी ईस्ट में एक चाल में अकेली रहती थी...उनके घर में दो कमरे थे....एक किचन, उसी में एक कोने में नहाने की जगह...उनके पति साउदी में काम करते थे ...मेरे लिए यह इंतज़ाम बहुत अच्छा तो नहीं था, लेकिन जितनी मेरी चादर थी उस हिसाब से ठीक था... ज़िया आंटी ने मेरी खाने की भी जिम्मेवारी ले ली थी, जो कि सोने पर सुहागा था.... जेमिनी , नटराज , फिल्मिस्तान इन studios तक पहुंचना अब आसान था ...बस हम स्टार्स से appointment लेते ...वहां उनकी शूटिंग करते, फिर उनके घरों में शूटिंग करते....कहने का तात्पर्य मेरी ज़िन्दगी थोड़ी सी आसन हो गयी....

जिया आंटी के जीवन में भी मेरे आ जाने से बहुत खुशियाँ आ गयीं, उनके कोई बच्चा नहीं था ..इसलिए मुझे ही बेटी बना लिया था, और मैं भी मुंबई के तेज़ जीवन में धीरे-धीरे रमने लगे... हालांकि यह भी आसन नहीं था.....'गणपति' जी का त्यौहार भी आया इसी दौरान .... सड़कों पर बड़े बड़े स्क्रीन लग जाते थे और हमलोग सड़क पर बैठकर फिल्म देखा करते देर रात तक...साथ ही नाम सुनते जाते कि फलाने ने इतना पैसा दिया इस फिल्म को दिखाने के लिए...पूरा राम-लीला सा माहौल होता था...

धीरे-धीरे चाल के दूसरे लोगों से भी मेरी अच्छी पहचान हो गयी....और सभी मुझसे स्नेह करने लगे....

एक दिन मैं ऑफिस से आई तो घर लोगों से भरा था....अजीब सनसनी का वातावरण था ...सब बहुत दुखी बैठे थे....ज़िया आंटी बेहाल सी पड़ीं थीं और लोग उनको सम्हाल रहे थे, वो रो रही थीं....ज़िया आंटी की माँ भी आ गयी थीं....मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया....मैंने एक और आंटी जिनका नाम मुझे इस वक्त याद ही नहीं आ रहा ....एक नाम दे दे रही हूँ ....'प्रभा' ...शायद हैदराबाद की थीं, ठीक से मालूम नहीं है..बस उनकी बोली से ये अंदाजा लगाया है...काफी हंसमुख औरत थी....हर वक्त हँसना और हँसाना ही उनका काम था....उनको इशारे से बुला कर मैंने पूछा....क्या हुआ है...??? उन्होंने बताया ...ज़िया का मरद साउदी जेल में है..मैंने पूछा क्यूँ ?? उन्होंने कहा ..अबी नई तेरे कूँ बाद में बोलती मैं....मैंने कहा ठीक है.....

अब शाम होने को आई थी, लोग अपने-अपने घरों को जाने लगे....बस मैं, ज़िया आंटी, ज़िया आंटी की माँ और प्रभा आंटी ही रह गए.....ज़िया आंटी अब भी बेहाल थीं, अपनी माँ से चिपक कर बैठीं थी, जिस तरह वो अपनी माँ से चिपक कर बैठीं थीं, एक सच सामने नज़र आया...इंसान की उम्र चाहे कितनी भी हो जाए, सुकून उसे माँ की गोद में ही मिलता है....मेरा मन अभी भी उद्विग्न था, असल बात क्या थी इसका खुलासा बही तक मुझे नहीं हो पाया था...और जानने की बहुत इच्छा प्रबल हो रही थी...मैंने प्रभा आंटी से पूछा, अब तो बताओ...उन्होंने इशारे से मुझे मेरे कमरे में चलने को कहा...और हम दोनों मेरे कमरे में आ गए...बिस्तर पर बैठ कर जो प्रभा आंटी ने मुझे बताया वो कुछ इस तरह था....

ज़िया आंटी के हसबैंड का नाम फर्नान्डो था...वो साउदी में किसी शेख के यहाँ ड्राईवर की नौकरी करते थे..शेख के महल में और भी भारतीय नौकर थे...शेख़ के घर एक रसोईया भी था इक़बाल, भारत का ही रहने वाला था...वो हैदराबादी मुसलमान था...तकरीबन २५ वर्ष का इक़बाल देखने में ख़ूबसूरत और खाना बनाने में माहिर था...हर तरह का खाना बनाने में प्रवीण इक़बाल, की वजह से ही शेख़ साहब की पार्टियां क़ामयाब होती थी....पड़ोस में ही एक और शेख़ थे उनके घर में, नाज़नीन नाम की आया घरेलू कामों के लिए थी, वो भी भारत के शहर हैदराबाद की ही लड़की थी..... उसकी भी शादी नहीं हुई थी....पास-पड़ोस में होने की वजह से इक़बाल और नाज़नीन आपस में कई बार टकराए....और उनके बीच प्रेम हो गया....दोनों को ही इसमें कोई समस्या भी नहीं लगी क्योंकि, जात एक, प्रान्त एक, मज़हब एक, और सबसे बड़ी बात दोनों एक दूसरे को बहुत पसंद करते थे....इक़बाल ने अपने घर में भी बता दिया अपनी अम्मी से कि अब कोई लड़की देखने कि ज़रुरत नहीं...मैं यहाँ तुम्हारी बहू पसंद कर चुका हूँ...इक़बाल की माँ निश्चिन्त होकर नई बहू के सपने देखने लगी...

