Monday, February 28, 2011

मैं दुल्हन तेरी तू दूल्हा पिया..ना देखो मुझे उड़ता है धुवाँ ...


दिल जलता है तो जलने दे...
तेरा मेरा प्यार अमर...फिर किस बात का डर..
क्या क्या न सहे हमने सितम आपकी खातिर ...ये जान भी जायेगी सनम सुट्टे की कसम...
मैं तेरे प्यार में पागल ऐसे धूकती हूँ....
मैं दुल्हन तेरी तू दूल्हा पिया..ना देखो मुझे उड़ता है धुवाँ

आजा के  इंतज़ार में बुझने को है सिगार भी...

जब तक मेरे हाथों में मेरा प्यार बाक़ी  है...समझ लो जानम तेरा इंतज़ार बाक़ी है
चल चल चल मेरे साथी ओ मेरे साथी ..


Saturday, February 26, 2011

दूर के ढोल.....

एक पुरानी कविता...मेरे नए पाठकों के लिए...

दूर के ढोल सुहावन भईया
दिन रात येही गीत गावें हैं
फोरेन आकर तो भईया 
हम बहुत बहुत पछतावे हैं

जब तक अपने देस रहे थे
बिदेस के सपने सजाये थे
जब हिंदी बोले की बारी थी
अंग्रेजी बहुत गिटगिटाये थे
कोई खीर जलेबी अमरती परोसे
तब पीजा हम फरमाए थे
वहाँ टीका सेंदूर, साड़ी छोड़
हरदम स्कर्ट ही भाए थे

वीजा जिस दिन मिला था हमको
कितना हम एंठाए थे
हमरे बाबा संस्कृति की बात किये
तो मोडरनाईजेसन पर हम बतियाये थे
दोस्त मित्र नाते रिश्ते
सब बधाई देने आये थे
सब कुछ छोड़ कर यहाँ आने को
हम बहुत बहुत हड़ाबड़ाए थे

पहिला धक्का लगा तब हमको
जब बरफ के दर्शन पाए थे
महीनों नौकरी नहीं मिली तो
सपने सारे चरमराये थे
तीस बरस की उम्र हुई थी
वानप्रस्थ हम पाए थे
वीक्स्टार्ट से वीकएंड की
दूरी ही तय कर पाए थे

क्लास वन का पोस्ट तो भईया
हम इंडिया में हथियाए थे
कैनेडियन एक्स्पेरीएंस की ख़ातिर
हम महीनों तक बौराए थे
बात क़ाबिलियत की यहाँ नहीं थी
नेट्वर्किंग ही काम आये थे
कौन हमारा साथ निभाता
हर इंडियन हमसे कतराए थे
लगता था हम कैनेडा नहीं
उनके ही घर रहने आये थे
हजारों इंडियन के बीच में भैया
ख़ुद को अकेला पाए थे

ऊपर वाले की दया से
हैण्ड टू माउथ तक आये हैं
डालर की तो बात ही छोड़ो
सेन्ट भी दाँत से दबाये हैं
मोर्टगेज और बिल की खातिर
ही तो हम कमाए हैं
अरे बड़े बड़े गधों को हम
अपना बॉस बनाये हैं
इनको सहने की हिम्मत
रात दिन ये ही मनाये हैं
ऐसे ही जीवन बीत जायेगा
येही जीवन हम अपनाए हैं

तो दूर के ढोल सुहावन भैया
दिन रात येही गीत गावे हैं
फोरेन आकर तो भैया हम
बहुत बहुत पछतावे हैं

अजनबी तुम जाने पहचाने से लगते हो....आवाज़ 'अदा' की..

Tuesday, February 22, 2011

फूल, दिल और काँटे....और एक गीत ...




आहों का, नगमों का, वो काफ़िला रह गया
कैसे कहें गुफ्तगूँ का, वो सिलसिला रह गया  

चले आये सफ़र में जी, हम तो बड़े शौक से
जो पीछे घर था मेरा, वो कैसे खुला रह गया

तमाम रात जागे, खुशबू की ओढ़े चादर  
था चाँद सिरहाने पे, बस उसका निशाँ रह गया

बस्ती हो, सहरा हो, सब खो गए पीछे कहीं 
ये दिल भी दीवाना है, जाने वो कहाँ रह गया  

चलतीं हैं मेरे ज़ह्न में, कुछ बात आँधियों सी
नज़र मेरी कुम्हला गई, और चेहरा बुझा रह गया  

गुज़रे कोहो-सहरा से तो, हम बाहोशो-हवास थे 
बस कूचा-ए-जाना से, अब गुजरना रह गया
 

ये माज़ी है, क्या चीज़ है, इक यादों का सहरा है
कभी फूल, कभी कोईकहीं, काँटा चुभा रह गया 

छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए... आवाज़ 'अदा' की..