इक़बाल ने अपने प्रेम की बात फर्नान्डो अंकल को बता दी....फर्नान्डो जी को बहुत ख़ुशी हुई और इस सम्बन्ध के लिए अपनी सहमती भी जताई....अब इक़बाल और नाज़नीन एक दूसरे से मिलने की जुगत में रहते...और इसमें फर्नान्डो अंकल ने उनका साथ दिया....उन्होंने कभी-कभी अपना कमरा दोनों को देने में कोई बुराई नहीं समझी..चोरी छुपे वो मिलने लगे..लेकिन यह चोरी जग जाहिर हो गयी जब नाज़नीन....में माँ बनने के आसार नज़र आ गए....यह साउदी में इतना बड़ा गुनाह था कि बस दोनों मासूमों पर कहर ही टूट पड़ा....

नाज़नीन और इक़बाल को कैद कर लिया गया, साथ ही फर्नान्डो अंकल भी गिरफ्तार हुए, नाज़नीन और इक़बाल साथ देने के कारण, प्रभा आंटी ने बताया कि इक़बाल और नाज़नीन को मौत की सजा सुना दी गई है, फिलहाल तीनों जेल में हैं ....और यही खबर आई थी उस दिन....

उस दिन के बाद से घर का माहौल बहुत ही अशांत रहा, मन में हर वक्त एक भय समाया रहा, जाने कब कौन सी खबर आ जाए, ज़िया आंटी और उनकी माँ रोज़ ही एम्बेसी और जाने कौन-कौन सी जगह पर गुहार लगातीं रहीं लेकिन कोई कुछ भी नहीं कर सकता था, सब के सब बस हाथ पर हाथ धरे बैठ गए थे... दिन बीतते गए...हमारी दोनों फिल्में पूरी हो गयीं....और मुझे वापस आ जाना पड़ा....

शुरू-शुरू में मैं, लगातार ज़िया आंटी को ख़त लिखा करती थी और जानना चाहती थी कि क्या हुआ...लेकिन शायद उनके पास भी बताने को कुछ नहीं था, इसलिए कोई जवाब नहीं आया.....

अब काफी समय बीत गया था...एक बार फिर मुझे मुंबई जाना पड़ा किसी काम से, मुम्बई जाऊं और ज़िया आंटी से ना मिलूँ, ठीक नहीं लगा, मैं जिया आंटी का हाल-चाल जानने चाल में पहुँच गयी...प्रभा आंटी रास्ते में ही मिल गयी और मुझे फट पहचान भी लिया....उन्होंने रास्ते में ही मुझे बताना शुरू कर दिया....फर्नान्डो वापिस आ गया है...मुझे इतनी ख़ुशी हुई, मैं चिल्लाने लगी, लेकिन वो कहती ही जा रहीं थीं....अब ये वो फर्नान्डो हईच नई..अक्खा दिन बस गुम चुपचाप रहता है...कबी कुछ नई बोलता...किसी से भी बात नई करता...मैंने पूछा, इक़बाल-नाज़नीन का क्या हुआ.....उन्होंने बताया, इक़बाल को तो फ़ौरन ही मार डाला था....बस हमलोगों को मालूमईच नई पड़ा, उसे ज़मीन में गड्ढा खोद को गाड़ दिया था ....और लोगाँ पत्थर मार-मार को उसको मार डाला, नाज़नीन को उसका बच्चा का पैदा होने का वास्ते जेल में रखा...बच्चा पैदा होने का बाद...उसको भी ज़मीन में गाड़ कर, पत्थर से सारे लोगाँ ने मार डाला....इतना सारा क़तल हुआ और हमारा देश का सरकार कुछ नई कर पाया....उन दोनों का बच्चा अभी भी, साउदी सरकार के पास है...अरे ! काय कू बच्चा को छोड़ दिया..उसको भी मार डालना था ना...प्रभा आंटी के चहरे पर बेबसी और क्रोध के कई रंग एकसाथ नज़र आने लगे थे..वो बोलती जाती थी`उस बच्चे का परवरिश का सारा जिम्मा साउदी सरकार ने लिया है, ये कैसा दुनिया है ! और कैसा इन्साफ है...! दूध पीता बच्चा को माँ-बाप से अलग कर दिया...लोगाँ इसको धर्मं बोलता..? अरे कैसा धरम ? अलग किया तो किया तो किया, मार भी दिया माँ-बाप को और बच्चा को रख लिया...तुमको मालूम ये लोग ऐसा काय कू करता है...सिर्फ इसका लिए कि, उनको मरने के बाद  कुँवारी हूर मिलेंगा जन्नत में...पण तुमको मालूम, ये अक्खा लोग जहन्नुम जायेंगा...इनका अल्लाह बी इतना बड़ा गुनाह इनको माफ़ नहीं करेंगा... इतनाssss बड़ा गुनाह किया बी, तो किस बात का वास्ते किया मालूम ! उसी बात का वास्ते, जिसको गुनाह बोलता वो लोगाँ और दो मासूम जान को मौत का सज़ा दिया, कितना स्वार्थी है ये लोगाँ...!! हूर पाने का वास्ते ये किया ? अरे ! किसको मालूम उनको हूर मिलेंगा कि लंगूर मिलेंगा ?