Sunday, February 20, 2011

मैं ज़िन्दगी जलाकर, बार-बार, छोड़ जाऊँगी,


पुरानी कविता है...


इक ज़ुनून, 
कुछ यादें,
थोड़ा प्यार,
छोड़ जाऊँगी,
इन हवाओं में मैं 
इंतज़ार,
छोड़ जाऊँगी,
ले जाऊँगी साथ,
कुछ महकते से रिश्ते,
मेरे नग़मों की बहार 
छोड़ जाऊँगी,
कहीं तो होंगे,
मेरे भी कुछ ग़मगुसार,
जलाकर इक दीया
प्रेम का यहीं कहीं, 
ये मज़ार,
छोड़ जाऊँगी,
कहाँ-कहाँ बुझाओगे,
मेरी सदाओं की मशाल,
मैं ज़िन्दगी जलाकर,
बार-बार,
छोड़ जाऊँगी,
मैं लफ्ज़-लफ्ज़ यक़ीं हूँ,
तुम भी यक़ीन कर लो,
मैं हर्फ़-हर्फ़ 
एतबार,
छोड़ जाऊँगी....!

एक गीत..नैनों में बदरा छाये...और आवाज़ वही...'अदा' की... 

Friday, February 18, 2011

भरी दुनिया में आख़िर दिल को समझाने कहाँ जाएँ.....एक गीत...


दिया था दिल जिसे हमने, पेशतर नज़राना
नज़र आते हैं वो मुझको, जाने क्यूँ ग़ैराना

जला कर रख दिया हमने, खूं-ए-दिल से इक दीया
बड़ी उम्मीद है हमको, आएगा फिर वो परवाना

तेरे सजदे में तेरे दर पे, घुटनों पर हम बैठे हैं
ना जायेंगे अब कभी, कोई क़ाबा ना बुतख़ाना 

तेरी यादों की ये राहें, मुझको भटकाने लगीं हैं अब  
सभी पुकारते मुझको, ओये पागल ओ दीवाना


भरी दुनिया में आख़िर दिल को समझाने कहाँ जाएँ.....एक गीत...


Wednesday, February 16, 2011

अच्च्क्के ई पोस्ट पर नज़र पड़ गई.....हाँ नहीं तो...!!

अरेरेरे...कल अईसे ही ब्लॉग में इधिर-उधिर घूम रहे थे कि अच्च्क्के ई पोस्ट पर नज़र पड़ गई ...आईला हमरा फोटू !!....आउर हमरी बातें....मन तो बहुते खुस हुआ....थोड़ा लजा भी गए ..फिन सोचे... धुत्त ...अईसा भी का लजाना..छाप ही देते हैं....हाँ नहीं तो...!!

दाधीच साहेब....अब आपसे क्या कहें...!!
धन्यवाद बहुत ही छोटा शब्द प्रतीत हो रहा है..आज...!!! फिर भी स्वीकार कीजिये..कृतज्ञं हूँ....यही कह सकती हूँ....
राजस्थान पत्रिका के प्रति भी आभार व्यक्त करती हूँ...धन्यवाद..!
प्रस्तुत आलेख निम्नलिखित पते से लिया गया है ...लेखक है...बालेंदु शर्मा दाधीच ..