देवा ! देख लेना ये लोगाँ नरक का सड़ेला कीड़ा बनेंगाssss` ये बोलते हुए प्रभा आंटी के दांत पिसने लगे थे..आगे प्रभा आंटी ने बताया, फर्नान्डो को साउदी जेल ने बड़ी मुश्किल से छोड़ा था...फर्नान्डो अपने मुलुक तो वापिस आ गया है....लेकिन ज़िया के पास अबी तक नहीं आया है...वो तो किदरीच खो गया है...अब कबी वापिस आयेंगा मालूम नई.....अई गो..! गणपति बाप्पा ज़िया का इंतज़ार कबी ख़तम होयेंगा.....??? बोलते हुए प्रभा आंटी की आवाज़ भर्रा गयी...उनकी आँखों की नमी, मेरी आत्मा पर पत्थर बरसा रही थी...और मैं ख़ुद को कहीं भीतर तक...लहुलुहान पा रही थी...बहुत भीतर तक...!



Wednesday, May 25, 2011

मोटा चावल, पतली कमर...


पिछली बार जब इंडिया गयी तो वापसी में रांची एयर पोर्ट पर पहुंची...रांची का एयर पोर्ट तो बस यूँ लगता है जैसे अपना ही साम्राज्य हो...और क्यूँ न हो भला...वहां जिनका साम्राज्य है ..उनके दिलों में हमरा साम्राज्य जो है..:)

अरे नहीं..! ऐसी वैसी कोई बात नहीं है...मेरा बचपन वहाँ घुसते साथ ही फुदकने लगता है ....मेरी सहेली माधुरी, एयर होस्टेस थी लेकिन अब कोई टॉप पोजीशन में है... जिससे दोस्ती, आप यूँ समझे कि मेरे पैदा होते साथ ही हो गयी थी...और आज भी वैसी ही है...न एक इंच इधर न एक इंच उधर...देबू भैया, सिक्योरिटी ऑफिसर हैं...सतीश.. मेरे जीजा जी हैं जो एयर पोर्ट मैनेजर हैं...कहने का मतलब यह कि हर तरफ अपने लोग ही नज़र आते हैं..

मैं जैसे ही पहुंची, देखा माधुरी और देबू भैया, बड़े बीजी हैं, किसी महिला का लगेज ज्यादा होने पर उसकी मदद में लगे हुए हैं...माधुरी ने मुझे देखते ही, आँखों से इशारा किया ''अभी आती हूँ''...मैंने भी आँखों आँखों में ही कह दिया ''फिकिर नॉट ''.. ये आँखें भी कितनी अजीब होतीं हैं...बिन बोले सब कुछ कह जातीं हैं...मैं तो वैसे भी आँखों का इस्तेमाल ज्यादा ही करती हूँ...आलसी हूँ ना....कौन अपनी ज़ुबान को तकलीफ दे....आँखों से अपना काम भी हो जाता है और किसी को पता भी नहीं चलता है...युंकी...आम के आम और गुठलियों के दाम....सबसे बड़ी बात कोई सबूत नहीं छोड़ते हम...कोई चश्मदीद गवाह नहीं ...कोई कह भी नहीं सकता कि तुमने ये बात कही थी...हा हा हा...हाँ अगर कोई कहे कि तुमने मुझे 'ऐसी-वैसी' नज़र से देखा था तो फिर हम देख लेंगे उसे भी...हाँ नहीं तो... 



खैर दस मिनट में माधुरी आ ही गयी...मैंने देखा था, महिला बहुत ज्यादा रिक्वेस्ट कर रही थी...सामान कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा था.....मैंने माधुरी से पूछा 'लफड़ा क्या है  ?' माधुरी ने जो बताया, वो गौर करने वाली बात है...कहने लगी ये 'प्रियंका चोपड़ा' की माँ है ..मैं हकला के रह गयी ..'ककक्या ?' प्रियंका की माँ और बोरी के साथ ? क्या बात करती है...! माधुरी बोली ..अरे सच में यार, प्रियंका के लिए यहाँ से 'उसना चावल' (boiled rice)  ले जा रही है...प्रियंका यही चावल खाती है, दूसरा नहीं...और तो और सिर्फ चावल ही खाती है...वो भी 'ढेंकी का कूटा हुआ' ...अब जिनको 'ढेंकी' का मतलब नहीं पता ..उनके लिए तस्वीर लगा दी है, 'ज़रा ऊपर देखिएगा'....इस यंत्र को पैर से चलाया जाता है....मैंने भी चलाया है कई बार....ये सब सुनते ही मैं तो पछता के रह गयी, अपना सामान देखा....मन ही मन सोचा.. हाय राम !, एक हम हैं, हर वक्त बासमती के ही गुण गाते रहते हैं...अब ना हम जाने, प्रियंका की पतली कमर का राज...और एक हम हैं...'उसना चावल' (boiled rice) के देश में पैदा होकर भी, उसकी महिमा नहीं जान पाए...हमरी माँ कितना बार बोल चुकी है, 'उसना चावल' (boiled rice) सबसे अच्छा होता है...लेकिन हम सुने तब ना..काश हम भी माँ की बात मान लिए होते...तो हमारी कमर, कमरा तो ना होती ...! लेकिन अब तो हम भी ठान चुके हैं...और माधुरी से कह चुके हैं...चाहे कुछ भी हो जाए, मेरे लिए भी 'ढेंकी कूटा चावल का इंतज़ाम करो..अगली बार मेरा लगेज भी बड़ा होगा....अपने कमरे को कमर करना ही है...माधुरी भी मान गयी है मेरी बात...आप भी इस बात पर गौर फरमाएं...बेशक ये चावल देखने में मोटा होता है...लेकिन खाने में स्वादिष्ट और हर तरह से पौष्टिक होता है...इसके लुक पर नहीं जा कर, आप अपने लुक का ख़याल कीजिये और जहाँ तक हो सके इसे अपने भोजन में स्थान दीजिये...अगर आप चावल खाते हैं तो...वर्ना आपकी मर्ज़ी....हमारा काम था बताना सो बता दिए...
हाँ नहीं तो..!