बोझ संस्कारों और रस्मों का  
Wednesday, 09 Feb 2011 10:40:26 hrs IST
विदेश में रहकर भी अपनी भूमि और भाषा के प्रति गहरा लगाव रखने वाली स्वप्नमंजूषा 'अदा' ब्लॉगर होने के साथ-साथ कवयित्री भी हैं। रांची में रहकर बड़ी हुई और फिलहाल ओटावा (कनाडा) में रह रहीं 'अदा' की कविताओं और ब्लॉग पोस्टों में नारीत्व के प्रति गौरव का भाव तो है ही, मातृभूमि और अपनों से दूर रहने की व्यथा भी झलकती है। नारी की दुनिया जिस तरह सीमाओं और संस्कारों के दायरे में समेट दी गई है, उसके प्रति मासूम-सा विद्रोह भी दिखाती हैं, स्वप्न मंजूषा की कविताएं- 
इंसान के कंधों पे, रिवाजों का बोझ है/ पाजेब है संस्कार की, रस्मों का बोझ है/ आंखें वो हवस से भरी, हैं खार चुभोतीं / हैं फूल से बदन, उन निगाहों का बोझ है।

हालांकि कनाडा की जगमगाती और सुविधाजनक दुनिया में अदा को वह सब शायद ही सहन करना पड़ता हो जो आम भारतीय नारी करती है, लेकिन पारंपरिक नारी के प्रति उनके सरोकार खत्म नहीं होते। ब्लॉगिंग के बहाने अपने घरेलू जीवन में उपलब्ध उन्मुक्तता का जिक्र करते हुए वे अपनी देसज भाषा में लिखती हैं- ब्लॉगिंग से हमको का तकलीफ होगी भला ...तकलीफ तो बाकी लोगों को होती है... सब बोलते हैं कि जब देखो तब इसी में लगी रहती है... हम सुनकर भी कान में तेल दिए रहते हैं और मजे से करते हैं ब्लागिंग...।

जाहिर है, कनाडा में बसी प्रवासी भारतीय नारी और रसोईघर के कामकाज और दूसरों की सेवा में अपना ज्यादातर जीवन गुजार देने वाली विशुद्ध भारतीय गृहिणी के जीवन की सच्चाइयां अलग-अलग हैं। उनके जीवन-संघर्ष भी अलग-अलग हैं। लेकिन लंबे समय तक पारंपरिक çस्त्रयों के संसार से रूबरू होती रहीं अदा परिवार, पति और समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की पारंपरिक जद्दोजहद में लगी महिलाओं के अनुभवों से अनजान नहीं हैं। यह उदाहरण देखिए जिसमें वे द्रोपदी के बहाने आम स्त्री की पीड़ाओं और विवशताओं पर टिप्पणी करती हैं।

भावुक होकर भी वे अपने असंतोष को छिपाती नहीं। असंतोष, जो सिर्फ समाज या पुरूषों के रवैए के प्रति ही नहीं है बल्कि स्त्री की समर्पणकारी मन:स्थिति के विरूद्ध भी है-चौपड़ की गोटी बनी, रिक्त सा जीवन पाया / बिन सोचे-समझे पांडवों ने तुझ पर दांव लगाया/ अब बनो वस्तु से नारी और करो मनन / पांचाली तुम्हें किस रूप में करूं मैं स्मरण ?

आज शोषण, दुख, अन्याय, विश्वासघात, असमानता, भेदभाव आदि को उनकी लेखनी अस्वीकार्य मानती है- प्रभु तुम्हारी दुनिया में, इतना अन्याय क्यों होता है ?/ जीत-हार के अंतराल में, निर्दोष बलि क्यों चढ़ता है?

स्वप्न मंजूषा खालिस मध्यवर्गीय प्रवासी भारतीयों जैसी हैं जिन्हें वह हर चीज अच्छी लगती है जिसमें अपनी संस्कृति, अपने देश के साथ नोस्टेल्जिया का एहसास हो- पुरानी फिल्में, पुराने गाने, जगजीत सिंह, मेहंदी हसन की गजलें और लोपामुद्रा से लेकर पंचतंत्र और चाचा चौधरी जैसी पुस्तकें। ब्लॉगिंग भी एक कड़ी है जो उन्हें अपनी इस बिछुड़ी दुनिया से जोड़ती है और इसीलिए वे इसका जिक्र करते हुए जैसे किसी और कोमल-सी दुनिया में चली जाती हैं-
(अपनी ब्लॉग पोस्टों पर भारत से आने वाली टिप्पणियों को) देखते ही मैं भारत की अलसुबह के दर्शन करती थी....बिल्कुल वही एहसास होता था जैसे सुबह कि किरणें फूट रहीं हैं ..चिडियों की चहचहाहट...मंदिर की घंटी, मस्जिद की अजान... जैसे एक सुंदर सी गोरी इधर से उधर छमछम करती हुई आ-जा रही है...।।