Thursday, May 19, 2011

अब कहाँ गया वो ?? (जापान की सुनामी की याद में एक कविता ... )


मौसम में कोई सम नहीं,
रात हो गई अंगारा
दुपहरी थोड़ी रेशम सी है
सांझ बनी ऊसर-परती, 
निर्वासित सी डोल रही
नियमितता, अनियमितता संग,
कभी गलियों में
कभी सड़कों पर,
खुली-खुली और बिन संतुलन,
स्वछंदता है बंधी-बंधी,
जीवन का आयाम 
बिखरा सा,
न कोई कसाव, 
न कोई बनावट 
ग्राम-देवता रूठ गए अब, 
धरती कितनी रेगिस्तानी
हरे-भरे खेत हैं ओझल,
दलदल हुई, अट्टालिकाएं 
स्वर्ग की चाबी कहीं खो गई,
शहर था इक गठा-गठाया
सृजन का रंग काफ़ूर हुआ,
वो यही कहीं था
अब कहाँ गया वो ?
ढूंढ के देखा,
है चहुँ ओर
नहीं मिला वो 
नहीं मिला वो... !
 

 

Tuesday, May 17, 2011

तू दुआ सा लगता है...


काफ़िरों की महफ़िल में
तू ख़ुदा सा लगता है
बेगानों की भीड़ में इक तू
बस अपना सा लगता है
सारे बेवफ़ा लगे हैं मुझको
तू वफ़ा सा लगता है
हाथ मेरे उठ रहे हैं जानम
तू दुआ सा लगता है...

Saturday, May 14, 2011

अब घर का काम कौन करेगा ? (आँखों देखी )


आज फिर उसके चेहरे पर काले-नीले से दाग थे...गौर से देखने पर गर्दन और हाथों पर भी खरोंच के निशान थे...फिर उसकी ज़रुरत से ज्यादा झुकी हुई गर्दन भी, बहुत कुछ बता रही थी....हाय ! कैसी हो ? आई ऍम फाइन ...लीना ने बिना मेरी तरफ देखे हुए जवाब दिया ...ऐ क्या हुआ तुझे...? मैंने उसे हलके से धकेलते हुए पूछा था.....कुछ नहीं ...कुछ भी तो नहीं, कहते हुए वो और सिमट गयी थी और जाने कैसी तो उसकी आवाज़ हो गयी थी...मैं जानती हूँ, जब भी लीना कहती है, कुछ नहीं हुआ...तब ज़रूर कुछ होता है...और आज का दिन भी अपवाद नहीं था....मैंने भी उसे अब ज्यादा एम्बैरेस नहीं करना चाहा...दो घंटे में लंच होने ही वाला है...फिर बात करुँगी उससे...

लंच के वक्त लीना..हमारे बीच नहीं आई...जाकर कोने में बैठ गयी..मैंने दूर से ही आवाज़ दी ...अरी ओ महारानी..! लंच नहीं करना है क्या...लीना ने बिना मेरी तरफ देखे ही, 'ना' में हाथ हिला दिया था...लेकिन मैं भी कौन सी कम थी...उठ कर चली ही गयी उसके पास...'क्या बात है लीना ? लंच नहीं लाई तो, मेरे साथ कर ले...' 'अरे नहीं थैंक्स ..तू खा, आज मुझे भूख नहीं है...' लीना ने कहा था...अब मुझे झुंझलाहट होने लगी..'थैंक्स की बच्ची...तू अपने को बड़ी होशियार समझती है...तुझे लगता है हम सारे बेवकूफ हैं...तुझपर सुशील ने हाथ उठाया है...सारे बदन पर नील पड़ा हुआ है और तू हम सबको उल्लू बना रही है...तू क्या सोचती है...लोग अंधे हैं...आज फिर कहेगी, गिर गयी थी बाथरूम में...बाथरूम न हुआ अखाड़ा हो गया...तू कुश्ती करती है वहां और गिरती रहती है...देख अगर उसे नहीं रोका तो, एक न एक दिन कोई न कोई कम्प्लेन कर देगा यहाँ से...देख ले, वो दोनों कालियां, सुबह से खुसुर-खुसुर कर रहीं हैं...और अगर तू नहीं चाहती की कोई देखे, ये तेरा काला-पीला चेहरा तो मेक-अप करके आया कर...और कान खोल के सुन ले, मेरे से ये ड्रामेबाजी मत किया कर...भूख नहीं है...!' मैंने उसकी नक़ल की थी ...'चुप-चाप से खाना खा और साफ़-साफ़ बता आज क्या हुआ है...'मेरी सारी भड़ास एक सांस में निकल गई थी....लीना मुझे बड़ी कातर नज़रों से देखने लगी...और फुस-फुसाई....दिल नहीं है मेरा खाने का....मैंने उसे एकदम से घूर कर देखा था...उसने हाथ झट आगे बढ़ा दिया और रोटी तोड़ने लगी ..