भारतीय नारी की प्राथमिकताओं में परिवार बहुत दूर कैसे रह सकता है?  लगाव उनकी रचनाओं में खूब दिखता है- कहीं बच्चों का जिक्र आने पर सहज उमड़ आने वाली प्रसन्नता के रूप में, तो कहीं माता-पिता का जिक्र आने पर उपजने वाले गौरव के जरिए। वे लिखती हैं- मेरे 3 बच्चे हैं। मेरी दुनिया उनसे शुरू और उन्हीं पर खत्म हो जाती है... इसी तरह एक जगह उन्होंने लिखा है कि मुझे समय निकालकर अपने माता-पिता को अच्छी जगहों पर घुमाने ले जाना बहुत पसंद है।

 बालेंदु शर्मा दाधीच

अब एक ठो गीत....

Sunday, February 13, 2011

मेरे ब्लाग का तो बस ख़स्ता हाल हुआ है :):)



कुछ लिखना आज कल मुहाल हुआ है 
इस दिमाग की धोती का रुमाल हुआ है
कुछ गीत मेरे आप सुनते जाइए हुज़ूर 
मेरे ब्लाग का तो बस ख़स्ता हाल हुआ है :):)

फिल्म : चिराग़
आवाज़: लता
संगीत : मदनमोहन
गीत : मजरूह सुल्तानपुरी
इत्थे 'अदा' दी आवाज़ है जी...:)

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
ये उठे सुबह चले, ये झुकी शाम ढले
मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले
तेरी आँखों के सिवा ...

ये हों जहाँ इनका साया मेरे दिल से जाता नहीं
इनके सिवा अब तो कुछ भी नज़र मुझको आता नहीं
ये उठे सुबह चले ...

ठोकर जहाँ मैंने खाई इन्होंने पुकारा मुझे
ये हमसफ़र हैं तो काफ़ी है इनका सहारा मुझे
ये उठे सुबह चले ...


Tuesday, February 8, 2011

क्या जाने मार डाले, ये दीवानापन कहाँ....

तेरे बग़ैर, सुरूर-ओ-लुत्फ़-ओ-फ़न कहाँ
ज़िक्र न हो तेरा, फिर वो सुख़न कहाँ

मिलते हैं सफ़र में, हमसफ़र, रहबर कई
वीरान से रस्तें हैं, पर वो राहजन कहाँ

हैरत में पड़ गई हैं, ख़ामोशियाँ हमारी
मैं झूलती क़वा में, मुझमें जीवन कहाँ

तेरे हुज़ूर में ही, अब मेरा ये दम निकले 
क्या जाने मार डाले, ये दीवानापन कहाँ

बस इंतज़ार में ही, आँखें बिछी हुईं हैं 
सब पूछते हैं मुझसे, कि तेरा मन कहाँ


 

Friday, February 4, 2011

ये लो यादों का सहारा हाथों से फिसल गया......गीत ..तुम्हीं मेरे मंदिर..


ये लो यादों का सहारा, हाथों से फिसल गया
देखते ही देखते हो गई, हकीक़त बे-लिबास

वो चंद फूल जो काँटों से, गए-गुज़रे निकले
मेरे घर में थी जगह, उनके लिए बहुत ख़ास

पाँव के नीचे मसल कर, दिल मेरा रख दिया
जी रहा है मेरा क़ातिल, मेरे ही दिल के पास

आई बहारें तो मगर. क़यामत की तरह आयीं
बाग़ सारे जल गए अब, सुलगने लगी है घास

सँवर कर फिर बिखरने की, मेरी जिद्द पूरी हुई
बिखर कर अब सँवरने की, मेरी नहीं है आस



Tuesday, February 1, 2011

सूनी गली का नाम कहकशां लिखूँ ......और एक गीत...



क्यूँ न मेरे सफ़र की दास्ताँ लिखूँ
सूनी गली का नाम कहकशां लिखूँ

ग़म से सुलगते रहे मेरे शाम-ओ-सहर
ख़ुद को एक जलता हुआ मकाँ लिखूँ

मेरा वजूद ढँक गया तेरे नाम के तले 
कहो! और तेरा नाम मैं कहाँ-कहाँ लिखूँ