याद है मुझे, शायद ५-६ महीने पहले की बात है...मुझे, ऑफिस में थोड़ी देर हो गयी थी, उस दिन... सारे जा चुके  थे...मैं भी अपना काम ख़तम करके, भागना चाहती थी...कंप्यूटर ऑफ करके मैं, दरवाज़े की तरफ डग भरने लगी थी...कोने के cubical के पास से गुजरने लगी कि किसी के सुबकने की आवाज़ आई...उस समय ऑफिस में बिलकुल अकेली थी मैं,  डर के मारे दिल धौंकनी की तरह चलने लगा था..जाने कौन है..? डरते हुए झाँका था ..तो देखा लीना सर झुकाए, सुबक रही थी...'आर यू ओ के ?' मेरे इस सवाल से, वो भी घबरा गयी थी...शायद उसे भी यही अहसास था, कि वो अकेली है ऑफिस में...झट आंसू पोंछ कर उसने कहा था...'ओ..याह....आई ऍम फाइन ..आई ऍम सो सॉरी'...वो ज़रा उलटी-पुलती होने लगी थी...बात बदलते हुए मैंने पूछा ....इंडियन हो ? उसने बड़े जोर से 'हाँ' में सर हिलाया ...'मैं भी....आई ऍम सपना....' कहते हुए मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया था...और उसने हाथ बढाने से पहले, हथेली को अपने कपड़ों में जोर से रगडा था...कहीं उसके आंसू मेरी हथेली पर चिपक ना जाएँ.....यही तो सोचा होगा उसने....'नाईस तो मीट यू..आई ऍम लीना..' जबरदस्ती मुस्कुराते हुए उसने कहा था....'अच्छा लीना अब तुम मेडीटेशन बाद में करना ...यहाँ अकेला रहना ठीक नहीं..चलो अब घर चलते हैं....' मेरी आवाज़ में इतनी अथोरिटी थी,  कि लीना ने फट अपना पर्स उठा लिया था...और हमदोनों दरवाजे की तरफ बढ़ गए थे...

पार्किंग लाट में आकर मैंने देखा, सिर्फ मेरी ही गाड़ी खड़ी थी...पूछने पर उसने बताया वो ड्राईव नहीं करती है...और बस से जाती है...मैंने तपाक से उसे राइड ऑफर कर दिया...रास्ते में ऑफिस की और उसके परिवार की  बातें होती रहीं...लेकिन मैंने एक बार भी उससे नहीं पूछा... वो रो क्यूँ रही थी...

उसने बताया उसकी शादी को १ साल हुए हैं...वो पंजाब से है...भाई-बहनों में सबसे बड़ी है...माँ-बाप ने उसे अकेली ही भेज दिया था, यहाँ शादी करने के लिए...वो शादी का जोड़ा और कुछ नए कपड़े सूटकेस में भर कर, हाथ में अपने होने वाले दुल्हे की तस्वीर और आँखों में रंगीन ख्वाब लिए, अकेली ही आ गयी थी कनाडा...कनाडा आकर उसकी शादी किसी गुरुद्वारे में हो गयी...शादी के दिन, शादी जैसा कुछ भी नहीं था...इस  शादी में शरीक होना भी, सास-ससुर ने ज़रूरी नहीं समझा था...जो इसी शहर में रहते हैं...ससुर तो अपने घर में लुंगी में ही पड़े रहे थे ...शादी के तुरंत बाद ही, गुरुद्वारे से घर आकर उसने खाना बनाया था, क्यूंकि उसके पति को काम पर जाना था....उसका पति टैक्सी चलाता है... और लीना के कहे अनुसार, वो उससे बहुत प्यार करता है...

ऑफिस में हम सबके, ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे...बीच-बीच में लीना के शरीर पर, सुशील का प्यार, काले-नीले रंगों में नज़र आ ही जाता था...पूछने पर लीना पूरे कांफिडेंस से अपना, बाथरूम हादसा सुना देती थी...और मैं उसे बाथरूम में rug डालने के तरीकों पर भाषण दे देती थी...

इस बीच दर्ज़नों बार, उसे अपनी कार में मैं, उसके घर तक राईड दे चुकी थी,  लेकिन वाह री लीना.... क्या मजाल कि एक बार भी वो, मुझसे घर के अन्दर आने को कहे...बड़ी कंजूस थी वो, कभी ये नहीं कहा उसने कि... आज एक कप चाय पी कर जाओ सपना..

मैं ही कौन सी उसे छोड़ने वाली थी...वैसे भी जो मुझे जानते हैं, वो ये भी जानते हैं, जबतक कोई मुझे बिलकुल अनोइड न कर दे, मैं साथ नहीं छोडती...

आज भी मैं लीना की वही पुरानी ऊंट-पटाँग कहानी ..बाथरूम में गिरनेवाली,  झेल जाती शायद...लेकिन पता नहीं क्यों, आज ख़ुद को नहीं रोक पाई मैं...मुझे इस बात पर ज्यादा गुस्सा आ रहा था, कि लीना मुझे महा-ईडियट समझ रही थी...बिफर कर मैंने कहा था ...देख लीना अगर तुझे इसी तरह चोट लगती रही ...तो अब मैं चुप नहीं रहूंगी...कहे देती हूँ...या तो तू सुधर जा या फिर उसे सुधार दे, जिससे तुझे चोट लगती है...ये चोट आखरी होनी चाहिए...लीना भी समझ गयी थी, अब वो ज्यादा नहीं छुपा सकेगी बातें..

जाने क्या हुआ उसके बाद, लीना चार दिन तक, ऑफिस नहीं आई...मैं रोज़ उसका इंतज़ार करती, लेकिन वो नदारद रही...मन में कहीं अपराधबोध भी घर करने लगा था मेरे अन्दर...मुझे क्या ज़रुरत थी, वो सब कहने की ...मियाँ-बीवी की ज़िन्दगी है..मुझे क्या लेना-देना है...मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था..ऐसे ही विचार मेरे ज़हन-ओ-दिल पर हावी होते रहे ....लेकिन वो मेरे दिल के इतने करीब आ गयी थी, कि उसका अपमान, मुझे मेरा अपमान लगता था...

चौथे दिन शाम को, मैं लीना के घर पहुँच गयी...घंटी बजाया तो किसी गोरी ने दरवाजा खोला था...लीना के बारे में पूछने पर उसने, बेसमेंट का दरवाज़ा दिखा दिया था...मैं नीचे चली गयी..लीना बिस्तर पर निढाल पड़ी थी...मुझे देख कर उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये, जैसे उसने भूत देख लिया हो...चेहरा एकदम सफ़ेद हो गया था उसका...कहने लगी सपना ..तू क्यूँ आई..? तू मुझे मरवा डालेगी...मैंने उसे आश्वस्त किया, कि ऐसा कुछ नहीं होगा....'तू मेरा घर देखना चाहती थी न....देख ले यहीं रहती हूँ मैं'...मैंने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा ....'तो क्या हुआ ...कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा...तेरा पति एक अच्छी सी जगह में घर लेगा और तू आराम से रहेगी...इस जगह से तुझे, वो ले जाएगा'...उसने ना जाने मुझे कैसी नज़र से देखा...मेरा कलेजा मुंह को आ गया...उसने मुझे झकझोरते हुए कहा...'सपना ये मेरे पति का ही घर है...बस मेरी जगह यहाँ है, बेसमेंट में...मुझे बेडरूम में जाने की इजाज़त नहीं है'.....मैं तो जैसे आसमान से गिर गयी...क्याआआअ.?  'हाँ मेरी औकात सिर्फ एक नौकरानी की है...बता मैं तुझे कहाँ लेकर आती सपनाअअअअ' ...वो बोलती ही जा रही थी...अब मेरी आँखों के सामने उस गोरी का चेहरा घूम गया था....मैंने तुरंत पूछा...'वो गोरी कौन है...?' 'वही तो है सपना इस घर की मालकिन, मैं तो बस नौकरानी हूँ...खाना बनाना, घर साफ़ करना, घास काटना...ये काम, वो काम, सब कुछ  करना..यहाँ तक कि अपने खर्चे का भी इंतज़ाम करना....ये सारी बातें मैं झेल जाती हूँ.....लेकिन जब मुझे वो कपड़े धोने होते हैं...जिनमें उनके सानिध्य के चिन्ह होते हैं...सच कहती हूँ....मैं बिखर जाती हूँ...नहीं झेल पाती'...ये कहते हुए..लीना की छाती तो जैसे फट ही गयी थी शायद...उसका बदन इतने जोर से हिला था, कि शायद भगवान् भी उठ बैठे होंगे...

मैंने लीना को अपनी बाहों में भर लिया था...थोड़ी देर में वो शांत हो गयी थी...अब हमदोनों मिल कर उसका सूटकेस तैयार कर रहे थे...मैंने लीना को सबसे अच्छा सूट पहनने को कहा था ...बेसमेंट के, छोटे से आईने के सामने बैठी लीना का, मैं मेक-अप कर रही थी ...उसके चेहरे के सारे दाग फाउनडेशन के नीचे अब, दब गए थे...मेक-अप पूरा होने के बाद जो लीना नज़र आई..उसे देख कर मेरी आँखें चमक गयीं...इतनी प्यारी इतनी खूबसूरत कि बस पूछिए मत..

हम दोनों ने एक-एक सूटकेस उठा लिया था...हम जैसे ही दरवाज़े के बाहर आये, एक टैक्सी आकर रुकी थी, ड्राईव-वे पर...'ओये ! ये कोण है ? ओये कित्थे जा रही है ...? ऐसा ही कुछ चीख़ रहा था वो ...शायद उसे ये फ़िक्र खाए जा रही थी, अब घर का काम कौन करेगा ...वो गोरी तो करने से रही ?
हम दोनों के कदम, मेरी कार की तरफ बढ़ते जा रहे थे.....पीछे से लगातार चिल्लाने की आवाजें आ रहीं थीं...मैंने कनखियों से लीना को देखा ..उसके चेहरे पर 'Who Cares....!!' के भाव थे...आज, वो मुझे ज़रा लम्बी लग रही थी....शायद आत्मविश्वास इंसान का कद बढ़ा देता है....

हाँ नहीं तो...!

Wednesday, May 11, 2011

कुछ तो बात है.... बिहार के पानी में... !



कल हमारे घर हमारे एक मित्र, जो सरदार हैं, आये...बहुत ही खूबसूरत शख्शियत के मालिक हैं वो...रंग ज़रा सा दबा हुआ है उनका, बाकी,  कद-काठी, डील-डौल तो बस माशाल्लाह, सर पर करीने से बनी हुई लाल पगड़ी ,  उतने ही करीने से सजी दाढ़ी और मूंछ कुल मिलाकर रौबदार चेहरा....चाय की टेबल पर, बात चीत की नईया ...ओसामा बिन लादेन को वाट लगाती हुई..अमेरिका के बे-सर पैर की विदेश नीति को टक्कर मारती हुई पहुँच गयी...हिन्दुस्तान की आबो हवा तक...

हिन्दुस्तान की गर्मी की जब बात चली तो...हम भी का जाने क्यूँ पगड़ी की लम्बाई-चौडाई में उलझ गए...पूछ ही लिया.. विज साहब..! गर्मी में पगड़ी तो बड़ी दुःखदाई होती होगी...कहने लगे.. परेशानी तो होती है...लेकिन अब हमें भी इसकी लत लग चुकी है ...मैंने कहा, वैसे ये पगड़ी है बड़े काम की चीज़ ...बहुत सारे ऐब छुपा देती है...अब देखिये ना...हमने कभी कोई गंजा सरदार नहीं देखा...जबकि हम भी जानते हैं कि सरदार भी  गंजे होते हैं...अब इस पगड़ी की महिमा देखिये ...सरदारों की पगड़ी के नीचे, घने-काले रेशमी बालों की आस लगाये बैठे हम जैसे लोग, अगर अपने अड़ोस-पड़ोस में जरा सी ताका-झांकी करें , तो  किसी अटरिया पर किसी सरदार जी को,  धूप में अपनी ज़ुल्फ़ सुखाते देख, गश खा जाते हैं....गाय, जमके खेती चर गयी है,  ऐसा ही कुछ नज़ारा नज़र आया है......लेकिन किसी पर्दानशीं के मुहासों वाले चेहरे की तरह,  आपलोग भी अपनी जुल्फों को पग-नशीं कर लेते हैं...और हम गंजे सरदारों के दर्शन से महरूम रह जाते हैं.. 
विज साहब ! आप समझ सकते हैं, बिन पगड़ीवालों के साथ ये कितनी बड़ी नाइंसाफी है, .....ये सुनते ही वो ठहाका मार कर हंस पड़े...कहने लगे, ये बात आपने सही कही है...

अब वो पगड़ी की महत्ता की बात करने लगे थे...कहने लगे हमारे दसवें गुरु, 'गुरु गोविन्द सिंह जी ' चाहते थे कि  हम सरदार बिलकुल राजाओं की तरह लगे...इसलिए उन्होंने हमें पगड़ी पहनने का आदेश दे दिया...इस पगड़ी की वजह से ही तो हम सरदार राजा की तरह लगते हैं..सच पूछिए तो, ये हमारे सिर का ताज है...

अब हम ठहरे बिहारिन... एक बिहारिन दूसरे बिहारी के मन की बात न जाने... ई भला कैसे हो सकता था...! हमने कहा...विज साहब 'गुरु गोविन्द सिंह जी' थे तो बिहारी ...और ई पक्की बात है, ऊ 'राजा' 'प्रजा' की खातिर ई काम नहीं किये थे...बिहारी लोग बहुत प्रैक्टिकल होते हैं...माजरा कुछ और रहा होगा...
और तब हम लग गए व्याख्या करने में...

हमारा तर्क बड़ा ही सीधा-सरल था...हम बोले....जहाँ तक हम जानते हैं 'सिख' का अर्थ होता है 'शिष्य', श्री गुरु गोविन्द सिंह जी..उस दिनों औरंगजेब के पाँव उखाड़ने में लगे हुए थे...और इसके लिए उन्होंने एक सैन्य-टुकड़ी की स्थापना की...ज़ाहिर सी बात थी, हर आर्मी की तरह इस टुकड़ी को भी एक ड्रेस कोड दिया गया...और ये ड्रेस कोड बने ...केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण....

केश : सेना के बहादुर नौजवान हमेशा जंगलों में ही छुपे रहते थे...उनका जीवन छुपने-भागने में ही बीतता था..इसलिए उनके पास हजामत बनाने जैसी बातों के लिए फुर्सत ही कहाँ थी...बढ़ी हुई दाढ़ी का एक फायदा और था, यह उनके लिए नकाब का भी काम करती थी, जिससे वो मुग़ल सैनिकों को चकमा देकर भाग सकते थे....सिर के लम्बे बाल उसकी खोपड़ी की सुरक्षा के लिए भी उपयुक्त थे..और कभी कभी किसी महिला का रूप धारने में भी सहूलियत होती थी...पगड़ी की आवश्यकता भी इन्ही लम्बे बालों की वजह से आन पड़ी...पगड़ी शायद ६ गज लम्बा मलमल के कपड़े से बनती है...यह कपड़ा हर तरह से उपयोगी था...पतला मलमल जल्दी सूख जाता था, हल्का इतना कि ये बोझ भी नहीं था और  मजबूत ऐसा कि रस्सी के काम आ जाए... सर पर बाँधने से सिर की बचाईश भी हो जाती थी...जब दिल किया पहन लिया, जहाँ दिल किया बिछा लिया और जरूरत पड़ने पर ओढ़ लिया...

कंघा : लम्बे बाल और लम्बी दाढ़ी...जंगल का जीवन और भागा-दौड़ी....जब खाना-पीना ही मुहाल था तो केश-विन्यास की बात ही कौन सोचे भला...! और जब हजामत नहीं हो पाती थी तो बालों को तरतीब से रखने के लिए इससे उपयुक्त उपकरण और भला क्या हो सकता था...! इसलिए हर सैनिक अपने पास कंघा रखता था..

कड़ा :  कड़ा, धातु का बना हुआ मजबूत छल्ला होता है, इसका उपयोग कई तरह से किया जा सकता था ..रस्सी बाँधने के लिए, रस्सी पर सरकने के लिए, पेड़ों पर चढ़ने के लिए,   और ज़रुरत पड़ने पर हथियार की तरह भी इसका इस्तेमाल बहुत आराम से किया जा सकता था...

कच्छा : यह पुरुषों के लिए एक ढीला-ढाला अंतरवस्त्र (underwear) होता था, आराम दायक और सुविधाजनक..

कृपाण : कृपाण, एक तलवारनुमा घातक हथियार होता है...जो आकार में तलवार से छोटा होता है...जिसे आसानी से पहने हुए वस्त्रों के अन्दर छुपाया जा सकता था..और ज़रुरत पड़ने पर  बाहर  निकाला भी जा सकता था ...आकार छोटा होने के कारण यह दूर से दिखाई भी नहीं पड़ता था, लेकिन काम यह तलवार की तरह ही करता है...इसे बहुत ही उपयोगी हथियार माना जा सकता है...बिना शक-ओ-शुबहा इसे लेकर सिख सैनिक कहीं भी आया-जाया करते थे...

मेरी अधिकतर बातों से विज साहब को कोई परहेज़ नहीं हुआ ...बस मेरा गुरु गोविन्द सिंह जी को 'बिहारी' कहना उनको रास नहीं आया...परन्तु इतिहास को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता ...श्री गोविन्द सिंह जी का जन्म 'पटना साहब' में हुआ था, यह उतना ही सच है जितना सूरज हर रोज़ निकालता है...उनकी इस कामयाबी में बिहार के पानी का असर भी हुआ ही होगा....और इस बात को झुठलाया भी नहीं जा सकता है...

सिर्फ गुरु गोविन्द सिंह जी ही क्यूँ...बिहार में तो बड़े-बड़ों को ज्ञान की प्राप्ति  हुई है...जैसे गौतम बुद्ध, अगर वो 'बोध गया' नहीं जाते तो क्या वो बुद्ध कहाते ?  और महावीर जी...? जैन धर्म के प्रवर्तक श्री महावीर जी का भी जन्म बिहार में ही हुआ था...
सच कहें तो...गुप्त वंश, मौर्य वंश इत्यादि महान साम्राज्यों की राजधानी बनने का गौरव, पाटलिपुत्र अर्थात पटना को ही प्राप्त हुआ है...दुनिया भर में प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय भी बिहार में ही है...मेगास्थनीज, जैसा यूनानी राजदूत जिसे सेल्यूकस ने यूनान से भेजा था... फाहियान और हुएनसांग जैसे यात्री, भारत दर्शन करने के लिए बिहार ही आये थे...  संक्षेप में कहूँ तो ..भारत का प्राचीन इतिहास का अर्थ ही है बिहार का इतिहास....
इन सारी बातों से एक बात तो सिद्ध हो ही रही थी...कुछ तो बात है.... बिहार के पानी में...!

हाँ नहीं तो..!



Monday, May 9, 2011

तू मेरे ज़हन-ओ-दिल पर, कुछ इस तरहाँ तारी है...


तू मेरे ज़हन-ओ-दिल पर, 
कुछ इस तरहाँ तारी है,
ख़ुश्बू लगाऊं कोई, 
लगती वो तुम्हारी है,
दुश्वार हो गया है,
रहना भी अब शहर में,
इंसान यहाँ देखो,
दरिंदों पे भारी है,
ग़र हम अब मिले तो,
रुसवा ये इश्क होगा, 
अगले जन्म में तुमसे, 
मिलने की तैयारी है...  

Friday, May 6, 2011

टिप्पणी....


रुक-रुक कर चलती हुई बस,
रिश्वत देकर पेंशन लाते बुज़ुर्ग,
दहेज़ देकर बेटी की शादी
निपटा कर आता प्रौढ़,
और 
इंटरव्यू देकर आता
बेरोज़गार नौजवान,
व्यवस्था पर टिप्पणी
करते हैं...

बुज़ुर्ग ने कहा,
कितने बुरे दिन आ गए हैं,
रिश्वत लेने वाले कितने 
बेशर्म हो गए हैं,

प्रौढ़ ने अपनी बात रखी,
रिश्वत लेने वाले 
दूसरों से ईमानदार हैं,
रिश्वत लेते तो हैं,
मगर कम से कम 
काम तो करते हैं,

नौजवान की सोच थी, 
बहुत ग़लत बात है,
बहुत ही ग़लत काम है,
ग़लत रास्ता है,
जिसमें चलकर
सही लोग
तंग हो जाते हैं....
   

Sunday, May 1, 2011

खाँचे.....


मैं..
जन्म लेकर भी यहाँ, 
कहाँ !
कभी, आज़ाद हो पाती  हूँ,
'चाल-चलन',
'सुन्दर-सुशील-घंरेलू',
जैसे, खाँचे,
संग अपने ले आती हूँ,
उनमें फिट होने की कोशिश में,
मैं, जीवन बिताती हूँ,
जीवन मेरा कम पड़ जाता है,
और 
खाँचे, धरे रह जाते हैं....